भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन:- योगेन्द्र सिंह के विचार
Assistant Professor, Department of Sociology, Govt Arts College, Sikar, Rajasthan, India
Email:narendrakrchahar@gmail.com
सार— अन्य समाजों की तरह भारतीय समाज भी निरंतर परिवतनों के दौर से गुजरता रहा है। इसके परिर्वतन की प्रक्रिया समाजशास्त्रियों के लिए चिंतन का विषय रहा है। एम एन श्रीनिवासन ने परिर्वतन की प्रक्रिया को आंतरिक कारकों से जोड़ कर देखा। उन्होंने लिखा है कि भारतीय समाज कभी भी गतिहीन नहीं रहा। जब भारतीय समाज का बाहरी समाजों से सम्पर्क नहीं था तब भी धीमी गति से समाज बदलाव से गुजर रहा था। उनके मतानुसार यह ऐसा परिवर्तन था जिसमें निम्न जातियां उच्च जातियों की संस्कृति का अनुसरण कर समाज में अपना स्थान ऊंचा करने का प्रयास कर रही थी। इस प्रक्रिया को उन्होंने संस्कृतिकरण के रूप में परिभाषित किया है।प्रकार्यवादी श्रीनिवास का मानना है कि भारतीय समाज प्राचीन काल से ही आंतरिक कारकों की वजह से गति धीमी से परिवर्तित होता रहा है। उन्होंने नवीन परिवर्तनों को पश्चिम के प्रभाव के रूप विश्लेषित किया है। पश्चिम के इस प्रभाव को पश्चिमीकरण के परिभाषित किया है। ए आर देसाई ने परिर्वतन की प्रक्रिया को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से विश्लेषित किया। उन्होंने आर्थिक कारकों को आधार बनाकर वाद, प्रतिवाद तथा संवाद के माध्यम में समझाया है। उन्होंने सम्पूर्ण स्वतन्त्रता आन्दोलन को आर्थिक कारकों की पृष्ठभूमि में परिभाषित किया है। योगेन्द्र सिंह किसी एक उपागम की बजाय विभिन्न उपगमों के एकीकृत मॉडल को आधार बनाकर भारतीय समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया को समझाते हैं। वे भारतीय समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया को संस्कृति व संरचना में बदलाव के माध्यम से विश्लेषित करते है। उनके अनुसार भारतीय समाज में परिवर्तन परंपराओं के आधुनिकीकरण का परिणाम है। उन्होंने परम्परों को लघु व वृहत् परम्परा के रूप में विभाजित करते हुए परिवर्तन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को स्पष्ट किया है।
कीवर्ड - संस्कृतिकरण, विसंस्कृतिकरण, पुनःसंस्कृतिकरण इस्लामीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकरण, भूमंडलीकरण, लघु व वृहत् परंपरा।
प्रस्तावना
योगेन्द्र सिंह का भारतीय समाजशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। उनका जन्म 2 नवंबर, 1932 में उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने उच्च शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय से प्राप्त की। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम‘ की स्थापना में इनकी अग्रणी भूमिका थी। वहां वे प्रोफेसर के रूप में कार्यरत रहे। इससे पूर्व वे जोधपुर विश्वविद्यालय में भी प्रोफेसर के रूप में कार्य कर चूके थे। प्रोफेसर योगेंद्र सिंह ‘इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी‘ के अध्यक्ष भी रहे। उन्हें 2007 में उक्त सोसायटी का लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड भी प्रदान किया। सामाजिक विज्ञान में प्रोफ़ेसर सिंह के योगदान को देखते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने समाज वैज्ञानिक पुरस्कार से सम्मानित किया। डॉ सिंह ने 1967 में फुलब्राइट फेलोशिप पर अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में भी अध्ययन किया।
डॉ सिंह ने भारतीय समाज के विभिन्न पक्षों का व्यापक अध्ययन किया। वे किसी एक उपागम को भारतीय समाज की व्याख्या में सक्षम नहीं मानते हैं। इसीलिए वे किसी एक उपागम पर जोर न देकर मार्क्सवाद, संरचनावाद व प्रकार्यवाद का एक एकीकृत उपागम विकसित करते हैं।
