परिचय

बौद्ध जगत में सुजाता का नाम बुद्धोपासिक में सर्वोपरि और प्रथम है। यह उरूवेला अंचल के सेनानी नाम ग्राम में जन्‍मी थी। उरूवेला अंचल निरंजना नदी के पूर्वी भाग के सामने अवस्थित है। निरंजना नदी को नागनदी भी कहा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि पूरा मगध नाग जातियों के वर्चस्व में था। इसी मगधी भाषा को अहीरी भाषा भी कहीं गया है। निरंजना नदी के बालूवाही पूर्वी तट के भू-भाग को उरूवेला कहते हैं। 'उरू' का अर्थ बालू और वेला का अर्थ तट होता है। इसी बालूवाड़ी तटीय भू-भाग सेनानी नाम का एक बड़ा गांव था। इस गांव को बसाने वाला सुयोग्य महाबलवान नन्दबल (नन्दिक) नामक व्यक्ति था। यह सेना का नायक भी रह चुका था जिसके कारण उसे सेनिया (सेनानी-सेनापति) भी कहा जाता है। नन्दबल सेनिया के नाम पर ही वह महाग्राम सेनानी ग्राम कहलाने लगा। नन्दबल सेनिया की एक अति तेजस्वी सुन्दरी लड़की थी जिसका नाम नन्‍दबल (नन्दिका) व सुजाता थी। नन्दबल नन्दिका पिता के नाम पर तथा सुजाता सुजाता के नाम पर पड़ा। सुजाता अलौकिक सौन्दर्यवाली, रूपवाली कन्या थी। इनकी शादी वाराणसी में अपने समान यदुवंश (यादव जाति-कुल के बहुत श्री संपन्‍न गृहपति सेठ) के घर में हुई थी । सुजाता की एक परम आज्ञाकारिणी पूर्णानाम की दासी थी। पूर्णा दासी का दूसरा  नाम उत्तरा भी है। सुजाता के इकलौते पुत्र यश भिक्षु बनकर अर्ह॑त्व को प्राप्त किए। सुजाता वीर गोप पुरूष की वृद्धि में भी सुजाता का ही पुत्र यश का प्रथम हाथ था। भगवान बुद्ध के प्रथम रूप भिक्षुओं में 53 भदन्‍त यश के नेतृत्‍व में थे। सुजाता गया में जन्‍मी और वाराणसी में विहित हुई। वाराणसी का यही प्रथम कुल था जिसने समस्त परिवार के साथ युद्ध धर्म को स्वीकारा किया। बुद्ध ने स्वयं कहा  है -भिक्षुओ, मेरी उपासिकाओं में प्रथम आने वालियों में सेनानी पुत्री सुजाता सर्वश्रेष्ठ है।

·         सम्बोधि-प्राप्ति के पूर्व बुद्धों का किसी न किसी महिला के हाथों खीर का ग्रहण करना कोई अनोखी घटना नहीं थी। उदाहरणार्थ, विपस्सी बुद्ध ने सुदस्सन-सेट्ठी पुत्री से, सिखी बुद्ध ने पियदस्सी-सेट्ठी-पुत्री से, वेस्सयू बुद्ध ने सिखिद्धना से, ककुसंघ बुद्ध ने वजिरिन्धा से, कोमागमन बुद्ध ने अग्गिसोमा से, कस्सप बुद्ध ने अपनी पटनी सुनन्दा से तथा गौतम बुद्ध ने सुजाता से खीर ग्रहण किया था।

·         पाँच तपस्वी साथियों के साथ वर्षों कठिन तपस्या करने के बाद गौतम बुद्ध ने चरम तप का मार्ग निर्वाण प्राप्ति के लिए अनिवार्य नहीं माना। बाद में उन तपस्वियों से अलग हो वे जब अजपाल निग्रोध वृक्ष के नीचे बैठे तो उनमें मानवी संवेदनाओं के अनुरूप मानवीय आहार ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न हुई, जिसे सुजाता नाम की महिला ने खीर अर्पण कर पूरा किया।[1]

