गीतिकाव्य के इतिहास एंव उद्भव और विकास
by Jitendra Yadav*,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 18, Issue No. 4, Jul 2021, Pages 201 - 207 (7)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
सामान्य शब्दों में गीतिकाव्य का अर्थ (है – ‘गाया जा सकने वाला काव्य’ परंतु प्रत्येक गाए जाने वाले काव्य को गीतिकाव्य नहीं कहा जा सकता। जिस गीत में तीव्र भावानुभूति, संगीतात्मकता, वैयक्तिकता आदि गुण होते हैं, उसे गीतिकाव्य कहते हैं। इसीलिए कहा गया है कि भारतीय गीतिकाव्य की परंपरा स्फुटतः भारतीय वेदों से पूर्व की है। लोकगीत उस परंपरा का आदि छोर है। अब तक गीतिकाव्य सैकड़ों करवट ले चुका है और आज उसकी नई-नई धारायें विकसित हो चुकी हैं। युग में जब परिवर्तन होता है या आता है तो गीत भी उससे अप्रभावित नहीं रहता। अतः गीतिकाव्य के स्वरुप और विकास को अलग-अलग स्तरों पर समझना समीचीन होगा। मानव सभ्यता में गीत की प्राचीन परंपरा है। गीत अथवा संगीत का मानव जीवन में विशेष महत्व है। एक नादान शिशु भी संगीत की स्वर लहरी से प्रभावित होकर रोना भूल जाता है। प्रारंभ में गीत के अर्थ की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था द्य जो कुछ भी लय के साथ गाया जाता था, उसे गीत मान लिया जाता था द्य इस आधार पर एक निरर्थक लयबद्ध रचना भी गीत मानी जाती थी। एक निरर्थक लयबद्ध रचना को गीत मानना उचित है या अनुचित यह एक विवादित विषय है परंतु इतना निश्चित है कि गीतों का उद्भव मानव की स्वाभाविक रागप्रियता के कारण हुआ।
KEYWORD
गीतिकाव्य, इतिहास, उद्भव, विकास, भारतीय वेद, लोकगीत, संगीत, मानव सभ्यता, स्वरुप, लयबद्ध रचना