प्रस्तावना

भारतीय इतिहास के वर्तमान दौर के अनुभवों से पश्चिमी शिक्षा और उदार आदर्शों की बढ़ती जानकारी महिलाओं के बढ़ते भेदभाव के सभी रूपों को समाप्त करने की जरूरत पर अन्तर्राष्ट्रीय ध्यान से देश की सामाजिक चेतना में वृद्धि हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू किया गया। उसकी विशेषता है कि इसमें स्त्री व महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं। अतः महिलाओं की स्थिति पुरूषों के समान बनाने हेतु एवं उनके उत्कर्ष की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाए गए जैसे 1956 को पुनर्विवाह अधिनियम, समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976, दहेज निषेध एक्ट 1981, प्रसूति लाभ एक्त 1961 आदि। 1985 में महिला एवं बाल-विकास विभाग की स्थापना की गई। 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया एवं अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाने लगा। सभी पंचवर्षीय योजनाओं में महिला-विकास को महत्व दिया गया। इस अवधि में महिला केन्द्रित योजनाएँ आई और महिलाओं के विकास सम्बंधी मुद्दों को अधिक गम्भीरता से लिया गया। भारत सरकार द्वारा 2001 में महिला सशक्तिकरण वर्ष घोषित किया गया। स्वयंसिद्धा योजना, महिला-समाख्या, क्प्छ।त्ब्। इत्यादि योजनाएँ आरंभ की गई। राज्यों की ओर से देवी रूपक योजनाछत्तीसगढ़ में दीदी बैंकआदि योजनाएँ आरम्भ की गई। महिलाओं को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए लोकतांत्रिक भारत में लिंग समानता तथा मानवाधिकारों को महत्व और सामाजिक न्याय की स्थापना के परिपेक्ष्य में महिलाओं की स्थिति सुधारने सम्बंधी प्रावधान रखे गये। महिला समानता के सन्दर्भ में संविधान में निम्न 3 बातों को सूत्र रूप में माना गया-

1.         लिंगाधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को प्रतिबंधित किया जाय।

2.         महिलाओं की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए राज्य को यह अधिकार दिए जाएँ कि वे महिलाओं के हित में विशेष प्रावधान करें।

3.         नीति-निर्देशक सिद्धान्तों द्वारा महिलाओं से सम्बंधित कुछ सन्दर्भों में राज्य को दिए गए।

पिछले दशकों में विशेषकर 9वीं व 10वीं पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान प्रयासों को तीव्र किया गया और राष्ट्र के विकास में महिला अधिकारिता को विशिष्ट लक्ष्य के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है। सर्वांगीण विकास हेतु महिला उत्थान नीति-2001 का निर्धारण एवं क्रियान्वयन वर्ष 2001 में। राष्ट्रीय महिला शक्ति सम्पन्नता नीति-2001 घोषित की जिसके लक्ष्य में महिलाओं को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा सिविल सभी स्तरों पर भेदभाव दूर कर समान तथा सक्रिय भागीदारी तथा उनकी सुदृढ़ीकरण।

इसी संदर्भ में भारत ने वैश्विक भावना के अनुरूप महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु 1989 में महिला समाख्या कार्यक्रम प्रारम्भ किया जिसका अर्थ हैः-A movement for women empowerment enabling dignity and choice through education, health, economic empowerment and women's place in governance.

महिला सशक्तिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें महिलाओं को पुरूषों के समकक्ष लाकर उनके प्रति होने वाले सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त कर उन्हें स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के प्रयासों को पुनर्बलन किया जाता है, ताकि वे अपनी परम्परागत दब्बू प्रकृति के आवरण से बाहर निकलकर आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बन सके। United Nations High Commission for Human Right के अनुसार-यह औरतों को शक्ति, क्षमता तथा काबलियत देता है ताकि वे अपने जीवनस्तर को सुधारकर अपने जीवन की दिशा को स्वयं निर्धारित कर सकें।

