कबीर की सामाजिक चेतना की अवधारणा
 
मंजू कुमारी1*, डॉ. छाया श्रीवास्तव2, डॉ. संजय कुमार सिंह3
1 हिंदी विभाग, मध्यांचल प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भोपाल
2 हिंदी  विभाग, मध्यांचल प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, भोपाल
3 हिंदी विभाग, पी के रॉय मेमोरियल कॉलेजधनबाद
सार - मध्यकाल, जिसे व्यापक रूप से भारतीय हिंदी साहित्य के ऐतिहासिक प्रक्षेप पथ का शिखर माना जाता है, आमतौर पर इसका स्वर्ण युग कहा जाता है। इस विशेष युग के दौरान, कलात्मक और साहित्यिक अभिव्यक्ति का शिखर स्पष्ट रूप से प्राप्त हुआ था। इस विशेष युग के दौरान, भारतीय संस्कृति और धर्म की व्याख्या पुनर्संदर्भीकरण की प्रक्रिया से गुज़री। वास्तव में, कबीर एक प्रतिष्ठित कवि के रूप में उभरे जिन्होंने अपने युग की भावना का प्रतीक बनाया। वह व्यक्ति जिसने भारतीय समाज को उपन्यास और अभिनव विचारों की शुरूआत के माध्यम से एक आदर्श बदलाव प्रदान किया, वह कोई और नहीं बल्कि... कई अन्य कवियों की तरह, कबीर की वास्तविक जीवनी मायावी बनी हुई है, क्योंकि इस सम्मानित कवि ने लगातार सामूहिक कल्याण को प्राथमिकता दी है।
मुख्यशब्द - भारतीय, संस्कृति, धर्म, ऐतिहासिक।
प्रस्तावना
मध्यकाल को भारतीय हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्वर्णयुग माना जाता हैं। इस काल में साहित्य और कला का प्रदर्षन उच्च षिखर पर था। भारतीय संस्कृति और धर्म के इस युग में नए सन्दर्भों के साथ व्याख्या की गयी। भारतीय और पाष्चात्य विद्वानों ने इस युग को धार्मिक पुनरूत्थान और पुनर्जागरण का नाम दिया। प्राचीन काल और आधुनिक काल इन दोनों के बीच मध्यकाल अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य के साथ प्रस्तुत हुआ हैं। ऐसे भारत के अस्तित्व में मध्यकालीन कवियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। शेखफरीद, रामानन्द, कबीर, गुरूनानक, तुलसी, सूरदास और ऐसे अनेक दूसरी भाषाओं के कवि हैं। जिन्होंने मध्यकालीन चेतना को अपने काव्य और प्रचार के द्वारा प्रकट किया। इनका संचार साधन आन्दोलन लहर और समूह की आवाज बनकर देष के कोने-कोने तक पहुंचा। इन कवियों ने धर्म, नस्ल, रंग, भेद से ऊपर उठकर मध्यकालीन समाज के समक्ष ईष्वर, धर्म, नेतिकता, त्याग, सेवा, प्रेम, मातृ-भाव और मानवता की अटूट साझेदारी को प्रमुखता देकर लोगों को नेक मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
कबीर ऐसे युग के प्रतिनिधि कवि थे। जिन्होंने भारतीय समाज को पूर्णरूपेज नया और मौलिक चिंतन दिया। बाकी कवियों की भाँति कबीर की प्रामाणिक जीवनी उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि यह कवि व्यक्ति भावना को छोड़कर समूह जीवन को सुखमय बनाने के लिए हर समय तत्पर रहते थे। विष्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर की ऐसी उच्चता को उनकी विनम्रता कहा हैं। फिर भी कबीर के जीवन सम्बन्धी कई नवीन खोज तथ्य प्रकाष में आए हैं। ‘‘कबीर का आविर्भाव जैसे इन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों का एक आग्रह पूर्ण आंमत्रण था और कबीर ने धर्म समाज के संघटन के लिए समस्त बाह्याचारों का अन्त करने और प्रेम से समान धरातल पर रहने का एक सर्वमान्य सिद्वान्त प्रतिपादित किया।
भारत के इतिहास में अनेक विभूतियों की सुवर्ण रेखाओं में अंकित जीवनियां उपलब्ध होती हैं जिन्होंने काल की गति अपने अमिट पदचिह्नों से एक चिरस्मरणीय स्मृति के साथ अपने जीवन के वैभव को बिखेरा हैं, जो संस्कृति के महान् स्तम्भ बने हैं, जो इलाका-पुरुष का गौरव प्राप्त कर चुके हैं, जिन्होंने जंगल में भी मंगल मनाया हैं, जिन्होंने अपने सब अभावों को पूर्णता की सीमा बना दिया हैं। कबीर भी ऐसी ही एक महान विभूति थे। आज कबीर स्मरणीय इसलिए हैं कि परम्पराओं के उचित संचयन तथा परिस्थितियों की प्रेरणा में उन्होंने ऐसे विष्व धर्म की स्थापना की जो जनजीवन की व्यावहारिकता में उतर सके और अन्य धर्मो के प्रसार में सामानान्तर बहते हुए अपना रूप सुरक्षित रख सके। वह रूप सहज और स्वाभाविक हो तथा अपनी विचारधारा में सत्य से इतना प्रखर हो कि विविध वर्ग और विचार वाले व्यक्ति अधिक से अधिक संख्या में उसे स्वीकार कर सके और अपने जीवन का अंग बना सके।
