जाति व्यवस्था: लुइस ड्यूमो के विचार
 
डॉ. नरेन्द्र कुमार*
सहायक आचार्य, समाजशास्त्र, राजकीय कला महाविद्यालय, सीकर
सार लुइस ड्यूमो ने भारतीय समाज में विद्यमान जाति व्यवस्था का अध्ययन भारतशास्त्रीय दृष्टि से किया। उनके मतानुसार पश्चिमी विचारकों द्वारा भारतीय जाति व्यवस्था का उचित संदर्भों में अध्ययन नहीं किया गया है। जाति व्यवस्था को जानने के लिए हिंदू संदर्भों को जानना आवश्यक है। इसीलिए उनका दृष्टिकोण भारतविद्याशास्त्रीय उपागम कहलाता है।
कीवर्ड पवित्रता, अपवित्रता, स्वसंस्कृतिकेंद्रीता, भारतशास्त्र।
लुइस ड्युमो एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री होने के साथ साथ भारतशास्त्री (इंडोलॉजिस्ट) मानवशास्त्री के रूप में भी जाने जाते हैं। उनका जन्म 1911 में हुआ। लुइस ड्युमो ने मार्शल मॉस के निर्देशन में शोधकर्ता के रूप में अपना कार्य प्रारंभ किया। मार्शल मॉस ने भारतीय संस्कृति पर व्यापक अध्ययन किया था। उनका प्रभाव लुइस ड्युमो पर भी रहा। लुइस ड्युमो की रुचि इतिहास को जानने में नहीं है। वे इतिहास को एक प्रदत के रूप में उपयोग करते हैं तथा उसी से भारतशास्त्रीय उपागम को विकसित करते हैं। ड्यूमो ने विश्व को पूर्वी और पश्चिमी दो समाजों में विभक्त करते हुए समानता को पश्चिमी समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता माना तथा संस्करण व्यवस्था को पूर्वी समाज की विशेषता माना। ड्यूमो के अनुसार सभी समाजों में असमानता संस्तरण सामाजिक जीवन के आवश्यक तत्व होते हैं। उन्होंने भारतीय समाज की जाति व्यवस्था, नातेदारी व्यवस्था की प्रकृति के साथसाथ विभिन्न सामाजिक आंदोलनों से विषय में भी अपना विशेषण प्रस्तुत किया है और इस दृष्टि से उनका भारतशास्त्री दृष्टिकोण समाजशास्त्र में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। लुइस ड्युमो ने अपनी पुस्तक होमो हाईआरकीकस (Homo hierarchicus) में जाति व्यवस्था का विश्लेषण किया है। उनका मत है कि भारतीय समाज में जाति व्यवस्था विचारधारायी आधार प्रदान करती है तथा हिन्दू समाज के विभिन्न सामाजिक समूहों की जीवन पद्धति को नियंत्रित करती है। उनके अनुसार पश्चिमी विचारकों ने जाति व्यवस्था की विशिष्टता को पश्चिमी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया है जो कि उपयुक्त नहीं माना जा सकता। जाति व्यवस्था भारतीय समाज की विशिष्ट प्रघटना है। इसे भारतीय परिदृश्य में ही समझा जा सकता है। उनका मत है कि पश्चिमी समाजशास्त्रियों ने समाजवाद, समानता अर्थमीमांसा जैसी विचारधाराओं के आधार जाति व्यवस्था को समझने का प्रयास किया। ड्यूमो पश्चिमी विचारकों की स्वसंस्कृतिकेंद्रीकता (ethnocentrism) की आलोचना करते हैं। ड्यूमो के अनुसार जाति व्यवस्था की व्याख्या हिन्दू संस्कृति, खासतौर से हिन्दू दर्शन को समझे बिना नहीं किया जा सकता। ड्यूमो के अनुसार भारतीय समाज के संचालन में जाति आधारित संस्तरण प्रणाली की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह संस्तरण पवित्रता अपवित्रता की वैचारिकी पर आधारित है अर्थात् पवित्रता अपवित्रता की यह वैचारिकी उनके आपसी सामाजिक अंतःक्रियाओं के पैटर्न को निश्चित करती है। ड्यूमो के अनुसार धार्मिक ग्रंथ इस प्रकार की वैचारिकी को आधार मान्यता प्रदान करते हैं। ड्यूमो के अनुसार पवित्रता की डिग्री जातीय संस्तारण में किसी भी जाति की श्रेष्ठता को निर्धारित करती है।
ड्यूमो के अनुसार अपवित्रता दो प्रकार की होती है। ऐसी अपवित्रता जो कुछ क्षण के लिए हो और जिसे कर्मकांड के द्वारा दूर किया जा सकता है उसे अस्थाई अपवित्रता कहते हैं। जैसे जन्म मृत्यु के समय सूतक इत्यादि की अपवित्रता। जो अपवित्रता स्थाई हो और जन्म से मृत्यु तक बनी रहे उसे स्थाई पवित्रता कहा है। जैसी जाति व्यवस्था में दिखाई देती है।
ड्यूमो के अनुसार पवित्रता और अपवित्रता की अवधारणा भोजन, सामाजिक संपर्क, सहवास आदि को भी नियंत्रित करती है। इसमें विद्यमान विभिन्न निषेध विशेष अधिकारों के आधार पर धार्मिक श्रेष्ठता जातीय श्रेष्ठता निर्धारित होती है जो उच्चता निम्नता को निर्धारित करती है।