महिला सशक्तिकरण की पहल 1985 ई॰ में अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन नैरोबी (केन्या) में की गई थी जिसका तात्पर्य है-महिलाओं को पुरूषों के बराबर वैधानिक, शैक्षणिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में उनके परिवार, समुदाय समाज एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निर्णय लेने की स्वायत्तता हो

वर्तमान में प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, खेलकूद, चिकित्सा, विज्ञान, उद्योग एवं उक्त सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने सिद्ध कर दिया है कि यदि उन्हें भी पुरूष के समान अवसर दिया जाय तो वे भी अपने दायित्वों का निर्वाह कर सकती है। सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाएँ महिलाओं को समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए दृढ़ संकल्प हैं एवं तदर्थ सराहनीय योगदान दे रही है।

महिला समाख्या योजना सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े ग्रामीण समूहों की महिलाओं के लिए चलाई जा रही एक योजना का नाम है। जिसे महिलाओं द्वारा ही संचालित किया जाता है जिससे अधिकाधिक महिलाएँ इसमें भागीदारी करना चाहती है। इस योजना को NPE 1986 के उद्देश्यों के आधार पर ठोस कार्यक्रम के रूप में 1989 में प्रारम्भ किया गया (सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ी महिलाओं की शिक्षा एवं सशक्तिकरण हेतु) महिला-संघ गाँव स्तर पर महिलाओं को मिलने, सवाल पूछने, अपने विचार अभिव्यक्त करने, आवश्यकताओं व इच्छाओं को जाहिर करने का स्थान मुहैया कराता है।

महिला समाख्या योजना ने शिक्षा की समानता के लक्ष्य प्राप्ति हेतु महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु शिक्षा के केन्द्रीयकरण को मान्यता प्रदान की। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक नवाचारी दृष्टिकोण अपनाया गया है जिसमें मात्र लक्ष्यों को प्राप्त करने के बजाय प्रक्रिया पर विशेष ध्यान दिया गया है। इसे मात्र साक्षरता कौशल ही नहीं अपितु प्रश्न, विचार, समस्या-विश्लेषण व समाधान की प्रक्रिया के रूप में माना गया है। इस योजना द्वारा महिलाओं के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना है जिसमें वे स्वयं अध्ययन कर सके, अपनी प्राथमिकता स्वयं तय कर सकें व अपनी रूचि के अनुसार ज्ञान व सूचना प्राप्त कर सके। इसमें महिलाओं ने अपनी व महिलाओं की परम्परागत भूमिका के सम्बंध में समाज की अवधारणा में परिवर्तन लाने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य सामाजिक व आर्थिक रूप से लाभ वंचित तथा अन्य कमजोर वर्ग की महिलाओं में अलगावभाव से मुक्ति व आत्मविश्वास लाना है तथा कठोर सामाजिक प्रथाओं से मुक्ति, अस्तित्व के लिए संघर्ष करना सिखाना है।

महिला-संघों ने ग्रामीण महिलाओं के दृष्टिकोणों में विभिन्न कार्यक्रमों और जागरूकता अभियानों के माध्यम में बदलाव ला दिया है जिसका प्रभाव घर, परिवार, सामुदायिक, ब्लॉक तथा पंचायत-स्तर पर देखा जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप स्कूलों में बालिकाओं के नामांकन में वृद्धि और स्कूल न छोड़ने के रूप में सामने आए हैं। योजनाओं में महत्वपूर्ण महिला-समाख्या योजना द्वारा दी गई शिक्षा द्वारा राज्यों में संघों द्वारा की गई पहलों से भिन्न-भिन्न समस्याओं के समाधान के परिणाम निम्न रूप में प्राप्त हुए हैं-