जन्म, स्थान एवं बाल्यकाल
मुझे प्रतिष्ठित कवि-संत, कबीर के जीवन पर एक परिचयात्मक प्रवचन प्रदान करने की अनुमति दें। उन महत्वपूर्ण मील के पत्थर को स्वीकार करना अनिवार्य है जिन्होंने उनके सांसारिक अस्तित्व को प्रभावित किया, अर्थात् उनकी जन्म तिथि और उनके पारलौकिक प्रस्थान की तिथि, जिसे निर्वाण के रूप में जाना जाता है। अनेक विद्वानों ने आदरणीय कबीर की जीवनी को स्पष्ट करने का प्रयास किया है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी विशिष्ट विद्वत्ता है। परिणामस्वरूप, कबीर की जीवनी की सत्यता संदेह के दायरे में आती जा रही है। मैं कबीर की जीवनी संबंधी जानकारी द्वारा निर्धारित मापदंडों के अनुरूप इस मंच पर उपस्थित हूं। इस विशेष सन्दर्भ में कबीर की कृति की निम्नतम पंक्तियाँ बोधगम्य हैं।
‘‘गुरू प्रसादी जयदेव नामा
भक्ति के प्रेम इनहीं हैं जाना।‘‘
उपर्युक्त परिच्छेद दो प्रमुख ऐतिहासिक शख्सियतों, जयदेव और नामदेव को शामिल करने का संकेत देता है, जिन्हें इतिहास के इतिहास में संतों के रूप में सम्मानित किया गया है। जयदेव के अस्तित्व का अस्थायी उल्लेख वर्ष 1170 . से मेल खाता है।
कबीर बहुत ही स्पष्टता से कहते हैं, "रामानंद राम रस माते कहि कबीर हम कहि कहि थके।" रामानंद जी को कथित तौर पर प्रसिद्ध कवि-संत कबीर के सम्मानित आध्यात्मिक गुरु के रूप में पहचाना जाता था। संक्षेप में, यह तर्क दिया जा सकता है कि कबीर का जन्म रामानंद के जन्म के बाद हुआ होना चाहिए। रामानंद का लौकिक काल व्यापक रूप से 1382 . से 1448 . तक माना जाता है। पीपा जी ने प्रतिष्ठित कवि एवं दार्शनिक कबीर का वर्णन किया है।
‘‘भगति प्रताप राज्य वे कारण जिन जन आप पठाया।
नाम कबीर सब परकास्या तहाँ पीपे कछु पाया।।‘‘
परशुराम चतुवेर्दी के अनुसार पीपा की जन्मतिथि अनुमानतः 1465-1475 के बीच आती है। अत: यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कबीर जी को पीपा का पूर्वज माना जाता है। सिकंदर लोदी के संबंध में यह देखा जा सकता है कि उसने सिकंदर लोदी के साथ कुछ समकालीन विशेषताएं साझा कीं। नाभादास के भक्तमाल के संबंध में 1755 में प्रियादास द्वारा दिए गए गहन विश्लेषण के आधार पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रसिद्ध कवि और संत कबीर, दिल्ली सल्तनत के शासक सिकंदर लोदी के ही काल में मौजूद थे। उपज की श्रवण धारणा, द्विज, पटसहरी और असंख्य सिकंदरों की अनुपस्थिति सभी काफी प्रभाव के विषय हैं।
भक्तमाल (नाभादास)
इस कृति में अलग-अलग दो छप्पयों में कबीर साहब का उल्लेख मिलता हैं। एक छप्पय पूरा कबीर सबीर साहब के सम्बन्ध में हैं और सब रामानन्द के सम्बन्ध में जिसमें उनके षिष्यों की सूची दी गई हैं और प्रसंगत कबीर साहब का उल्लेख किया गया हैं। पहले छप्पय से कबीर के सम्बन्ध में निम्न लिखित बातें ज्ञात होती हैं।
() कबीर साहब ने भक्ति विरोधी धर्म को अधर्म कहा। () भक्ति के सम्मुख उन्होंने भोग, वृत, दान सभी को तुच्छ बताया। () उन्होंने किसी के साथ पक्षपात नहीं किया और जो कुछ कहा सबके हित के लिए कहा। () कबीर ने वर्णाश्रम धर्म और षट् दर्षनों में निरूपित सिद्वान्तों की परवाह नहीं की। () उन्होंने किसी की मुँह देखी नहीं कही। () उनके द्वारा कथित रमैनी, शब्दी और साखी हिन्दुओं और तुर्को दोनो के लिए प्रमाण रूप मान्य हुई। उपर्युक्त समस्त बातें कबीर की प्रवृति और व्यक्तित्व से सम्बन्ध हैं। इनसे उनके जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिली। दूसरे छप्पय से इतना ही ज्ञात होता हैं कि कबीर साहब रामानन्द के षिष्य थे।