·         उस वृक्ष के नीचे एक बार उसवेला के निकटवर्ती सेनानी नाम के गाँव के एक गृहस्थ की पुत्री सुजाता ने प्रतिज्ञा की थी के पुत्र-रत्न प्रप्ति के बाद वह उस वृक्ष के देव को खीर अर्पण करेगी। जब पुत्र-प्राप्ति की उसकी अभिलाषा पूर्ण हुई, तब उसने अपनी दासी पूर्णा[2] को उस वृक्ष के पास की जगह साफ करने को भेजा, जहाँ उसे खीरार्पण करना था।

·         जगह साफ करते समय पूर्णा ने जब गौतम बुद्ध को उस पेड़ के नीचे बैठे देखा तो उन्हें ही उस पेड़ का देवता समझा और वह भागती हुई अपनी स्वामिनी को बुलाने गयी।

·         देव की उपस्थिति के समाचार से प्रसन्न सुजाता भी तत्काल वहाँ पहुँची और सोने की कटोरी में बुद्ध को खीर अर्पण किया।

·         बुद्ध ने उस कटोरी को ग्रहण कर पहले सुप्पतित्थ नदी में स्नान किया। तत्पश्चात् उन्होंने उस खीर का सेवन कर अपने 49 दिनों का उपवास तोड़ा।

बौद्ध धर्म के पुनरोदय काल में भी पुनः कुछ धूर्त-कपटी देवी विद्वान सुजाता जैसी परम पूज्य भारतीय नारी के कु्लगोत्र जाति के महत्व को नष्ट करने में लगे हैं। वे चाहते हैं कि सुजाता की महत्ता उनकी जन्‍मी स्‍थली में न फैले । तब तो कुछ लोग ऐसा प्रश्न उठाते हैं कि सुजाता अछूता-कन्या थी अब उनके  दृष्टि प्रश्‍न का उत्तर निष्पक्ष भाव से सुनें और हो सके तो तककमयी बातों से काटें।

प्रश्‍न:  कुछ लोग कहते हैं कि सुजाता अछूत कन्या थी। क्या यह सत्य है।

उत्‍तर : सुजाता के कुल-गोत्र-वंश-जाति जानने के लिए मूल पालि साहित्य और बौद्ध ग्रंथ का सहारा लेना होगा सुजाता के बारे में अंगुत्तर-निकायके एक निपात अट्क्कथ के सुजातावत्‍सु पृ 298  में लिखा है-उपासिका पालिया पद्य में पतमं सर मच्छान्तीनन्ति सव्यापतमं सरणेसु पतिदिवतान उपासिकान सुजाता नाम सेनियधीता आगनिदेत्पमति |.......सा कथ्यं सतसहस्सं देवमनुस्तेसु संसरित्‍वा अम्‍हाक सतथु निबतित पुसतरमय उरूवैलायं सनानिमामे सेनिवं कुटुम्बिकरम गेहे निष्पत्तित्वा  वधुप्‍पत्‍ता एकस्मि निग्नोथमूले पाचन अकासि सचे समजाजिक कूले घर गन्तवा कूल घर गन्त्वा षठममव्‍ये पुत्र  लमिस्सामि अनुससंधार बेलिकुम्भ करि ससामीति करिस्सामीति। तस्य स्तव पत्थना समिक्षि। सुजाता एक दिवसेवेव इमानि अचारिगानि दिस्वा पुण्णदासि आमेनन्‍्ते अम्म पुनमे अम्ब अम्हाक देवता कि प्रसन्‍्न्‌...... ।...... बारिसवो नेर जाय नदिया तीर गन्व सुवन्नथाल सीरे तपेत्वा नृत्वा पाचुत्तरिव एकूनपण्‍णीस पिण्‍डे करोन्तो पावास परिभूषित सुवण्भनपति नदिया समापदोहत्वा.... ।.... वसोपि कुलपत्तो रत्तिभाग समननोर विव इत्था गार दिरवा जातसवेगा।