1.      दैनिक न्यूनतम जरूरतें पूरी करना।

2.      नागरिक सुविधाओं में सुधार।

3.      स्वास्थ्य एवं पोषण पर नियंत्रण पाने।

4.      सक्रिय रूप से संसाधनों तक पहुंचने एवं उन्हें नियंत्रित करने।

5.      अपने बच्चों विशेष रूप से लड़कियों के लिए शिक्षा के अवसर सुनिश्चित करना।

6.      राजनीतिक क्षेत्र और राजनीतिक गतिविधियों के भागीदारी प्रारम्भ करना।

7.      महिलाओं, बाल-विवाह, देवदासी, दहेज की खिलाफत करना और हिंसा जैसे सामाजिक मुद्दों से निपटना व उनकी चिंताओं को अभिव्यक्त करना।

8.      स्वयं के लिए साक्षरता और कौशल अर्जन की मांग और अपनी बेटियों को एवं महिलाओं को सक्षम करने हेतु सशक्त बनाने हेतु शिक्षित करना।

गाँधीजी यही मानना था कि सामाजिक संरचना में नारी की सहभागिता पुरूष के समान ही आवश्यक है। सृजन एवं संचालन नारी के बिना संभव नहीं है। अतः गाँधी जी नारी की शक्ति रचनात्मकता के कार्यों में लगाना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने 1934 में ज्योति संघसंस्था की स्थापना की जिसका उद्देश्य महिलाओं को निडर व स्वतंत्र होकर जीना सिखाना, आत्मविश्वास जाग्रत करके उन्हें स्वावलंबी बनाना, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना, राष्ट्रीयता एवं सहयोग की भावना का विकास कर कौमीय एकता की स्थापना करना एवं रूढ़ियों के बंधन से मुक्त हो व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास भी करना था।

महिलाओं के प्रति गाँधीजी के इस प्रगतिवादी व्यावहारिक दर्शन का प्रभाव है कि आज सरकार भी महिला सशक्तिकरण हेतु विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में महिलाओं को प्राथमिकता दे रही है। इनमें महिला वर्ग के लिए अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम, अनुसूचित एवं पिछड़ी जनजाति की बालिकाओं के लिए छात्रावास, राष्ट्रीय महिला कोष, ग्रामीण क्षेत्रों में महिला एवं बाल-विकास कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण हैं। बालिकाओं , महिलाओं की शिक्षा हेतु योजना निर्माण के अतिरिक्त स्वास्थ्य एवं पोषण योजनाएँ, व्यावसायिक प्रािक्षण एवं रोजगार योजनाएँ, मजदूरी तथा स्वरोजगार योजनाएँ, निर्धन महिलाओं के आर्थिक विकास हेतु लघु ऋण जैसे निवेश कार्यक्रम प्रारंभ किए गए हैं।  महिलाओं को संगठित करने की यह प्रक्रिया असंगठित महिलाओं को सामाजिक स्वतंत्रता, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप में उत्कंठित एवं समर्थ बनाने की दिशा में एक सकारात्मक प्रयास माना जा सकता है। इसके साथ बड़े पैमाने पर महिला अधिकार तथा लिंग समानता की दिशा में उनकी स्थिति बेहतर करने के लिए केन्द्रित राष्ट्रीय विधानों और नीतियों को परिवर्तित भी किया है।

सरकार द्वारा चलाई जाने वाली इन योजनाओं से महिलाओं ने शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हुए सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी भागीदारी की मांग की है। आज ग्रामीण महिला श्रमिकों ने श्रमिक संघ के गठन को उचित माना है। जिसके तहत भारतीय श्रमिक शिक्षा संस्थान में श्रमिक महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है। इन श्रमिक महिलाओं को सवैतनिक अवकाश, शिक्षा, प्रसूति अवकाश, चिकित्सा रोजगार, पर्याप्त वेतन तथा अपने शिशुओं की देखभाल के लिए बाल-विकास शिशु कक्ष तथा आंगनबाड़ी जैसी संस्थाएँ भी खोली गयी हैं। श्रम मंत्रालय में एक विशेष सेल कार्यरत है जो इन महिलाओं की समस्याओं पर धान देता है तथा तत्संबंधी नीतियों का निर्माण भी करता है। सरकारी/गैर सरकारी उद्योगों में काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा एवं सुविधा हेतु सरकार ने कई कानून ऐसे बनाए हैं जिनका यथासंभव लाभ इन महिलाओं को मिलता है। इन नियमों के अनुपालन द्वारा महिलाओं, कम आयु की बालिकाओं के एक बड़े भाग का स्वास्थ्य एवं कार्यशक्ति के दोहन नहीं किया जा सकता।