कबीर साहिब जी की परिचयी
इनका समय संवत् 1645 निर्धारित किया गया हैं। यह अनुमान पर आधृत हैं। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रस्तुत हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण में अनन्तदास को संवत 1645 के लगभग वर्तमान बताया गया हैं। इसी के आसपास उन्होंने कबीर साहब की परिचयी लिखी होगी। इन अनुमान के आधार पर परिचयी का समय संवत् 1645 माना गया हैं। इसमें कबीर साहब के जीवन-वृत के सम्बन्ध में निम्नलिखित महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध होते हैं -
() कबीर साहब जुलाहा थे और काषी में निवास करते थे। () उन्होंने बड़े भाग्य से रामानन्द जैसा गुरू प्राप्त किया था। () सिकन्दरषाह ने काषी में कबीर पर अत्याचार किये थे। () बथेलराजा वीर सिंह कबीर के समकालीन थे। () कबीर ने 120 वर्ष तक भक्ति साधना की थी और उसके बाद मुक्त हुए थे। () कबीरदास का बचपन धोखे में ही व्यतीत हुआ था और 20 वर्षो तक उन्हैं किसी प्रकार की आध्यात्मिक चेतना नहीं हुई थी। () कबीर साँवले रंग के सुन्दर आकृति के व्यक्ति थे।
श्री गुरू ग्रन्थ साहब
इस ग्रन्थ में कबीर के सलोक और रागु संगृहीत हैं। ग्रन्थ का सीधा सम्बन्ध कबीर के जीवन-वृत से नहीं हैं। इसके अन्तर्गत नानक, धन्ना, रविदास आदि संतो की जो बानियाँ संगृहीत हैं, उनमें कबीर की जाति का उल्लेख हैं। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में किसी अन्य घटना या ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख नहीं मिलता।
भक्तमाल की रस बोधिनी टीका
इस टीका में कबीर के जीवन-वृत से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएँ दी गई हैं। इन सूचनाओं का क्रमबद्ध विवरण निम्नाकिंत हैं- () कबीर दास रामानन्द के षिष्य थे। () यह षिष्यत्व उन्हें पंचगंगा घटा की सीढ़ियों पर स्वामी रामानन्द की खड़ाऊ से टकराने के बाद प्राप्त हुआ था। () कबीर दास कपड़ा बुनते और बेचते थे। () यवन सम्राट सिकन्दर लोदी ने कबीर पर अत्याचार किए थे। () कबीर का निधन 101 वर्ष की अवस्था में हुआ था। () भगवान ने स्वयं व्यापारी के वेष में कबीर के घर पर भोज्य सामग्री बैलों पर लादकर पहुँचायी थी।
अध्ययन का उद्देश्य
  1. कबीर की सामाजिक चेतना की अवधारणा का अध्ययन करना।
  2. श्री गुरु ग्रंथ साहिब और भक्तमाल की रस बोधिनी टीका का अध्ययन करना।
अनुसंधान क्रियाविधि
मत, मजहब, समाज, संम्प्रदाय आदि किसी देश और किसी काल में बनते हैं। उनके नियम, चिह्न, पारिभाषिक शब्द, संस्कारादि किसी महापुरूष या तात्कालिक समाज द्वारा निर्धारित होते हैं। समय-समय पर उनमें परिवर्तनपरिवर्धन भी होते हैं, परन्तु धर्म मनुष्य की अंतरात्मा का विषय है, वह सदैव अक्षुण्ण रहता है। जब दो आदमी इकट्ठे हों तब एक दूसरे के दुःख को दूर करने का प्रयत्न करे, यही धर्म है। दूसरे को दुखी देखकर द्रवित करना धर्म है। पूजा - नमाज और राम-रहीम शब्द सांम्प्रदायिक हैं। 
सांम्प्रदायिकता का मूल कारण है दैवीकरण जब विभिन्न मतावलंबियों द्वारा यह मान लिया जाता है कि हमारा मत-पंथ ईश्वर द्वारा चलाया गया हैहमारा धर्मग्रंथ ईश्वरीय वाणी है और हमारे मत - प्रवर्तक महापुरूष ईश्वर - अवतार, पैगंबर और ईश्वर वाणी है और हमारे मत - प्रवर्तक महापुरुष ईश्वर - अवतार, पैगंबर और ईश्वर - पुत्र हैं तब यह भी मान लिया जाता है कि इसके मानने वाला नास्तिक है और नरक जाने का अधिकारी है। ऐसा मानकर विभिन्न मत-पंथ वालों ने दूसरे मत-पंथ वालों को स्वर्ग भेजने के लिए उनकी हत्या कर देना भी उचित समझा। विभिन्न मत - पंथों का इतिहास मानवीय खून से रंगा हुआ है। 