वे लिखते हैं कि मार्क्सवादी विचारधारा काफी क्रांतिकारी विचारधारा है परंतु फिर भी इस विचारधारा का समर्थन करने वाले ऐतिहासिक साक्ष्य पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं है। मार्क्सवादी विचारक इस विचार को सैद्धांतिक रूप से स्थापित करने में तो लगे रहे परंतु इसके व्यावहारिक व ऐतिहासिक प्रमाण प्रकाश में न ला सके। अतः इसमें वैज्ञानिकता का अभाव है। योगेंद्र सिंह प्रकार्यवाद व मार्क्सवाद दोनों के उपयोगी पक्षों को एकीकृत करते हुए भारतीय समाज का विश्लेषण करते हैं। इस संदर्भ में भारतीय समाजशास्त्र में प्रचलित विभिन्न सैद्धांतिक उपागमों व अवधारणाओं का प्रयोग करते हैं। वे एम एन श्रीनिवास की संस्कृतिकरण व पश्चिमीकरण, मैकिम मेरियट की लघु व वृहत् परंपरा, एस सी दुबे की बहु आयामी परंपरा का सिद्धांत, डी पी मुखर्जी व ए आर देसाई के संरचनात्मकता के सिद्धांत, दुबे के संवेगात्मक ऐतिहासिकता के सिद्धांतों को भारतीय सामाजिक यथार्थ को विवेचित करने में प्रयुक्त करते हैं।
डॉ योगेंद्र सिंह विभिन्न सैद्धांतिक पक्षों के विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं कि सामाजिक परिवर्तन नए केवल बाहरी कारकों की वजह से होता है वरन् आंतरिक कारकों की वजह से भी होता है। उन्होंने परिवर्तनों को समझने के लिए भारतीय समाज को संस्कृति व संरचना के आधार पर विश्लेषित किया। उनके मतानुसार सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक व संरचनात्मक बदलावों की वजह से होते हैं। संस्कृति के अंतर्गत उन्होंने खास तौर से परंपराओं को शामिल किया है। उनके मतानुसार लघु परंपरा व वृहत परंपरा का स्वरूप बदलने से सांस्कृतिक परिवर्तन अस्तित्व में आता है। योगेंद्र सिंह ने उद्विकासीय ऐतिहासिक दृष्टिकोण के आधार पर भारतीय परंपरा में बदलावों को स्पष्ट किया है। योगेंद्र सिंह के अनुसार परंपरा व आधुनिकीकरण विरोधाभासी नहीं है। उनके मतानुसार संस्कृति में कोई भी बदलाव उस संस्कृति को अनुकूलन की ओर ले जाता है। योगेंद्र सिंह भारतीय समाज के चार महत्वपूर्ण पक्षों संस्तरण,समग्रवाद, निरंतरता व पारलौकिकता की चर्चा करते हैं। इनमे सर्वप्रथम उन्होंने ड्युमो के संस्तरण या स्तरीकरण को भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण पक्ष बताया। योगेंद्र सिंह के अनुसार संस्तरण का गुण पवित्रता व अपवित्रता के सिद्धांत पर आधारित है। संस्तरण का गुण जाति,धर्म, कर्म, पुनर्जन्म जैसे सभी सिद्धांतों में अंतर्निहित है। इसकी व्यापक अभिव्यक्ति जाति व्यवस्था में देखने को मिलती। जातियों का आपसी व्यवहार पवित्रता व अपवित्रता से निर्धारित होता। इसी से अस्पृश्यता की प्रघटना उभरती है।
योगेंद्र सिंह के अनुसार समग्रतावाद का सिद्धांत भारतीय समाज का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है। इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र नहीं है वरन वह अपने पूर्वनिर्धारित भूमिकाओं का ही निर्वहन करता है। पुरुषार्थ, जाति, समूह इत्यादि सभी कुछ समग्र रूप में व्यक्ति के जीवन व भूमिकाओं को एक स्वरूप प्रदान करते हैं।
