मानवाधिकार (Human Rights)
 
Gitanjali Bharti*
Research Scholar, P.G Dept. of Political Science (TMBU), Bhagalpur, Bihar, India
Email : gitanjali_bharti8.@gmail.com
सारांश - मानवाधिकार केवल कोर संकल्पना नहीं है , बल्कि यह मानव जीवन से जुड़ी वह मूलभूत आवश्यकता है जिसकी पूर्ति किये बिना गरिमापूर्ण जीवन का उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता । व्यक्ति के सर्वागीण विकास के लिये जिन अनुकूल परिस्थतियों की जरुरत है, उनकी समग्रता का ही नाम मानवाधिकार है ।
मानव अधिकार मूल रूप से वे अधिकार है, जो प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य होने के कारण मिलते है । राष्ट्रीयता, लिंग, राष्ट्रीय या जातीय मूल, रंग, धर्म, भाषा या किसी अन्य स्थिति की परवाह किये बिना हम सभी के लिये सार्वभौमिक अधिकार है । इनमें सबसे, मौलिक जीवन के अधिकार से लेकर वे अधिकार शामिल है जो जीवन को जीने लायक बनाते हैं , जैसे कि भोजन, शिक्षा, काम, स्वास्थ्य और स्वतंत्रता का अधिकार ।
वास्तव में भारतीय संस्कृति मानवाधिकारों की अवधारणा का बीज अत्यंत प्राचीन काल से अध्यतन विद्यम है । प्राचीन भारत में –
“सर्वे भवन्तु: सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया: ।
सर्व भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्र दुःखभाग् भवेत् ।”
अर्थात् सभी सुखी हो, सभी नीरोग हो, सभी का सामना कल्याण से ही हो, किसी को भी दुःख का अनुभव न करना पड़े ।
का सिद्धांत सर्वे प्रसिद्ध था ।
हमारे संविधान निर्माता मानवाधिकारों की अनिवार्यता और अपरिहार्यता को भली-भांति समझा । उन्होंने मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के अंतगति मानवजीवन से संबंधित सभी पहलुओं के बारे में प्रावधान किए और मानवाधिकार की समकालीन परिकल्पना से उनका सामंजस्य स्थापित किया गया । देश में सभी को समानता का अधिकार समान रूप से दिया गया है ।
शांति और सुरक्षा, विकास मानवीय सहायता और आर्थिक और सामाजिक मामलों के प्रमुख क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र की सभी नीतियों और कार्यक्रमों में मानवाधिकार एक महत्वपूर्ण विषय है । नतीजतना संयुक्त राष्ट्र का हर निकाय और विशेष एजेंसी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मानवाधिकारों के संरक्षण में शामिल है ।
प्रत्येक वर्ष अंतर्राष्ट्रीय समुदाय 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाता है । यह वर्ष 1948 के उस दिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है जब संयुक्त (UN) महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) Universal Declaration of Human Right को अपनाया था । UDHR मानव अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय विद्येयक का एक हिस्सा है ।
मुख्य शब्द : राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता, समानता, मौलिक अधिकार, मानवाधिकार, सर्वागीण विकास ।
प्रस्तावना
विश्व में प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में मानवाधिकार की अवधारणा विद्यमान थी, मानवाधिकार किसी भी सभ्य समाज के विकास का मूल आधार होते हैं । मानव अधिकार का जन्म धरती पर मानव के विकास के साथ ही हुआ ।
मानव अधिकारों से तात्पर्य मानव के लिये आवश्यक अधिकारों से होता है , अर्थात मानव अधिकारों से तात्पर्य मानव के उन न्यूनतम अधिकारों से है जो प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से प्राप्त होने चाहिए । मानव अधिकारों एवं मानव गरिमा की धारणा के मध्य घनिष्ट संबंध है । अर्थात वे अधिकार जो मानव गरिमा को बनाये रखने के लिये आवश्यक है, उन्हें मानव अधिकार कहा जाता है ।
मानव अधिकार ही समाज में ऐसा वातावरण उत्पन्न करते है, जिसमें सभी व्यक्ति समानता के साथ निर्भिकरूप से मानव गरिमा के साथ जीवनयापन कर पाते हैं । प्रो० लास्की ने कहा था– “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ है जिनके बिना समान्यत: कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता है।”1