सद्विचार एवं सत्कर्म के बदले कर्मकांड पर विशेष जोर दिया जाता था। मुस्लिमों पर मुल्लाओं का प्रभाव था। रोजा, नमाज, हजयात्रा, पीर पैगम्बरों का बहुत महत्व था। कबीर ने पंडितों और मुल्लाओं को उनकी गलतियों एंव दिखावा के लिए खरी-खोटी सुनाई। उन्होंने सामाजिक एवं धार्मिक अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों पर कठोर प्रहार किया और सबको मिलकर सुख-शान्ति से रहने का सन्देश दिया। कबीर देश भक्त थे - राष्ट्र निर्माता थे। उनके समय में हिन्दुओं और मुसलमानों में आपस में बहुत वैर-विरोध था। दुश्मन जैसा व्यवहार करते थे। राम और रहीम एक ही हैं। लड़ाई-झगड़ा करना अनुचित है। होता वे एक-दूसरे के साथ कबीर ने दोनों धर्मो के लोगों को बताया कि उन्हें अलग-अलग मानकर आपस में नाम में अंतर होने से सत्य में अंतर नहीं होता। 
हिन्दु कहैं मोहि राम पियारा, तुरूक कहैं रहमाना
आपस में दोऊ लड़-लड़ मूये, मरम कोई जाना ||
ईश्वर तो मन्दिर में रहता है और मस्जिद में। खोजने पर वह मनुष्य के हृदय में ही मिल सकता है। हिन्दू कबीर को मुसलमान मानते थे और मुसलमान उन्हें हिन्दू समझते थे  
जाहदे तंग नहजर ने मुझे काफिर जाना
और काफिर यह समझता है मुस्लमा हूँ मैं ।।
"भारत के पूरे इतिहास में एकता के इतने सुन्दर और भावपूर्ण प्रदर्शन का कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। जिस युग में जब तुर्क शासकों की तलवार भारत के सर पर चमक रही थी इस मुसलमान जुलाहे के हर्फ मुहब्बत (प्रेमवाणी) कितना आकर्षक रहा होगा जिसने अपने आप को सर से पांव तक भारत के रंग में रंग लिया था और यह भी यकी किया जा सकता है कि कबीर से परिचित होने के बाद आम हिन्दू आम मुसलमान से नफरत नहीं कर सकता था।
डेटा विश्लेषण
संतों की आध्यात्मिकता में सामाजिक व्यक्तिवाद का पूर्ण प्रयोग देखा जा सकता है। न तो वे और न ही समूह एक दूसरे के साथ किसी भी प्रकार के सामाजिक संघर्ष में लगे हुए हैं। सामाजिक अलगाव में रहने वाले किसी व्यक्ति का ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जो ईसाई धर्म के संतों के सिद्धांत में पाया जा सके। कबीर की अपेक्षा यह थी कि आम लोग एक नई सामाजिक व्यवस्था के तहत अपेक्षाकृत आराम से रह सकेंगे, जिसमें रूढ़िवाद, विघटन, सामाजिक एकजुटता, धार्मिक समूहों और पारंपरिक प्रथाओं द्वारा लाई गई सामाजिक विकृतियाँ शामिल होंगी। मेरी ओर से आपको शुभकामना। उन्होंने जीवन में जो सबक सीखा, वह समाज से सीखा और उन्होंने दूसरों को भी समाज से सिखाया। ये दोनों चीजें समाज से आईं। कबीर की अनुपस्थिति का समाज की संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ा। सामाजिक व्यवस्था का निर्माण गौरव, विरासत में मिली संपत्ति और एक-दूसरे के सापेक्ष श्रेष्ठता और हीनता की धारणा की नींव पर किया गया था। पारंपरिक माने जाने वाले अंधविश्वास भी जाति सिद्धांतों से दूषित हो जाते हैं।
बहुत से लोगों का मानना है कि जानवरों की औपचारिक हत्या एक पवित्र प्रथा है। समाज में व्याप्त पाखंड और धार्मिक अहंकार को देखकर कबीर को काफी निराशा हुई। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि योगी योग से पूरी तरह मोहित थे। टीकाकारों की दृष्टि से पुराणों को निम्न आदर की दृष्टि से देखा जाता था। मुल्ला कुरान की सामग्री का विश्लेषण करना बंद नहीं कर सका। न्याय की खोज एक ऐसी चीज़ थी जिसके प्रति क़ाज़ी बहुत भावुक थे। 
जोगी माते धरि जोग ध्यान, पंडित माते पढ़ि पुरान ।
तपसी माते तप के भेव, सन्यासी माते करि हमेव ।।
मौलाना माते पढ़ि मुसाफ, काजी माते दै निसाफ ||
वास्तव में, यह स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति पर मोहभंग की स्थिति गई थी, जिससे वे सही पथ से भटक गए थे। संपूर्ण समाज एक मनगढ़ंत वास्तविकता के दायरे में गहराई तक डूबा हुआ था। प्राचीन काल में, एक प्रथा मौजूद थी जिसके तहत व्यक्ति निर्जीव पत्थर की पूजा करते थे, जिससे जीवित आत्मा की जीवन शक्ति और सार के प्रति उपेक्षा प्रदर्शित होती थी। इच्छित दावा कबीर के एक ऐसे समाज के अवलोकन से संबंधित है जो दूसरों के बीच दंभ, अज्ञानता, आत्मनिरीक्षण और धोखेबाजी जैसे विकारों में गहराई से डूबा हुआ था। संपूर्ण वायुमंडलीय स्थितियों में दमघोंटू और दमनकारी प्रकृति की भावना व्याप्त थी। मानव अस्तित्व का सचेतन पहलू अनुपस्थित हो गया है।