त्रिपिटक के जातक प्रथम खण्ड के अविदुरे निदान ने लिखा है-उस समय उरूवेला (प्रदेश) के सेनानी नामक कस्बे में सेनानी कुटुम्बी के घर में उत्पन्न सुजाता नाम की कन्या ने एक बरगद के वृक्ष से मिन्‍नत मान रखी थी-यदि समान जाति के कुल घर में जा, पहले ही गर्भ में पुत्र लाभ करूंगी तो प्रतिवर्ष तेरी पूजा करूंगी ।उसकी वह प्रार्थना पूरी हुई | पूजा (बलि-कर्म, महा-यज्ञ) की इच्छा से उसने पहले एक हजार गायों को यष्टि-मधु (जेठी-मधु) के वन में चरवा कर, उनका दूध दूसरी पांच सौ गायों को पिलवाया | फिर उनका दूध ढाई सौ गायों को। इस तरह (एक का दूध दूसरे को पिलाते) 16 गायों का दूध आठ गायों को पिलवाया। इस प्रकार के दूध को लेकर खीर बनाई | इसके बाद सुजाता ने दासी को कहा-अम्मा पूर्णे। जल्दी से जाकर देव-स्थान को साफ करो ।आरये। अच्छा कहकर वह जल्दी वृक्ष के नीचे पहुंची । पूर्णा ने आकर देखा कि बोधिसत्व वृक्ष के नीचे बैठे हैं और पूर्व की ओर ताक रहे हैं। उनके शरीर से निकलने वाली प्रभा के कारण सारा वृक्ष प्रकाशित है। उद्विग्न ही उसने बहुत जल्दी से यह बात जाकर सुजाता से कही। सुजाता ने उसकी बात को सुनकर प्रसन्न हो, “आज से तू मेरी ज्येष्-पुत्री बन कर रह कह, अपनी लड़की के योग्य सब आभरण आदि उसको दिये ।...सुजाता स्वय अपने हाथों से खीर देती हुई बोधिसत्व से कहती हैं-आर्य! मैंने तुम्हें यह प्रदान किया, इसे ग्रहण क' यथारुचि पधारिये। जैसा मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ वैसा ही तुम्हारा भी पूरा हो /यह कह, लाख (मुद्रा) के मूल्य के उस सुवर्ण थाल को पुरानी तत्तल की भांति जरा ख्याल न कर चल दी।

इस उद्धरण का जातक ग्रंथ अपने वर्तमान स्वरूप में कम-से-कम लगभग दो हजार वर्ष पुराना है। यह भी सत्य है कि त्रिपिटक में न रामायण का उल्लेख है न महाभारत का | बुद्ध के आस-पास के और साहित्य में भी नहीं है। उल्टे रामायण महाभारत में त्रिपिटक की कथाएं बहुत हैं।

अब “ललित विस्तार” नामक ग्रंथ में सुजाता का परिचय देखें।

यह ग्रंथ संस्कृत-जात वा महाकाव्य ग्रंथ है। इसकी भाषा प्राकृत अर्थात्‌ पालि (मागधी) के निकट है। ललित विस्तार की भ शब्द समूह तथा व्याकरण और प्राकृत लक्षण दोनों पाये जाते हैं। इसके आधार पर धूर्त वैदिक संस्‍कृतज्ञ इस ग्रंथ में प्रयुक्त संस्कृत को विकृत ठहराने का दुस्साहस करते हैं जो गलत है इस ग्रंथ से पहले एक भी संस्कृत ग्रंथ नहीं पाया जाता है। विशेषतः इसकी चर्चा करने का यहां औचित्‍य नहीं है। विषय है सुजाता का परिचय।

उख्विल्वा सेनापति के ग्राम में नन्दिका (नाम के) ग्राम नेता की पुत्री सुजाता को देवताओं ने आधी रात के समय चेताया कि जिनके लिए तुम महान यज्ञ (बलि-कर्म) कर रही हो वे अपने व्रत में उत्तीर्ण हो सुन्दर अन्न का भोजन करेंगे...-तदनन्तर नन्दिक (नन्‍्दबल) ग्राम नेता की पुत्री सुजाता ने उन देवताओं के वचन की सुनकर जल्दी-जल्दी हजार गौओं की सात बार सास्सार लेकर इकट्ठे दूध से श्रेष्ठ भोजवाला मण्ड (सार) लिया.। सुजाता उस ताजे दूध को लेकर नए चावलों से खीर बनाकर उत्तरा (पूर्णा) नाम की दासी को बुलाकर कहा _है उत्तरे जा । बोधिसत्व उस भोजन को लेकर ग्रामनेता की पुत्री सुजाता से यह बात कही, बहन, इसे सुवर्ण-पात्र का क्या किया जाय।