मानव बुद्विमान व विवेकपूर्ण प्राणी है और इसी कारण उसे कुछ ऐसे मूल तथा अहरणीय अधिकार प्राप्त रहते हैं, जिसे सामान्यतया मानवाधिकार या मानव अधिकार कहा जाता है । ये अधिकार उनके अस्तित्व के कारण उनसे संबंधित रहते हैं । अत: वे उनमें जन्म से ही विहित रहते हैं । इस प्रकार वे उनमे जन्म से ही विहित रहते हैं । इस प्रकार मानव अधिकार सभी व्यक्तियों के लिये होते हैं चाहे उनका मूल्य, वंश, धर्म, लिंग तथा राष्ट्रीयता कुछ भी हो । ये अधिकार सभी व्यक्तियों के लिये आवश्यक है, क्योंकि ये उनकी गरिमा एवं स्वतंत्रता के अनुरूप है । मानव जाति के लिये मानव अधिकार का अत्यंत महत्व होने के कारण मानव अधिकार को कभी-कभी मूल अधिकार आधारभूत अधिकार अन्तनिर्हित अधिकार, प्राकृतिक अधिकार और जन्म अधिकार भी कहा जाता है ।2
मानव अधिकारों को किसी विद्यायनी ने निर्मित नहीं किया । वह बहुत कुछ नैसर्गिक अधिकारों से मिलते है या उनके सामान है । प्रत्येक सभ्य देश या संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था या निकाय उन्हें मान्यता देती है । मानव अधिकारों को संशोधन की प्रक्रिया के अधीन भी नहीं किया जा सकता है । मानव अधिकारों के संरक्षण के विधिक कर्तव्य में उनका सम्मान करने का कर्तव्य सम्मिलित है । संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्य मानव अधिकारों एवं मौलिक अधिकारों का सम्मान करते है तथा उनका अनुपालन करने के लिये वचनबद्ध है ।3 मानव अधिकार के महत्व का आंकलन इस बात से किया जा सकता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के पश्चात् जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई तो मानवाधिकार के संवर्धन और संरक्षण को इसने अपने प्रमुख उद्देश्य में रखा । “मानव अधिकारों” पद का प्रयोग सर्वप्रथम अमेरिकन राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने 15 जनवरी 1941 में कांग्रेस को संबोधित अपने प्रसिद्ध संदेश में किया था । जिसमें उन्होंने चार मर्मभूत स्वतंत्रताओं पर आधारित विश्व की घोषणा की थी । उन्होंने इनको इस प्रकार सूचीबद्ध किया था –
  1. वाक् स्वतंत्रता
  2. धर्म की स्वतंत्रता
  3. गरीबी से मुक्ति और
  4. भय से स्वतंत्रता
संयुक्त राष्ट्र चार्टर में उल्लेखित मनाव अधिकारों के विषय में चिंता कोई आधुनिक या नवीन बात नहीं है । ऐसे अधिकार वास्तव में नैसर्गिक विधि एवं नैसर्गिक अधिकारों में भूतकाल के महान ऐतिहासिक आन्दोलनों के उत्तराधिकारी है । विश्व के सभी महान धर्मों तथा दर्शन में तथा तत्कालीन विज्ञान के अन्त संबंधों की खोज में मानव गरिमा तथा व्यक्ति एवं समुदाय के मूल्यों के सम्मान की बाते कही गयी है ।
मानव अधिकारों का महत्व
  1. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों ने तृतीय विश्व युद्ध की विभीषिका को रोका है । अर्वाचीन मानवाधिकार प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध की देन है । इसलिए इनके प्रभाव ने भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष को स्थिर किया है ।
  2. मानवाधिकार प्राकृतिक अथवा सार्वभौम अधिकारों के रूप में संरक्षितहित है । इनमें नैतिकता के सिद्धांत सुदृढ़ होते हैं ।
  3. मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुसार सभी राष्ट्रों के सभी मानवों के लिये समान रूप से लागू होते हैं । फलत: इनसे विश्व समुदाय में मैत्री की विचारधारा का प्रसार एवं प्रचार होता है ।
  4. संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के उपरान्त मानवाधिकार व्यक्ति की स्वतंत्रताओं को राज्य के विरुद्ध लागू करने के उपादान है ।
  5. मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रसांविदाओं का महत्व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग विधि शास्त्र के उद्देश्य से आचार की नैतिक संहिता है । ये संहिताएँ आदर्शात्मक एवं व्यवहारिक है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ तथा मानव अधिकार
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मानव अधिकार संबंधी पृथक घोषणा तो नहीं शामिल है लेकिन चार्टर में अनेक स्थानों पर मानव का स्पष्ट उल्लेख किया गया है । मानव अधिकारों को राज्यों के बीच संगठित सहयोग स्थापित करने तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर उद्देश्यों को क्रियान्वित करने के लिये आवश्यक समझा गया । संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में मानव अधिकार के संबंध में निम्नलिखित संदर्भ मिलता है :–