उस काल में रहने वाले व्यक्तियों की यह धारणा थी कि मौखिक प्रवचन और व्यवहार पैटर्न दोनों में स्पष्ट शत्रुता समाज को गहन गिरावट की ओर ले जा रही थी। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि जिस व्यक्ति में अनैतिक प्रवृत्ति होती है, उसमें स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग करने और प्रकट करने की क्षमता का अभाव होता है।
कबीर ने दो अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला है: 
1. आदर्श और कमनीय रूप, जिसकी प्रतिष्ठा उन्होंने प्राणप्रण से की। 
2. गर्हित रूप, जिसकी निन्दा उन्होंने कठोर शब्दों में की। 
विचाराधीन रूप की प्रारंभिक पुनरावृत्ति का श्रेय संत कबीर की सम्मानित छवि को दिया गया, जबकि बाद की अभिव्यक्ति को प्रख्यात सुधारक कबीर की गंभीर निंदा का सामना करना पड़ा। संत कबीर के प्रवचन में मधुरता और पागलपन का सामंजस्यपूर्ण मिश्रण प्रदर्शित होता है, जबकि इसके विपरीत, सुधारक कबीर की वाणी में कड़वाहट और अनैतिकता के तत्व प्रकट होते हैं। संत समाज की अवधारणा को उसके दृष्टिकोण से एक अनुकरणीय समाज माना जाता है, क्योंकि यह एक संत की पवित्रता को कायम रखता है, जो उनके अस्तित्व के व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों आयामों को समाहित करता है। सद्गुणी आचरण की अभिव्यक्ति के माध्यम से, एक संत के पास उन व्यक्तियों को भी पवित्रता की स्थिति तक ऊपर उठाने की उल्लेखनीय क्षमता होती है, जिन्हें समाज के भीतर अछूत समझा जाता है। अब से, यही कारण है कि कबीर ने संतों की महिमा का अनावृत्त स्वर से बखान किया है।
लोक चेतना दया एवं क्षमा भाव 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर लोक कलाकारों को मुख्यतः एकान्त और गुप्त भक्ति की ओर उनके झुकाव के कारण शत्रु के रूप में स्थान दिया है। यह रुख इस अवलोकन में निहित है कि, तुलसी जैसी अन्य प्रमुख हस्तियों की तुलना में, सगुण उपासक तुलसी के प्रति अधिक श्रद्धा रखते हैं। कबीर की उल्लेखनीय योग्यता उन लोगों से प्रशंसा प्राप्त करती है जो उनकी असामाजिक घोषणाओं के कारण उन्हें निंदनीय मानते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने साहित्यिक प्रवचन में इस व्यक्ति को 'साखी, सबदी, दोहरी, कहि किहानी उपखान' जैसी विभिन्न उपाधियों से नवाजा है और यहां तक कि उन्हें 'भगती निरूपहिन' या अभावग्रस्त कवि के रूप में भी लेबल किया है। भक्ति उत्साह. इसके अलावा, तुलसीदास ने उन्हें 'बुरे कवि' के रूप में निरूपित करके, उनकी काव्य क्षमताओं पर आक्षेप लगाकर और यहां तक कि इस आलोचना को वैदिक ग्रंथों और पुराणों के दायरे तक विस्तारित करके अपनी अस्वीकृति व्यक्त करने में संकोच नहीं किया है। दी गई विषय-वस्तु पर्याप्त मात्रा में परिमाण से संपन्न है।
कबीर की सत्यान्वेषी दृष्टि
कबीर ने गुरु और अनुभव को महत्व दिया है, ये दो स्रोत हैं जिनसे कोई व्यक्ति अपने जीवन के परिप्रेक्ष्य, उद्देश्य और सफलता के मार्ग पर सटीक ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जीवन यात्रा की सफलता और सार्थकता गुरु, सत्संग और दर्शन पर निर्भर है क्योंकि आत्मोन्मुख दृष्टिकोण ईश्वरोन्मुखी या आत्मोन्मुख हो जाता है, जो गुरुमुख दृष्टिकोण का सार है। सत्संग शक्ति और पुष्टि प्रदान करता है और पुष्टि अंतिम अनुभव में सिद्ध होती है। अनुभव की परीक्षा तो परीक्षा होती है।