योगेन्द्र सिंह ने लिखा है कि अनेक आंतरिक कारकों ने भारतीय समाज को व्यापक तौर पर बदला। मनुवादी विचारों के प्रचार प्रसार के कारण जाति व्यवस्था कठोर हो गई तथा व्यवसायिक समूह की बजाय एक कर्मकांडीय हो गई। खान—पान व विवाह संबंधी प्रतिबंध उत्पन हुए। विभेदीकरण ने आंतरिक कारक के रूप में भारतीय समाज को परिवर्तित किया। आंतरिक कारकों के रूप में बौद्ध व जैन धर्म ने हिन्दू समाज की परंपराओं को अधिक अनुकूलनशील बनाया। हालांकि संरचनात्मक स्तर पर कोई बड़ा फेरबदल संभव नहीं हुआ। इनके प्रभाव से जाति व्यवस्था की कठोरता में कमी आई। योगेन्द्र सिंह का मानना है कि परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति में स्थिरता बनी रही। संस्कृतिकरण लघु स्तर पर होने वाले सामाजिक परिवर्तनों को अभिव्यक्त करता है। योगेन्द्र सिंह के अनुसार भारतीय समाज में संस्कृतिकरण, विसंस्कृतिकरण, पुनःसंस्कृतिकरण जैसी प्रक्रियाएं एक साथ संचालित होती है।
योगेन्द्र सिंह भारतीय संस्कृति में होने वाले बदलावों को विभिन्न सामाजिक, धार्मिक आंदोलनों के प्रभाव के कारण लघु व वृहत परंपराओं में होने वाले अनुकूलनी परिवर्तनों के रूप में देखते हैं।
योगेन्द्र सिंह ने लिखा है कि इस्लाम के आगमन के कारण भारतीय परंपराओं व इस्लामिक परंपराओं में आपसी द्वंद्व हुआ। जिसके कारण भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं में बदलाव आया। इस्लामिक परंपराएं समानता पर आधारित हैं। इस्लाम में ईश्वर व भक्त के बीच कोई मध्यस्थ स्वीकार्य नहीं है। इस्लाम समग्रतावाद पर जोर देता है। इसकी सूफी परम्परा के उदारवादी चरित्र ने हिंदुओं को ज्यादा प्रभावित किया। जिसके कारण हिंदू परम्पराओं से जुड़ी कर्मकांडीय कठोरता में कमी आई। अकबर द्वारा चलाए गए दीन—ए—इलाही धर्म ने भी हिंदू—मुस्लिम सामंजस्य को बढ़ावा देने तथा एक समतामूलक समाज के निर्माण में योगदान दिया। अनेकों मुस्लिम कवियों, लेखकों तथा रचनाकारों ने मुस्लिम व हिंदू परम्पराओं की पुनर्व्याख्या की। जिससे हिंदू व मुस्लिम परंपराएं अधिक अनुकूल हुई। योगेन्द्र सिंह का मत है कि उपरोक्त आधुनिकीकरण वृहत् परम्पराओं के साथ अधिक हुआ। योगेन्द्र सिंह ने लिखा है कि इस्लाम तथा हिंदुओ की लघु व वृहत् परम्परा में समानता इस रूप में है कि दोनों की वृहत् परम्परा नगरीय बुद्धिजीवियों पर आधारित थी जबकि लघु परम्परा ग्रामीण अशिक्षित लोगों पर आधारित थी। योगेन्द्र सिंह ने लिखा है कि मुस्लिम लघु परम्परा की एक खास बात यह है कि इसका निर्माण उन लोगों ने किया जिन्होंने हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम को ग्रहण किया था। योगेन्द्र सिंह के अनुसार भारत में इस्लामीकरण की प्रक्रिया ज्यादा तीव्र इसलिए हुई क्योंकि कुछ हिंदू अपनी खोई हुई सत्ता वापस प्राप्त करना चाहते थे। देश आजाद होने के बाद राजनीतिक व आर्थिक लाभ के लिए दोनों संस्कृतियों में परस्पर प्रतिस्पर्धा भी अस्तित्व में आई। कालांतर में इस्लामिक परम्पराओं ने आधुनिकीकरण के मार्ग में बाधा उत्पन्न करना शुरू कर दिया। धार्मिक आंदोलनों ने कट्टरतावाद को बढ़ा दिया। योगेन्द्र सिंह के अनुसार इस्लाम तथा हिंदुओ का यह कट्टरतावाद वर्तमान में आधुनिकीकरण व राष्ट्र निर्माण में रुकावट पैदा कर रहा है। योगेन्द्र सिंह का मत है कि सार्वभौमिक शिक्षा के बावजूद मुस्लिमों में गरीबी, अशिक्षा बेरोजगारी, आतंक फैलाने की प्रवृति तीव्र रहती है तथा यह तब तक रहेगी जब तक समान नागरिक संहिता नहीं बन जाती।
ब्रिटिश शासन के कारण भी भारतीय सामाजिक संरचना प्रभावित हुई। पश्चिमी शिक्षा समानता, स्वतंत्रता पर जोर देती है। अंग्रेजी शासन के कारण भारतीय समाज में विज्ञान पर आधारित तर्क तथा विधानों का विकास हुआ। ब्रिटिश शासन के कारण नवीन शिक्षा, संचार की नवीन तकनीक, नौकरशाही, आधुनिक सैन्य शक्ति जैसी संरचनात्मक इकाइयों अस्तित्व में आई। व्यक्ति की भूमिका जन्म की बजाय उसकी योग्यता से निर्धारित होने लगी। भारत में मध्यम वर्ग की उत्पति हुई। योगेंद सिंह पश्चिम के प्रभाव को लघु व वृहत दोनों परम्पराओं पर देखते