प्रतापनारायण श्रीवास्तव के उपन्यासों में सांस्कृतिक गुणबोध

by Naresh Kumar*,

- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540

Volume 16, Issue No. 2, Feb 2019, Pages 244 - 247 (4)

Published by: Ignited Minds Journals


ABSTRACT

संस्कृति का सामान्य अर्थ है- संस्कार, शुद्धता, परिष्कृत। किसी भी जाति व राष्ट्र की वे सब बातें जो उसके मन, रुचि, आचार-विचार, कला, कौशल एवं सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक रहती है। वे सब संस्कृति के अंतर्गत आती हैं। साहित्य और संस्कृति का सम्बन्ध बहुत गहरा होता है। बिना संस्कृति के कोई भी अच्छा साहित्य नहीं रचा जा सकता है। साहित्य ही किसी भी समाज का, उसके काल का सर्वाधिक प्रमाणिक व विश्वस्त आधार होता है। किसी भी संस्कृति का समाज पर गहरा प्रभाव होता है। संस्कृति जीवन का तरीका है। वह तरीका जमा होकर समाज पर छाया रहता है। जिसमें हम जन्म लेते हैं। संस्कृति का निर्माण बहुत सी बातों से मिलकर होता है। संस्कृति ज्ञान, विश्वास, नैतिकता, रीति-रिवाज तथा अन्य प्रकृतियाँ जो मनुष्य समाज का सदस्य होने के कारण अर्जित करता है। इन सबका मिश्रण है। संस्कृति के अंतर्गत रहन-सहन, राष्ट्रीयता, मूल्यबोध, सौंदर्यकला, रीति-रिवाज, लोकपर्व आदि तत्व आते हैं।

KEYWORD

प्रतापनारायण श्रीवास्तव, उपन्यास, सांस्कृतिक गुणबोध, संस्कृति, साहित्य