जब तक उस गुरु की कृपा प्राप्त नहीं हो जाती तब तक जीव 84 लाख योनियों में कष्ट भोगता हुआ भटकता रहता है। गुरु की कृपा जिस किसी को मिलती है! उनकी कागजी कार्रवाई पूरी हो चुकी है. आप ईश्वर से अलग नहीं हो सकते, लेकिन आप अपने आदर्श गुरु से अलग हो सकते हैं। क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर से कट जाने पर गुरु स्वयं में सांत्वना ढूंढता है, उसी प्रकार गुरु से कट जाने पर भी गुरु स्वयं में सांत्वना ढूंढता है। एक कुम्हार और एक अनुयायी की कल्पना करें, दोनों के पास अपना अनूठा कौशल सेट है। जिस प्रकार कुम्हार घड़े की कमियों को दूर करके उसे आकार देता है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को तब तक प्रशिक्षित करता है जब तक वह आकार प्राप्त नहीं कर लेता। जब सलाह देने की बात आती है, तो गुरु अंदर से गर्म और रोएंदार होते हैं लेकिन बाहर से सख्त और दूरदर्शी होते हैं। गुरु से अधिक देने वाला कोई नहीं है और अधिकांश समय शिष्य भिखारी की तरह व्यवहार करता है। इसके अतिरिक्त, गुरु अनुयायी को दुनिया की सारी दौलत प्रदान करता है।
सत्संग
वे व्यक्ति जो सद्गुणी व्यक्तियों का साथ प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं, वे केवल गरीबों के स्मरणोत्सव के आयोजनों तक ही सीमित रह जाते हैं। मानव शरीर, बिना किसी संदेह के, अच्छे संघों के प्रचार के लिए एक अद्वितीय पोत के रूप में कार्य करता है, जिसे आमतौर पर संतों की कंपनी के रूप में जाना जाता है। यह स्वीकार करना अनिवार्य है कि जो व्यक्ति इस तरह के शुभ साहचर्य का लाभ उठाने में विफल रहता है, उसे सबसे अधिक शोचनीय जीवन सहना पड़ता है। सकारात्मक संगति का गहरा प्रभाव इतना बड़ा होता है कि यह एक व्यक्ति को ज्ञान का अमूल्य खजाना प्राप्त करने में सक्षम बनाता है, साथ ही अच्छे व्यक्तियों की संगति में रहने से जुड़े किसी भी दोष की भावना से मुक्त हो जाता है। इसकी तुलना एक जादूगर की संतान, एक छोटे बच्चे से की जा सकती है, जो निडर होकर एक साँप से उलझता है, फिर भी उसकी उपस्थिति से आनंदपूर्वक अनजान रहता है।
अनुभव
कबीर, योगवशिष्ठ के अनुपालन के अनुसार, दर्शन के गहन अनुभव को स्थापित करने का प्रयास करते हैं। इसके अलावा, शास्त्रों की उपयोगिता और व्यक्तिगत अनुभव के समान पुष्टिकारक साक्ष्य के संबंध में एक स्पष्टीकरण भी प्रदान किया गया है। इस तथ्य की स्पष्टता चालान के भीतर एक फॉर्म शामिल करने से स्पष्ट होती है। अनुभव की अवधारणा की तुलना वेदों के गहन ज्ञान से भरे एक बर्तन से की जा सकती है, जो पानी के विशाल और निर्बाध भंडार से निकलने वाले पत्तों के हरे-भरे विस्तार से घिरा हुआ है। विद्वान, ज्ञान की खोज में, इस रूपक प्रतिनिधित्व की जांच और जांच करने के लिए तैयार हैं। वेदों, स्मृतियों, पुराणों और ऐसे अन्य ग्रंथों को महत्व नहीं दिया जा सकता क्योंकि अनुभवात्मक वास्तविकता के लिए अनुभवकर्ता के भीतर उचित गुणात्मक परिवर्तनों को शामिल करने की आवश्यकता होती है।
ज्ञानवाणी व कर्म का सामंजस्य
तीन स्रोतों, अर्थात् गुरु, सत्संग और व्यक्तिगत अनुभव से प्राप्त ज्ञान का अधिग्रहण, मात्र अवलोकन और श्रवण ग्रहण से आगे तक फैला हुआ है। यदि कोई ज्ञान के अस्तित्व पर उसके बाद के विश्लेषण और अभिव्यक्ति के साथ विचार करता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त ज्ञान का महत्व उसके कार्यान्वयन के तरीके पर निर्भर नहीं है। नतीजतन, यह निष्कर्ष निकलता है कि विचाराधीन ज्ञान के महत्वपूर्ण रूप पारस के संपर्क में आए एक मात्र पत्थर द्वारा प्रदर्शित विशेषताओं के साथ संरेखित नहीं होते हैं। इस परिदृश्य में, पारस का पत्थर के भीतर मौजूद होना असंभव है, जिससे यह उपरोक्त प्रकार के ज्ञान से अलग हो जाता है। इसे सोने में परिवर्तित करना संभव नहीं है। अब से, राग और द्वेष का उन्मूलन एक प्रशंसनीय प्रयास बन जाता है। बहुत से लोग गहन विद्वता के बारे में चर्चा करते हैं, लेकिन अफसोस की बात है कि वे ऐसी बातों को अपने दायरे में साकार नहीं कर पाते। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के अवलोकन में शामिल होने से प्राप्त स्पष्ट लाभों की कमी है। एक व्यक्ति, जो आत्म-जागरूकता रखने के बावजूद, उस ज्ञान को व्यावहारिक क्रिया में अनुवाद करने में असमर्थ रहता है। ज्ञान का अधिग्रहण किसी वस्तु के चुंबकीय गुणों के समान होना चाहिए, जिसमें व्यक्ति अपनी अंतर्निहित परिचालन क्षमताओं के माध्यम से इसके साथ जुड़ने में सक्षम होता है। 