(ख) सुजाता के पति बड़े गृहस्थ (गृहपति) वर्ग में उत्‍पन्‍न हुए थे। पालि साहित्य में गृहस्थ (गृहपति) श्रीसंपन्‍न वैभवशाली पुरुष को कहा गया है। प्राचीन काल में गो' अधिक गो वाले को श्रेष्ठी (ग्वाले, सेठ, धनी) कहा जाता था। श्रेष्ठी शब्द का प्रयोग अछूतों, हीन वर्गों के लिए सुजाता को अछूत कन्या कहना मूर्ख प्रलाप अल्पज्ञता मात्र है। सुजाता-पुत्र यश कुलीन धार्मिक गृहपति पुत्र था। यरा के चार मित्र थे, जो वाराणसी के ही थे विमल, सुबाह, पूर्णजित तथा गयाम्पति | सुजाता अछूत कन्या होती अंबेडकर साहब सुजाता के पुत्र यश को निम्नतर लोगों की धर्म-दीक्षा उन्होंने इस शीर्षक के अंदर नाई, उपालि, भंगी, सुणीत, डोंग, सोपाक, आदि को लाया, किंतु सुजाता के पुत्र यश को नहीं। उन्होंने शीर्षक के अंदर रखा जिसमें काश्यप परिवार, सारिपुत्र-मोग्गल्लान, कि श्रेष्ठा पुत्र यश की माता  कहीं नहीं हुआ हैं। सुजाता वाराणसी का बहुत श्रीसंपन्‍न मनियों के पुत्र थे। उनके नाम तो महा-प्रकांड बोध विद्वान डॉ. नामक शीर्षक में अवश्य लाते। सुप्पिय, सुनगल, हरवाही, धनिय, कुम्हार यश को कुलीनों तथा धार्मिक को धर्म-दीक्षा' राजा बिंबिसार तथा अनार्थ पिंडक का वर्णन हैं। इससे भी सिद्ध होता है सुजाता उच्च कुल की कन्या थी। सुजाता सुजात थी।

सुजाता उच्च कुल में जन्मी थी। इस बात की पृष्टि निम्नांकित आधारों से होती है- (1) सेनानी (सेनिय, सेनापति, सेनानायक ) की पुत्री होना, (2) गृहपति की पुत्री होना (3) श्रैष्ठी की पुत्री होना, (4) (सेनिय, सेनापति, सेनानायक) की पुत्री होना, (4) श्रीसंपन्‍न वैभवशाली की पुत्री होना, (5) श्रैष्ठ पुत्र यश की मां बनना। (6) सुजाता का नाम पडना (7) संजाता के पास पुर्णा नाम की दासी होना (8) परंपरागत जनश्रुतियों (9) स्‍वर्ण पात्र सहित सहस्‍त्र पर्व की खीर से भेंट चढाना, (10) हजारों गायों को पाले रखना आदि

बहुत से विद्वान लोग मानते हैं कि बुद्ध के समय वैदिक धर्म का वर्चस्व सीमा पर था। यदि ऐसी बात थी तो अछूत कन्या सुजाता के पिता सेनानी (सेनिय, सेनानायक) कैसे बने?  पालि साहित्‍य के राजा बिंबिसार को भी सेनिय कहा गया है। क्‍या वे भी अछूत थे? सेनानी या सेनिय शब्द से भी लिदधक है कि सुजाता के पिता निश्चय ही कुलीन वंश के गोप थे। पाणिनि ने गोप का अर्थ है प्रतिरक्षा का कार्य भार संभालने वाला कहा है।