कल्याणकारी योजना के तहत विगत कुछ वर्षों से लघु बैंकों ने महिला उद्यमियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता देना शुरू किया है। सैन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत महिला उद्यमियों को औद्योगिक, आर्थिक व्यवसायों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है। वर्तमान में बालिकाओं के नाम से विशेष बीमा योजना शुरू की गई है। महिलाओें को प्रशिक्षण देने एवं रोजगार देने के कार्यक्रमों के अंतर्गत उ0प्र0, बिहार, तमिलनाडु, बंगाल, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में विभिन्न योजनाएँ शुरू की गई हैं। इसके साथ-साथ केन्द्र द्वारा पूरे भारत में अनेक योजनाएँ लागू की गई है जैसे-राजीव गाँधी सबला योजना (2011), बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ (2015), महिला शक्ति केन्द्र योजना (एम.एस.के.) महिला लोन योजना (18प्रकार), उज्ज्वला योजना के अतिरिक्त मनरेगा योजना, स्वनिधि योजना, अंत्योदय अन्न योजना, आयुष्मान भारत योजना, आवास योजना, स्वाधार गृह योजना, जनधन योजना (2014), जीवन ज्योति योजनाओं स्टैड अप इंडिया, विधवा पेंशन योजना, मुद्रा योजना, सैंट स्कीम योजना, महिला उद्यम निधि योजना, राजश्री योजना, कन्या-सुमंगला योजना, कन्या विवाह योजना, पालनहार लाभार्थी सूची, फ्री सिलाई मशीन योजना, अन्नपूर्णा योजनाएँ एवं निर्भया योजना, आर्ट आफ लिविंग के महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम (1. आर्थिक स्वतंत्रता, 2. कन्या शिक्षा, 3. एच.आई.बी./एड्स, 4. जेल कार्यक्रम, 5. नेतृत्व संवर्धन, 6. सामाजिक सशक्तीकरण) महिलाओ की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन करने की दिशा में महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।

श्री रविशंकर जी के अनुसारः सामाजिक असमानता, पारिवारिक हिंसा, अत्याचार और आर्थिक अनिर्भरता इन सभी से महिलाओं को छुटकारा पाना है तो जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। इसके लिए महिलाओं ने खुद को यकीन दिलाना जरूरी है। इसके लिए आर्ट आॉफ लिविंग महिला सशक्तिकरण का एक उत्प्रेरक कार्यक्रम है। जिन्होंने सदियों के प्रतिबंधों से मुक्तकर महिलाओं को योग्य मंच प्रदान करने में मदद की है। जहाँ से वे स्वयं को सशक्त बनाकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में समानता प्राप्त करने हेतु अग्रसर हैं।

निष्कर्षरूपेण महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को शैक्षिक एवं वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त हुई है और वे सामाजिक अन्याय के खिलाफ भी खड़ी हुई हैं। इन महिलाओं ने सकारात्मक परिवर्तन का सूत्रधार बनकर अन्य महिलाओं को भी शिक्षित व सशक्त बनाकर उनको अपनी आवाज व पहचान दिलाने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। इनके द्वारा ग्रामीण, आदिवासी एवं महिला वर्ग में मानवीय मूल्यों का पुनर्जागरण होता है और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति संवेदनशीलता भी उत्पन्न होती है। इस प्रकार आत्मसम्मान, आंतरिक शक्ति, कौशल, रचनात्मकता, आत्मविश्वास और शिष्टता के ठोस आधार के बल पर दुनिया की किसी भी चुनौती को संभालने में सक्षम है।