हैं। पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित बौद्धिक वर्ग ने भारत की वृहत परम्पराओं में बदलाव के माध्यम से सामाजिक संरचना को बदलना चाहा। इस प्रकार के परिर्वतन को योगेन्द्र सिंह ने प्राथमिक आधुनिकीकरण की संज्ञा दी है। प्रारंभिक पश्चिमीकरण के कारण लघु परम्परा के स्तर पर खान—पान, रहन—सहन तथा वेशभूषा में परिर्वतन आया। वृहत परम्पराओं में प्राथमिक पश्चिमीकरण के कारण विज्ञान व तकनीक का विकास हुआ। योगेंद्र सिंह का कहना है कि पश्चिमीकरण के कारण हमारी संरचना में आंशिक परिवर्तन हुआ क्योंकि इस्लाम व हिंदू परंपरा अनुकूलनशीलता की दिशा में गतिशील थी। पश्चिमी शिक्षा के कारण भारत में अनेक समाज सुधार आंदोलन प्रारंभ हुए। इसी क्रम में राजा राम मोहन राय ने पश्चिमी विवेकशीलता व भारतीय मानववाद के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रकार पश्चिम के प्रभाव के कारण हिंदू समाज में पाए जाने वाले कट्टरतावाद का विरोध किया गया। सती प्रथा का विरोध इसी कड़ी का हिस्सा था। योगेन्द्र सिंह का मानना है कि भारतीय समाज में अस्तित्व में आई सार्वभौमिक वैधानिक व्यवस्था पश्चिमीकरण का एक सकारात्मक पक्ष है। यह व्यवस्था समानता पर बल देती है तथा समानतामुलक समाज को जन्म देती है।
योगेन्द्र सिंह का विचार है कि संरचनात्मक विभेदीकरण व भूमिका के आंतरिक विशेषीकरण ने वृहत् सामाजिक संरचना (Macro structural change)में बदलाव किया। उनके अनुसार औद्योगिक व राजनीतिक क्रांति ने भारतीय समाज की आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक व शैक्षिक परम्पराओं में बदलाव किया। योगेंद्र सिंह के अनुसार पश्चिमी शासन के प्रभाव के कारण संरचना के सूक्ष्म व वृहत् दोनों स्तरों में अनेक परिर्वतन आए। अब सत्ता की अवधारणा जाति आधारित न रह कर वर्ग आधारित होने लगी तथा परंपरागत सत्ता के स्थान पर विवेकशील सत्ता की अवधारणा अस्तित्व में आई। सत्ता संरचना में युवाओं की भूमिका में वृद्धि हुई। अब जातियों के बीच सत्ता के लिए प्रतिस्पर्द्धा अस्तित्व में आई। भारत में पश्चिमी शिक्षा व राजनीतिक आंदोलन के परिणामस्वरूप नवीन अभिजात वर्ग का उभार हुआ जो भारतीय समाज को राष्ट्रवाद व मानववाद पर आधारित कर इसे एक नवीन स्वरूप प्रदान करना चाहते थे। आरक्षण की नीति ने निम्न जाति व ग्रामीण परिवेश के लोगों को सत्ता में भागीदारी का अवसर प्रदान किया।
योगेंद्र सिंह ने लिखा है कि औद्योगिकरण ने भारतीय समाज की वृहत् संरचना को परिवर्तित किया। भारत में श्रमिक व पूंजीपति जैसी नवीन संरचनाएं उभरी। योगेन्द्र सिंह ने नगरीकरण, नौकरशाही व औद्योगिक राजनीतिकरन को वृहत संरचनात्मक परिवर्तनों के रूप में परिभाषित किया है। ग्रामीण समुदाय, परिवार व जाति में आए परिवर्तनों को लघु संरचनात्मक परिवर्तनों की संज्ञा दी है। वर्ण अखिल भारतीय प्रघटना होने के कारण इसे मैक्रो संरचना बताया जबकि जाति को क्षेत्रीय प्रघटना के रूप में परिभाषित करते हुए माइक्रो संरचना बताया।
इस प्रकार योगेन्द्र सिंह यह स्पष्ट करते हैं कि भारतीय परंपरा का आधुनिकीकरण उद्विकाशीय उपागम से भारतीय ऐतिहासिक संदर्भों में किया जाना चाहिए। उन्होंने पांच शक्तियों संस्कृतिकरण, इस्लामीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकरण व भूमंडलीकरण को भारतीय परंपराओं के आधुनिकरण के लिए जिम्मेदार माना। इस शक्तियों की वजह से भारतीय सांस्कृतिक परम्परा व सामाजिक संरचना की लघु व वृहत् पक्षों में अनुकूलनकारी परिर्वतन अस्तित्व में आए।
संदर्भ ग्रंथ
- योगेन्द्र सिंह का समाजशास्त्र, अमर कुमार, रावत पब्लिकेशंस, 2005
- भारतीय परंपरा का आधुनिकीकरण, योगेन्द्र सिंह , पेंगुइन बुक लिमिटेड, 1986