वह बोली-यह तुम्हारी ही है। जैसी इच्छा हो वैसा करो, मैं पात्र के बिना किसी को भोजन अर्पित करती । तदनन्तर बोधिसत्व उरूविल्वा से नागनदी-नेरजना पर पहुंचे | स्नान करके बोधसल्व ने पायस खाया। खाकर सुवर्ण-पात्र को उपेक्षा भाव के साथ पानी में फेंक दिया। फेंकते ही फेंकते नागराज-सागर परम आदर-सत्कार के साथ लेकर अपने भवन चल पड़े। तब सहस्व्रनन्दन वाले गरुड़ का रूप धर वज् की चोंच बनाकर नागराज-सागर से वह सुवर्ण-पात्र छीनने लगे। जब न छीन सके, » तब अपना रूप धर आदर के साथ मांगकर चैत्य के लिए तथा पूजा के लिए त्रयास्त्रिप्श भवन ले गए।

डॉ. रघुनाथ सिंह 'बुद्ध-कथाके पृ. 31 में लिखते हैं -रमणीय उरूवेला अंचल में सेनानी एक - महाग्राम था। सेनानी ग्राम में सुजाता कन्या रत्न ने जन्म लिया था। वह सेनानी कूटुम्बिक की पुत्री थी। उसके पिता स्वयं बड़े गृहस्थ थे। सम्पन्न कुल था। सुजाता सुजात थी। उसे नन्‍दबला भी कहते थे। उसके केश काले और घने थे। सौन्दर्य दिव्य था। शरीर में ओज था। मधुर-भाषी थी।

सुजाता का पुत्र यश था। उसने भी प्रवज्या ली थी। अर्ह॑त्व प्राप्त किया था। यश का पिता यश को खोजते आया। पिता ने भगवान का उपदेश सुना | भगवान को भोजन निमित्त आमंत्रित किया। भाव _यश के साथ उसके घर पर गए। भोजन के पश्चात्‌ भगवान का उपदेश सुनकर सुजाता तथा वश कीखी _स्त्रोतापन्‍न हो गए हैं। उसी दिन सुजाता ने त्रिरलन के साथ भगवान की शरण ली।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर भगवान बुद्ध और उनका धर्मनामक पुस्तक में लिखते हैं (क)उरूवेला में सेनानी नाम का का एक गृहपति रहता था। उसकी कन्या का नाम था सुजाता। (ख) सुजाता ने प्रतिवर्ष भेंट चढाने का संकल्प किया था। (ग) सुजाता ने अपनी पूर्णा नाम की दासी को 'पूजा स्‍थली तैयार करने के लिए भेजा था (घ) सुजाता ने खीर स्‍वर्ण पात्र में सिद्धार्थ गौतम को अर्पण की। सिद्धार्थ गौतम ने स्‍वर्णपात्र लिया और सुपतिटठ नाम के नदी घाट पर स्‍नान करने के अन्‍नतर भोजन ग्रहण किया।