  1. चार्टर की प्रस्तावना में, “मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व के गौरव तथा महत्व में तथा पुरुष एवं स्त्रियों के समान अधिकारों में विश्वास प्रकट किया गया है ।”
  2. अनुच्छेद 1 के अंतर्गत चार्टर के उद्देश्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है – मानव अधिकारों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना तथा जाति, लिंग, भाषा या धर्म के बिना किसी भेदभाव मूलभूत अधिकारों का बढ़ावा देना तथा प्रोत्साहित करना ।”
  3. अनुच्छेद 13 में महासभा के द्वारा जाति, लिंग, भाषा व धर्म के भेदभाव के बिना सभी को मानव अधिकार तथा मौलिक स्वतंत्रताओं की प्राप्ति में सहायता देने व्यवस्था है ।
  4. अनुच्छेद 55 में यह प्रावधान है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जाति, लिंग, भाषा अथवा धर्म के भेदभाव के बिना सभी के लिये मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं को बढ़ावा देगा ।
  5. अनुच्छेद 56 में उपबन्ध है कि सभी सदस्य राज्य मानव अधिकारों तथा मानव स्वतंत्रताओं की प्राप्ति के लिये संयुक्त राष्ट्र को अपना सहयोग प्रदान करेगा ।
  6. अनुच्छेद 62 के अंतर्गत आर्थिक और सामाजिक परिषद् के द्वारा सभी के लिये मानव अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान की भावना बढ़ाने तथा उनके पालन के संबंध में सिफारिश करने की व्यवस्था है ।
  7. अनुच्छेद 68 आर्थिक और सामाजिक परिषद् को आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में मानव अधिकारों की अभिवृद्धि के लिये आयोग तथा ऐसे अन्य आयोग को स्थापित करने का निर्देश देता है, जिसको वह अपने कार्यों का पालन करने के लिये आवश्यक समझता हो ।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा
संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में मानव अधिकारों के आदर्श को स्वीकार करने के पश्चात् संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार आयोग को मानव अधिकारों के मूलभूत सिद्धांतों का मसविदा तैयार करने का कार्य सौंपा गया । लगभग तीन वर्षो के प्रयत्नों के बाद मानव अधिकार आयोग ने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का मसविदा तैयार किया, इस मसविदा को महासभा ने कुछ संशोधनों के साथ 10 दिवस 1948 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया । मानव अधिकार घोषणा पत्र में प्रस्तावना सहित 30 अनुच्छेद हैं । इस घोषणापत्र में न केवल नागरिकों तथा राजनितिक अधिकारों का बल्कि सामाजिक-आर्थिक अधिकारों का भी पहली बार प्रतिवादन किया गया । अर्थात काम करने के और समान काम के लिये समान प्राथमिक पाने के अधिकार का ट्रेड यूनियनों में संगठित होने के अधिकार का विश्राम तथा सामाजिक भरण-पोषण के अधिकार का शिक्षा के साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भोग लेने के अधिकार, जीवन के अधिकार का, विचार, धर्मं, शांतिपूर्वक सभाएँ करने तथा संगठन बनाने की स्वतंत्रता आदि का ।
इनमें नागरिक और राजनितिक अधिकारों के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक अधिकारों का समावेश किया गया है, ये निम्नवत है :–
सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 2 – 21 (क) में निम्न व्यवस्था की गई है –
अनुच्छेद 1 एवं 2 में सभी मनुष्यों को जन्म से विवेक और बुद्धि के अनुसार जीने एवं बिना जाति, लिंग, भाषा और धर्म के भेदभाव से जीवनयापन करने का अधिकार प्राप्त है ।
  1. प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद -3)
  2. दास्ता या गुलामी के विरुद्ध स्वतंत्रता (अनुच्छेद -4)
  3. अमानवीय व्यवहार और मंत्रणा से विमुली (अनुच्छेद-5)
  4. विधि के समक्ष समता का अधिकार (अनुच्छेद-6)
  5. विधियों के सम्मुख संरक्षण का अधिकार (अनुच्छेद-7)
  6. राष्ट्रीय अभिकरण एवं प्रभावी उपचार (अनुच्छेद-8)
  7. अवैध गिरफ्तारी एवं निरोध (अनुच्छेद-9)
  8. स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष सुनवाई (अनुच्छेद-10)
  9. निर्दोषता का अधिकार (अनुच्छेद 11(1))
  10. कार्योत्तर विधि से विमुल (अनुच्छेद 11(2))
  11. एकांकता एवं गृह पर पत्र आदि भेजने के अधिकार (अनुच्छेद-12)
