भक्तिकाल और परम्परा का मूल्यांकन
A Critical Analysis of Bhakti Movement and Tradition in Hindi Literature
by Dr. Asha Tiwari Ojha*,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 16, Issue No. 2, Feb 2019, Pages 1566 - 1570 (5)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
हिन्दी की शुरूआती प्रगतिशील आलोचना तथ्यों के वस्तुगत विश्लेषण से इतर साहित्य को अपने तरीके से विवेचित और व्याख्यायित कर रहा था। विवेचना का सर्वाधिक विवादास्पद पक्ष प्राचीन साहित्य के मूल्यांकन को लेकर रहा है। प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र तक में पिछली दो सदियों तक के साहित्य को ‘लज्जास्पद काल’ तक घोषित कर दिया गया। जबकि इसी ‘लज्जास्पद काल’ में हिन्दी साहित्य का सबसे उत्कृष्ट साहित्य ‘भक्ति साहित्य’ भी आता है। भक्तिकाल तथा इसके मूल्यांकन की समस्या प्रगतिवादी आलोचकों के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य था। साथ ही मूल्यांकन का आधार क्या होने चाहिए? माक्र्सवाद कहाँ तक इस मूल्यांकन में हमारी सहायता कर सकता है? माक्र्सवाद और प्राचीन साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में रामविलास शर्मा कहते हैं- ‘‘प्राचीन साहित्य के मूल्यांकन में हमें माक्र्सवाद से यह सहायता मिलती है कि हम उसकी विषयवस्तु और कलात्मक सौन्दर्य को ऐतिहासिक दृष्टि से देखकर उनका उचित मूल्यांकन कर सकते हैं। हम उन तत्वों को पहचान सकते हैं जो प्राचीन काल के लिए उपयोगी थे, किन्तु आज उपयोगी नहीं रह गए।’’[1] प्राचीन साहित्य हो या अर्वाचीन वह किसी खास परिस्थिति में ही रचा जाता है। इसीलिए उस युग की छाप उस साहित्य पर पड़ता है। हाँ, लेकिन एक ध्यान देने लायक बात यह है कि ‘‘सामाजिक परिस्थितियाँ साहित्य रचने के उपकरण प्रस्तुत करती है, लेकिन इन वस्तुगत परिस्थितियों के साथ साहित्यकार का आत्मगत प्रयास भी आवश्यक होता है।’’[2]
KEYWORD
भक्तिकाल, परम्परा, मूल्यांकन, हिन्दी साहित्य, विवेचित, विश्लेषण, प्रगतिशील आलोचना, लज्जास्पद काल, भक्ति साहित्य, माक्र्सवाद