कुछ लोग कहते हैं कि सुजाता कुनबी-परिवार की थी। कुनबी परिवार को लेकर उसे अछूत-कन्या कहने की धृष्टता करते हैं। पालि साहित्य में भी कुनबी शब्द का प्रयोग नहीं है अतः सुजाता को कुनबी कहना मूर्ख-प्रलाप है। पालि साहित्य में लिखा है-'उरूबेलाज (उरूबेला प्रदेश के) सेनानिगाने सेनानी नामक ग्राम में सेनिय सेनापति, सेनानी (कृटम्बिक स्थल) परिवार के घर (हे) में सुजाता जन्मी। इस वाक्य में प्रयुक्त कूटुम्बिक शब्द का अर्थ कुनबी लगाकर सुजाता को अछूत कन्या सिद्ध करने का दुस्साहस करत हैं। कुटुम्बिक का अर्थ कुनबी लगाना वस्तुतः गलत है। कूटुम्ब में इकप्रत्यय लगने से कूटम्बिक !ब्द बना है। कटुम्ब का अर्थ परिवार और कूटम्बिक का अर्थ परिवार वाला, नातेदार, कूटुम्बी, कुटम्ब, के लोग आदि होता है न कि कुनबा-कुनबी। नालंदा विशाल हिंदी-शब्द सागर में कुनबा-धातु के पात्र खरीदने वाला अर्थात्‌ ठठेरा और कुनबी अर्थात्‌ जब कुनबी (जाति) को धुना (पीटा) जाता हैं। तभी वह नबी, कर्म) ठीक से सुनता है। यदि कुनबी को कूर्मी माना जाए तो इससे सुजाता गोप-कन्या ठहरती है। 'र्ण-विवेक-चंद्रिका' पुस्तक में लिखा है कि विश्वकर्मा जी की पत्नी प्रभावती नामक गोप-कन्या थी।और इसी प्रभावती से कुविन्दक पैदा हुए | फिर कुविन्दक से कोयरी और कूर्मी हुए। वर्ण वि‍वेक चंद्रिका से एक गूढ तथ्‍य यह निकला कि कोयरी और कुर्मी का संबंध गोप से अवश्य रह है जो तर्क मुगल काल लगभग 13वीं शताब्दी में जब भारत पूर्णतः गुलाम हुआ तो विशाल गोप वर्ग पुनः प्रमुख तीन कं में बंट गया। पहला जो निर्भीक, थे वे अपनी । वे पूर्वक्यारियों में साग-सब्जी उपजाकर जीविकोपार्जन करने लगे। ये वर्ग काछी-कोपरी (छुशघ वस्तुतः यह तीनों वर्ग स्वजातीय हैं इसमें कोई संदेह नहीं इतिहास बतलाता है कि ) कहलाए पिता भोसले साहेब कुर्मी थे और उनकी माता देवगिरि के यादव घराने की थीं। इसे भी शिवाजी 9 के बीच घनिष्ठता का प्रमाण मिलता है। ।2वीं सदी तक दशरथी राम और रास-बिहारी भौर कुभी प्रचलित नहीं थी, ऐसा इतिहास प्रमाण दे रहा है। इन तीनों जातियों का मूल धर्म हक की पूजा कुर्मी (कुनबी) अछूत कहना निश्चय ही मूर्ख-प्रलाप है। धर्म ही था बे किसी की जाति उनके वंशगत कर्म या पेशा से जानी जाती है। सुजाता के सेनापति) होना तथा अत्यधिक गोबाला होना पूर्णतः सिद्ध करता है कि सुजाता बोर शी 'सिनिय, परिवार में जन्मी थी। हजारों कार्यों को पाल रखनेवाली सुजाता को गोप-कन्या न कहकर के कुततीन कहना मात्र जातीय द्वेषना और मूर्ख दृढ़ता है। जब लोहे का काम करने वाले को इंहबो कन्या करने वाले को सुनार, कपड़े बुनने वाले को जुलाह, चमड़े का काम करने वाले को चमार, मै्ा काम का काम करने वाले को भंगी, श्मशान का काम करने वाले को डोम, असानी से कह दिया जाता है फिर हजारों गायों को रखनेवाली को गोप-कन्या कहने में हिचक क्यों? हिचक इसलिए है कि गोप को प्राचीनतम महत्ता इससे बढ़ जाती हैं। कर्मानुसार (पेशे से) ही जाति बनी है और सुजाता कर्मवंशी से गोप-कन्या ही ठहरती हैं पालि-साहित्य में जिस प्रकार बद्ध को गोप-मुखी (गोपों में श्रेष्ठ) और शाक्या यशोधरा को गोपा, गापी, गोपिका तक कह दिया गया है वैसा सुजाता के लिए जातीय स्पष्ट नाम का उच्चारण नहीं मिलता है। परन्तु यदि गोप का अर्थ गो-पालक और ग्वाला का अर्थ गोवाला होता है तो इस अर्थ के आधार पर सुजाता निश्चय यादवी (ग्वालनी) ठहरती हैं।