  12. संरक्षण एवं निवास की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 13(1))
  13. अपने देश से दूसरे देश जाने का अधिकार (अनुच्छेद 13(2))
  14. उत्पीड़न के कारण अन्य देश में शरण मांगने का अधिकार (अनुच्छेद 14(1))
  15. राष्ट्रीयता का अधिकार (अनुच्छेद-15)
  16. वैवाहिक जीवन का अधिकार (अनुच्छेद-16)
  17. सम्पत्ति के स्वामित्व का अधिकार (अनुच्छेद-17(1))
  18. विचार अन्त:करण और धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-18)
  19. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद -19)
  20. शांति पूर्ण सम्मलेन का अधिकार (अनुच्छेद 20(1))
  21. अपने यहाँ की सरकार की सहभागिता (अनुच्छेद-21)
  22. () आर्थिक और सामाजिक अधिकार :
  23. सामाजिक सुरक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद-22)
  24. कार्य करने का रोजगार स्वतंत्र रूप में चुनने का अधिकार (अनुच्छेद-23)
  25. विश्राम एवं अवकाश का अधिकार (अनुच्छेद-24)
  26. जीवन स्तर का अधिकार (अनुच्छेद-25)
  27. शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद-26)
  28. संस्कृतित्व जीवन में सहभागिता का अधिकार (अनुच्छेद-27)
  29. सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था संबंधी अधिकार (अनुच्छेद-28)
  30. व्यक्ति के पूर्ण विकास में स्वतंत्रता व अधिकारों का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षण (अनुच्छेद-29)
  31. किसी भी राज्य, समूह अथवा व्यक्ति के प्रभाव से स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना (अनुच्छेद-30)
इस घोषणा पत्र को मानवतावाद का दमकल कहा गया है । चार्ल्स मलिक के अनुसार यह घोषणा पत्र केवल प्रस्ताव मात्र न होकर संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर का अंग है । रूजवेल्ट ने इस घोषणा पत्र को समस्त मानव समाज के मेग्नकर्त्ता का नाम दिया है ।
मानवाधिकार परिषद्
मानवाधिकार परिषद् एक अंतर-सरकारी निकाय है जिसका गठन 15 मार्च 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव द्वारा किया गया । यह पूरी दुनिया में मानवाधिकारों के संवर्द्धन और संरक्षण को बढ़ावा देने के लिये उत्तरदायी है । इसी के साथ यह संस्था मानव अधिकारों के उल्लंघनों की जाँच करती है । यह परिषद् संयुक्त राष्ट्र महासभा में चुने गए 47 सदस्य देशों से मिलकर बनती है ।
मानवाधिकारों पर विश्व सम्मेलन
मानवाधिकार पर विश्व सम्मेलन वियना, आस्ट्रिया में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित किया गया था पर 14 – 25 जून 1933 के लिये यह पहली बार मानव अधिकार सम्मेलन के अंत के बाद आयोजित किया गया था । शीत युद्ध सम्मेलन का मुख्य परिणाम वियना घोषणा और कार्यवाई का कार्यक्रम था ।
मानवाधिकारों पर विश्व सम्मेलन में 171 देशों और 841 गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिसमें कुल मिलाकर लगभग 7000 प्रतिभागी थे । इसने इसे मानव अधिकारों पर अब तक की सबसे बड़ी सभा बना दिया । यह मानवाधिकार विशेषज्ञ जाँच पेस द्वारा आयोजित किया गया था ।
निष्कर्ष
मानवाधिकार वे नैतिक सिद्धांत है जो मानव व्यवहार से संबंधित कुछ निश्चित मानक स्थापित करता है । ये मानवाधिकारी स्थानीय तथा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों द्वारा नियमित रूप से रक्षित होते हैं । ये अधिकार ऐसे आधारभूत अधिकार हैं, जिन्हें प्राय: न छीने जाने योग्य माना जाता है और यह भी माना जाता है कि ये अधिकार किसी व्यक्ति के जन्मजात अधिकार है । व्यक्ति के आयु प्रजातीय मूल, निवास स्थान, भाषा, धर्म, आदि का इन अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं होता है । यह अधिकार सदा और सर्वत्र देय है तथा सबके लिये समान है ।
संदर्भ सूची
  1. प्रो. आर. पी. जोशी, मानव अधिकार एवं कर्तव्य, अभिनव प्रकाशन, अजमेर, प्रथम संस्करण : 2006 पृ.सं. 2
  2. डॉ. एच. अग्रवाल, अंतर्राष्ट्रीय विधि एवं मानव अधिकार, सेन्ट्रल लॉ पब्लिकेशन, इलाहाबाद, तेहरवाँ संस्करण : 2012 पृ. सं. 668
  3. पुस्तक राजनीतिक विज्ञान, लेखक डॉ. बी. एल. फडिया, प्रकाशन, साहित्य भवन, पृ. सं. 336 – 340
  4. http///www.drishtiias.in
  5. लाटरपैट इंटरनेशनल लॉ एंड ह्यूमन राइट्स पृ. सं. 152