ड्यूमो ने जजमानी व्यवस्था को भी पवित्रता और अपवित्रता की धारणा से समझाने का प्रयास किया है। यह जजमानी व्यवस्था बाजार व्यवस्था की बजाय जातीय व्यवस्था में गुथी हुई है तथा व्यक्तिगत निजी लाभ की बजाय सामूहिक हित कल्याण पर आधारित है। जजमानी व्यवस्था पीढ़ीगत पारिवारिक संबंधों को प्रकट करती है जो आपस में सेवाओं वस्तुओं के आदान प्रदान से जुड़े हुए हैं। विशेषकृत सेवाओं के लिए विशेषज्ञ परिवार होते हैं जो वस्तुओं के बदले सेवाएं देते हैं। यह व्यवस्था उन्ही प्रथाओं से नियंत्रित होती है जिनसे जाति नियंत्रित होती है। ड्यूमो जजमानी व्यवस्था को धर्म के साथ घनिष्ठता के साथ जुड़ी मानते हैं। ड्यूमो के अनुसार उच्च जातियों के लिए सामाजिक के साथ साथ आर्थिक स्थिति को भी निर्धारित कर देती है। इस प्रकार जजमानी व्यवस्था हिंदू समाज को संस्तरणबद्ध संगठन के रूप में एकीकृत करती है। ड्यूमो का मत है कि जातीय असमानता का विचार धर्म से तार्किक आधार प्राप्त करते हैं तथा उस बौद्धिकता को निर्मित करते है जो उच्च जातियों के व्यवहार को उचित ठहराती है।
ड्यूमो इस संदर्भ में वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत का विश्लेषण करते हैं। उनका मत है कि वर्ण व्यवस्था में पाए जाने वाला विभेदीकरण उस प्रस्थिति शक्ति को व्यक्त करता है जिसके कारण हिंदू समाज में राजशाही पुरोहितों के अधीन हो जाती है। यह पक्ष संस्तरण को विशेष बना देता है। यहां प्रस्थिति की श्रेष्ठता शक्ति या सत्ता से निर्धारित नहीं होती है। भारतीय समाज में धार्मिक पक्ष जातीय क्षेत्र में श्रेष्ठता को एक विशिष्ट अर्थ प्रदान करता है और इस कारण संस्तरण का यह स्वरूप भारतीय संदर्भ में एक नया अर्थ ग्रहण कर लेता है। ड्यूमो का मत है कि भारतीय समाज में शक्ति की अवधारणा को धर्म से पृथक करके नहीं देखा जा सकता तथा राजनीति और अर्थतंत्र की विवेचना का आधार नहीं बन सकते। ड्यूमो इस तर्क के आधार पर प्रभुत्व, जातीय तनाव एवं भारतीय अर्थ प्रणाली की विवेचना करते हैं। ड्यूमो का मत है कि भारतीय समाज में समस्त क्षेत्र धर्म के अधीन है। इस प्रकार ड्यूमो धार्मिक निर्णायकवाद के समर्थक बन जाते हैं। जैसे-जैसे धर्म में गत्यात्मकता उत्पन्न होती है भारतीय जाति व्यवस्था भी गत्यात्मकता की प्रक्रिया का अंग बन जाती है। ड्यूमो के विचारों के सन्दर्भ में इस इंडोलॉजिकल उपागम की और देसाई ने आलोचना की है। दीपांकर गुप्ता का भी मानना है कि पवित्रता अपवित्रता के बीच का अंतर्विरोध सार्वभौमिक नहीं है। टी एन मदान ड्यूमो के इस विश्लेषण की आलोचना करते हुए लिखते है कि जाति व्यवस्था का धर्म पवित्रता अपवित्रता का विचार किस स्तर पर sacred और profane की अवधारणाओं से पृथक हो जाती है। आर देसाई का मत है कि किसी भी समाज की सामाजिक स्थितियां वहां की आर्थिक स्थितियों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। ड्यूमो ने अपने सम्पूर्ण विवेचन में कहीं भी इस पर प्रकाश नहीं डाला। कुछ विचारको का मानना है कि ड्यूमो ने जाति व्यवस्था को एक पवित्रता अपवित्रता के विचारों पर आधारित एक तार्किक व्यवस्था बताया है जबकि मार्क्सवादियों के अनुसार ड्यूमो ने जाति व्यवस्था में विद्यमान तनाव, संघर्ष तथा जजमानी व्यवस्था में विद्यमान अंतर्जातीय शोषण को अनदेखा किया है। ड्यूमो ने असमानता पर आधारित भारतीय समाज को एक आदर्श समाज के रूप में प्रस्तुत किया है जहां जजमानी व्यवस्था के द्वारा भिन्न-भिन्न जातियों के परिवार आपस में अंतःसम्बन्धित होते हैं तथा एक दूसरे को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। आलोचना का मत है की ड्यूमो असमानता मूलक भारतीय समाज में निम्न जातियों पर होने वाले अत्याचार की घटनाओं को देख नहीं पा रहे हैं। आलोचना का मत है कि ड्यूमो ने जाति व्यवस्था का जो विश्लेषण किया है उसमें विद्याशास्त्रीय स्रोतों का सहारा लेते हुए ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है। अतः जाति व्यवस्था की उनकी यह व्याख्या एक सीमित पक्षपातपूर्ण प्रतीत होती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
  1. ड्यूमो, लुइस : होमो हाईआरकीकस, यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस,1981
  2. पांडे एस एस : समाजशास्त्र, टाटा मैक्ग्रा हिल एजुकेशन प्राइवेट लिमिटेड, 2009