.... परम्परागत जन श्रतियाँ भी कहती है कि सुजाता ग्वालिनी थी। सुजाता जहां जन्मी थी उसके आस-पास के लोग तथा बौद्ध देश भी मानते हैं कि सुजाता गोप-कन्या थी। श्रीलंका के भन्ते पंडितानन्द और महाबोधि सोसायटी के सहायक महासचिव एम. विमलासार से भी कहते सुना कि सुजाता यादवी थी। बिहार प्रदेश भिक्षु-संघ के अध्यक्ष भिक्षु प्रज्ञादाप ने भी सुजाता को गोप कन्या होना स्वीकारा | परन्तु वे सभी प्रमाण नहीं दे सके | यह मानना होगा कि भारतीय महापुरुषों का परिचय मिटाने में वैदिक धूर्त विद्वानों की ऐतिहासिक धाँधली रही हैं। आज भी उनका स्वाभाव नहीं बदला है। सुजाता के कुछ अवशेष प्रचलित जातीय स्पष्टता को आज भी वे नष्ट कर देना चाहते हैं। वे जानते है कि बुद्ध के धर्म और संतुष्ट भूमिका रही है। इस सर्वोत्कृष्टता की अक्षम कीर्ति गोप (यादव) जाति तुल्य है। वे तो इन जातियों को कल्पित राम-कृष्ण की कथा में फंसाये रत निश्चय मूल-रूप से जागना है और यह जागना ख्र्ण ;रती थी तो सपरिवार अपने हेतु कितनी गायें रखती होगी, इसका भी अन्दाजा करें। इस दूध से निश्चय ही महदन-धी भी हर क्या करती करके बेचती होगी। इस तरह की परेशेबाली को क्या कहेंगे? होगी और जमा (1) संजाता के पास हजारों गाये थी अर्थात सुजाता गावाला थी (2) सुजाता के पिता नन्दिक (नन्दवल) सेनिय था। पालि दर न गया है। (3) इतिहास राज बिम्बिसार सेनिय को न्ञाम वंशीय सिद्ध करता है।  विम्बिसार को भी और पाणिनि के ग्रन्थों से स्पष्ट ४ सेनिय गोप और अहिर सिद्ध होता है तो सुजाता भी इसी जाति के उसे अहिरनी भी कह सकते हैं।

(4) वश को लेटठीपुत्र भी कहा गया है। प्राचीन कालों में सेट्‌ठी शब्द अधिक गो रखने वाले को कहा जाता है। इस सत्यार्थ के कारण ही धनिया गोप को सेट्‌ठी पुत्र कहा गया यश की माँ होने से सुजाता गोपी ही ठहरती हैं।

(5) जनश्रतियों के रूप में आज भी सुजाता ग्वालनी कही जाती हैं।

(6) पालि साहित्य में लिखा मिलता है - बालिम्भ करिस्तानीअर्थात्‌ सुजाता अपनी मनौती में बलिकम्भका संकल्प करती है। बल्लिकम्भ का अर्थ बलि-कर्म वा महा-यज्ञ होता हैं। इस महा-यश्र (बलि-कर्म) में वैदिक संस्कृति की तरह श्रवण संस्कृति में हिंसा नहीं होती थी। श्रवण-संस्कृति की सुजाता गोपूजक थी, शाकाहारी थी तब तो उसने अपने बलिकम्भ महा-यज्ञ में किसी प्रकार की जीव हिंसा नहीं की । सुजाता गो-माता की सेवा करवाकर फिर उसे सेवाफल से प्राप्त वस्तु के द्वारा बलिकर्म (महा-यज्ञ) करती है। इस तरह का बलि-कर्म (पूजा) गोप धर्माय की ओर संकेत करता हैं।

(7) सुजाता के पिता को गहपति वा बड़ा गृहस्थ भी कहा गया है। गृहस्थ को कृषक भी कहा जाता है। सुत्तनिपाद में बुद्ध ने गोपालकों व गोरक्षकों को कृषक भी कहा है। भारत कृषकों का देश रहा है अर्थात्‌ गोपालकों (गोपों) का देश रहा है। इतिहास तथा श्री वासुदेव अग्रवाल जी ने विशाल भारतनामक पुस्तक में ठीक ही लिखा हैं-

इस देश की सभ्यता-संस्कृति-धर्म और भाषा सब अहीरों की देन हैं।