अहिंसा
वर्तमान विषय वस्तु सद्गुरु समता की शिक्षाओं से ली गई है। जीवन की अवधारणा समतावाद की स्थिति को प्रदर्शित करती है, जिसमें यह माना जाता है कि सभी जीवित संस्थाओं में जीवन शक्ति और अस्तित्व की समान डिग्री होती है। अब से, यह माना जा सकता है कि किसी भी जीवित प्राणी पर हिंसा का अपराध समानता के मूल सिद्धांत के विरुद्ध अपराध है। हिंसा के इस कृत्य से उत्पन्न अंतर्निहित अपराधों को केवल तीर्थयात्रा करने, शास्त्रीय शिक्षाओं के निष्क्रिय अवशोषण, या बहुमूल्य रत्नों के आडंबरपूर्ण दान के माध्यम से ठीक नहीं किया जा सकता है। 
कबीर के काव्य का शिल्प विधान
एक व्यक्ति के रूप में कबीर, हिंदी संस्कृति से संबंधित हैं, जिसने स्थानीय भाषा के उपयोग के माध्यम से अपनी साहित्यिक विरासत स्थापित की है, जो मुख्य रूप से अशिक्षित आबादी द्वारा बोली जाती है, जिसमें इनकार और विरोध की अभिव्यक्तियां होती हैं। आठवीं शताब्दी में, सांस्कृतिक परिदृश्य के भीतर विभिन्न महत्वपूर्ण तत्वों की उपस्थिति देखी जा सकती है। इनमें से उल्लेखनीय मूर्तियाँ, मंदिर, धर्मग्रंथ और मठ हैं जो प्रचलित सांस्कृतिक परिवेश की मूर्त अभिव्यक्ति के रूप में काम करते हैं। ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व से भरपूर ये कलाकृतियाँ उस युग के सामाजिक ताने-बाने के बारे में बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। शिक्षा और पवित्र धागे की खोज के साथ छत्र, मुकुट, माला और तिलक का उपयोग, सिद्धाचार्य आंदोलन के विकास का उदाहरण है, जिसने जाति और वर्ण की प्रचलित धारणाओं को साहसपूर्वक चुनौती दी। सिद्धयार्य के नाम से जाने जाने वाले व्यक्ति ने कुछ काव्य रचनाएँ व्यक्त कीं जिन्हें पारंपरिक छंदों के बजाय 'सबद' के अधिक समान माना जा सकता है।
काव्य भाषा
अपनी वाक्पटु व्याख्या में, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की काव्य शैली की शानदार अभिव्यक्ति की व्याख्या करते हुए कहा कि सम्मानित कवि के पास भाषा की पेचीदगियों पर असाधारण महारत थी। वक्तृत्व के क्षेत्र में उनका स्थान प्रामाणिक व्यक्ति का था। व्यक्ति ने भाषा के उपयोग के माध्यम से या तो प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के माध्यम से या संचार के विलंबित माध्यमों के माध्यम से अपने इच्छित संदेश को सफलतापूर्वक व्यक्त किया। कबीर के पास एक भाषाई कौशल है जो उन्हें एक अन्यथा अनिर्वचनीय कथा को रूप देने में सक्षम बनाता है, जो इसे पूरी तरह से मनोरम बनाता है, जो वास्तव में लेखकों के बीच एक दुर्लभ प्रतिभा है।
इसी तरह, पं. परशुराम चतुर्वेदी जी इस बात की पुष्टि करते हैं कि कबीर साहब के आगमन से पहले और बाद में विभिन्न भाषाओं का एक साथ उपयोग, या एक ही रचना के अलग-अलग छंदों के भीतर अलग-अलग भाषाओं का उपयोग, एक सामान्य घटना है। उपरोक्त घटना काफी महत्वपूर्ण थी। काव्य रचनाओं के क्षेत्र में, कोई एक उल्लेखनीय घटना देख सकता है जिसमें विविध भाषाई मूल से उत्पन्न क्रिया, केस मार्कर और संयोजन सहज तरीके से सामंजस्यपूर्ण रूप से एकत्रित होते हैं। क्षेत्रीय भाषाओं या बोलियों की रचनाओं में संस्कृत, फ़ारसी और अन्य भाषाओं की पंक्तियों का समावेश पाया जाना असामान्य नहीं है। इस प्रथा को अपने आप में कोई दोष नहीं माना जाता है। इसके बाद, यह निर्विवाद है कि कबीर की बोली का भाषाई वर्गीकरण कोई और नहीं बल्कि पूर्वी हिंदी, या अधिक विशेष रूप से, पूर्वी हिंदी है। यह दावा कि पश्चिमी हिंदी एक उपयुक्त शब्द है, सटीक नहीं है। कुछ व्यक्ति निम्नलिखित उद्धरण का प्रयोग करके अपने क्षेत्रीय भाषण को "पूर्वी" कहते हैं -
