व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में अष्टांगयोग की उपयोगिता: एक अध्ययन
दैहिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा दैविक गुणों का समन्वय में अष्टांगयोग की उपयोगिता
by Ram Prakash*, Dr. Monika Rani,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 16, Issue No. 9, Jun 2019, Pages 1794 - 1799 (6)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
व्यक्तित्व शब्द सामान्यतः विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे कि कुछ मनोवैज्ञानिकों ने शारीरिक ढाँचे, स्वभाव एवं व्यवहार के अर्न्तगत व्यक्तित्व का विभाजन किया है। व्यक्तित्व एक ऐसा विषय है जिसमें अनन्त दृष्टिकोण हो सकते हैं। जिसके अन्तर्गत विशिष्ट गुणों, व्यवहार आदि का समन्वय निहित है। व्यक्तित्व का कोई एक विशिष्ट व स्थायी रूप नहीं हो सकता, क्योंकि यह निरन्तर परिवर्तन शील एवं क्रियाशील रहता हैं। जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के बाह्य जगत् के समायोजन से है। बिना बाह्य समायोजन से व्यक्तित्व का ज्ञान असम्भव है। व्यक्तित्व विकास का एक व्यवस्थित रुप दैहिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा दैविक गुणों का समन्वय है। योग में चित्त के आधार पर व्यक्तित्व का विभाजन प्राप्त होता है। जो मुख्यतः पाँच भागों विक्षिप्त, मूढ़ विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्धावस्था में विभक्त है। योगदर्शन में व्यक्तित्व विकास के अर्न्तगत विभिन्न योग प्रणालियो, चित्त का स्वरूप व चित्त वृत्तियों को स्पष्ट किया गया है। वही श्रीमद्भगवतगीता में इसे राजयोग की संज्ञा दी गई है। भगवान् श्री कृष्ण और पतंजलि ऋषि ने योग के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अष्टांगयोग या राजयोग को प्रमुखमार्ग माना है। जिसे दो भागों में विभाजित किया गया हैं-1. बहिरंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम और 2. अन्तरंग- प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि है। योग के इन अंगो के निरन्तर अभ्यास से साधक बाहय एवं आन्तरिक अभिव्यक्ति की सिद्धि करते हुए, मन को नियन्त्रित करके अजने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर परम लक्ष्य तक पहुँच जाता हैं।
KEYWORD
व्यक्तित्व, व्यक्तित्व विकास, अष्टांगयोग, एकाग्र, निरुद्धावस्था, राजयोग, बाहिरंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, अन्तरंग-प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, अभिव्यक्ति