हिन्दी साहित्य में आदिवासी-विमर्श

Exploring the Marginalization of Indigenous Communities in Hindi Literature

by Manish Solanki*,

- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540

Volume 16, Issue No. 9, Jun 2019, Pages 1211 - 1215 (5)

Published by: Ignited Minds Journals


ABSTRACT

दुनिया के आदिवासी समाजों ने अपनी लड़ाइयाँ खुद ही लड़ी हैं, लेकिन मुख्यधारा के क्रांतिकारी साहित्यों ने भी उनके प्रति मानवीय संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हुए उनकी चिन्ताओं के चित्रण की जहमत नहीं उठाईं। सवाल यह उठता है कि आखरि उनकी चिन्ता किसी को क्यों नहीं है? क्यों यह समुदाय आज भी हाशिये पर की जिन्दगी जीने को अभिशप्त है? साहित्य यदि बाजार के लिए नहीं है, मनुष्य और मनुष्यता के लिए है, तो हिंदी साहित्य की प्रस्तुति आदिवासी समाज के बगैर क्यों है? हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में यह प्रश्न प्रेमचंद से ज्यादा प्रेमचंद की परंपरा का वाहकों से है कि प्रेमचंद से छूट गया आदिवासी आज भी उनकी परंपरा से क्यों बहिष्कृत है? लेकिन, इस प्रश्न का जवाब न मिलता देख पिछले दशकों के दौरान इस शून्य की भरपाई की दिशा में खुद आदिवासियों को पहल करनी पड़ी।

KEYWORD

हिन्दी साहित्य, आदिवासी-विमर्श, चिन्ता, मानवीय संवेदनशीलता, जिन्दगी