‘‘बोली हमको पूरब की हमैं लखैं नहीं कोय।
हमको तो सोई लखै, धुर पूरब कां होय।।‘‘
हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य है कि कुछ विद्वान निम्नलिखित उद्धरण का हवाला देते हुए अपनी भाषा को पश्चिमी हिंदी के रूप में नामित करने की वकालत करते हैं: "शिव शक्ति दियि, कौन जू जोवै, पछिम दिसा उठाये धुरी।" हालाँकि, यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि इस संदर्भ में कबीर के शब्द पूर्व और पश्चिम जैसी भौगोलिक दिशाओं के शाब्दिक संकेत के बजाय रूपक प्रकृति के हैं।
छन्द योजना
कुल मिलाकर, कबीर ने चौदह काव्य रूपों का संग्रह बनाया है, जिनके नाम हैं 'सांखी', 'शब्दी' (पद), 'रमानी', 'चैनतीसा', 'बावनी', 'वार', 'चिंती', 'चांचर', ' बसंत', 'हिंडोला', 'बेली', 'विप्रमातिसी', 'कहरा' और 'बिरहुली' उपर्युक्त काव्य रूप शास्त्रीय परंपराओं का पालन नहीं करते हैं। कबीर ने ये शिक्षाएँ सिद्धों और योगियों के पूज्य वंश से प्राप्त की हैं। विचाराधीन बीजों में लोककथाओं के दायरे में एक वंशावली का पता लगाया जा सकता है। 'साखी' शब्द को मूल शब्द 'साक्षी' का व्युत्पन्न माना जा सकता है, यद्यपि यह भ्रष्ट रूप में है। आमतौर पर संत कहे जाने वाले आदरणीय व्यक्तियों द्वारा समझी गई सत्यता को साखियों के माध्यम से स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है। उपर्युक्त नेत्र अंगों को वह नाली माना जा सकता है जिसके माध्यम से ज्ञान अर्जित और आत्मसात किया जाता है। इसके अलावा, यह ध्यान देने योग्य है कि इन उपरोक्त प्रथाओं ने गोरखपंथी योगियों और सिद्धों से संबंधित साहित्य के व्यापक निकाय में भी अपना स्थान पाया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार उनकी मान्यता है कि सिद्धों द्वारा 'हमें' शब्द को 'उपदेश' कहा जाता था, जो बाद में 'साखी' शब्द में बदल गया।
उपसंहार
मध्यकालीन भारतीय समाज के संदर्भ में, कोई भी विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं की उपस्थिति देख सकता है, जैसे बाह्यताएं, अनुष्ठान, पदानुक्रमित भेदभाव, अर्थात् ब्राह्मण-शूद्र विभाजन, साथ ही पंडा-पुजारी और मुल्ला-मौलवी की भूमिकाएं। . इसके अतिरिक्त, यज्ञ-हवन और गंडा-ताबीज जैसी प्रथाएँ भी इस काल में प्रचलित थीं। वहां काफी हंगामा हो रहा है. सामाजिक अवलोकन के संदर्भ में अपूर्ण परिश्रमी प्रयासों की अभिव्यक्ति चिंता का विषय है। मजदूर किसान को प्रकाश की स्पष्ट अनुपस्थिति का सामना करना पड़ा, मानो उनके सामने अंधेरे का कफन मंडरा रहा हो। एक विशेष समाज और युग से आने वाले कबीर ने खुद को धुंध से भरे आकाश के अस्पष्ट धुएं को देखते हुए पाया। यह उनके मात्र अस्तित्व, उनके वाक्पटु प्रवचन और उनके चमकदार सार के माध्यम से था कि वह आत्मज्ञान और अतिक्रमण के दरवाजे खोलने में कामयाब रहे। कबीर ने जाति की अवधारणा, इसके निहितार्थ और इसके महत्व को अस्वीकार करने का प्रयास किया है। कबीर ने सामंतवादी समाजों के भीतर व्याप्त शोषण और उत्पीड़न के प्रति लगातार अपना विरोध व्यक्त किया है। प्रश्नगत मामला संज्ञान में लाया गया है। इस प्रदर्शनी में, कबीर ने अपने शोध निष्कर्षों को संक्षेप में प्रस्तुत किया है, जिसमें वह सामाजिक विवेक और संस्कृति के बीच जटिल अंतरसंबंध पर प्रकाश डालते हैं, साथ ही एक नवीन सामाजिक प्रतिमान के उद्भव की ओर भी इशारा करते हैं।
संन्दर्भ ग्रन्थ सूचि
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  11. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी: लालित्य सर्जना और विवित्त वर्ण भाषा आलोचना - दिसम्बर - 1967
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  14. डॉ० रघुवंश: कथा साहित्य में नवीनता की खोज विकल्प - 1970- पृष्ट-127
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