शीत-युद्ध के बाद भारत- अमेरिका संबंध और  चीन


दीपक कुमार1*, डॉ. संजय कुमार2

1 शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना, बिहार, भारत

Email: c2deepak52@gmail.com

2 एम फ़िल एवं पीएचडी (जे एन यू), एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग 

ए. एन कॉलेज, पटना, बिहार, भारत

सारांश - शीत-युद्ध के बाद, भारत-अमेरिका संबंधों में महत्वपूर्ण परिवर्तन और विकास देखा गया है। शीत-युद्ध के दौरान, भारत की गुट-निरपेक्ष नीति और अमेरिका का पाकिस्तान के साथ गठबंधन, दोनों देशों के संबंधों में प्रमुख बाधाएं थीं। शीत-युद्ध के अंत के साथ, वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव आया और भारत और अमेरिका के बीच नए अवसरों और साझेदारियों का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस सारांश में शीत-युद्ध के बाद के भारत-अमेरिका संबंधों के विकास और चीन पर उनके प्रभावों को विस्तार से समझाया गया है। शीत-युद्ध के समय, भारत और अमेरिका के संबंध जटिल थे। भारत ने गुट-निरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया, जबकि अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ गठबंधन किया था। यह गठबंधन और भारत की गुट-निरपेक्ष नीति दोनों देशों के बीच करीबी संबंधों में बाधा बने रहे।

1991 में, भारत के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव द्वारा आर्थिक उदारीकरण की पहल ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाजारों के लिए खोल दिया। इससे भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक और व्यापारिक संबंधों में वृद्धि हुई। 1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के संबंधों में अस्थायी तनाव आया। अमेरिका ने भारत पर प्रतिबंध लगाए, लेकिन इसके बाद हुए संवाद और बातचीत ने 2005 में एक ऐतिहासिक समझौते की नींव रखी। इस समझौते को अमेरिका-भारत परमाणु समझौते के रूप में जाना जाता है, जिसने नागरिक परमाणु सहयोग को प्रोत्साहन दिया। इसके बाद, द्विपक्षीय रक्षा सहयोग और रणनीतिक साझेदारी में तेजी आई, जिसमें प्रमुख रक्षा समझौतों और सैन्य अभ्यासों का समावेश रहा।

21वीं सदी में, भारत-अमेरिका संबंधों ने व्यापक आर्थिक, तकनीकी, और शैक्षिक आदान-प्रदान के माध्यम से और भी मजबूती प्राप्त की है। इसमें द्विपक्षीय रक्षा सहयोग का महत्वपूर्ण योगदान रहा। प्रमुख रक्षा समझौते, जैसे लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) और कम्युनिकेशंस कम्पैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (COMCASA), दोनों देशों के बीच सैन्य और रणनीतिक सहयोग को बढ़ावा देते हैं। आर्थिक संबंधों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई, जिसमें द्विपक्षीय व्यापार में महत्वपूर्ण मील के पत्थर हासिल किए गए। इसके साथ ही, दोनों देशों के बीच तकनीकी और शैक्षिक आदान-प्रदान भी बढ़े। 

चीन का उदय एक प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में भारत-अमेरिका संबंधों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दोनों देश चीन की बढ़ती शक्ति और प्रभाव को एक रणनीतिक चुनौती के रूप में देखते हैं। इस संदर्भ में, क्वाड (चतुर्भुज सुरक्षा संवाद), जिसमें अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं, एक महत्वपूर्ण पहल है। क्वाड का उद्देश्य एक मुक्त और खुले इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को सुनिश्चित करना है, जो चीन की आक्रामक नीतियों का मुकाबला करने के लिए विकसित किया गया है।

भारत-अमेरिका की घनिष्ठ साझेदारी चीन के लिए एक रणनीतिक चुनौती के रूप में उभरी है। चीन ने अपनी प्रतिक्रिया में कई कूटनीतिक और रणनीतिक कदम उठाए हैं। इसमें बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) जैसी पहलें शामिल हैं, जिनका उद्देश्य क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर चीन के प्रभाव को बढ़ाना है। भारत-अमेरिका संबंधों का विकास और चीन पर उनके प्रभाव ने एशिया में एक नई भू-राजनीतिक संतुलन की आवश्यकता को जन्म दिया है।

भारत-अमेरिका संबंधों का भविष्य कई क्षेत्रों में सहयोग और संघर्ष दोनों की संभावनाओं के साथ आगे बढ़ेगा। इसमें तकनीकी सहयोग, आर्थिक साझेदारियाँ, और वैश्विक चुनौतियों का सामना करना शामिल है। साथ ही, चीन के साथ बदलते समीकरण और एशियाई सुरक्षा संरचना पर भी इन संबंधों का गहरा प्रभाव पड़ेगा।

शीत-युद्ध के बाद भारत-अमेरिका संबंधों का विकास क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया है। विशेष रूप से, चीन के संदर्भ में यह संबंध एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत और अमेरिका की बढ़ती साझेदारी और चीन की प्रतिक्रिया ने एशिया में एक नई भू-राजनीतिक संतुलन की आवश्यकता को जन्म दिया है। भविष्य में, यह संबंध और भी गहरे और व्यापक हो सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इस प्रकार, शीत-युद्ध के बाद भारत-अमेरिका संबंधों का विकास और उनके चीन पर प्रभाव वैश्विक और क्षेत्रीय भू-राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए हैं।

मुख्य शब्द:  शीत-युद्ध, अमेरिका-भारत परमाणु समझौता, चीन का उदय, भू-राजनीतिक संतुलन, गुट-निरपेक्ष नीति

  1. प्रस्तावना

शीत-युद्ध के दौरान भारत और अमेरिका के संबंध जटिल और अस्थिर रहे। शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद, वैश्विक शक्ति संतुलन में महत्वपूर्ण बदलाव आए, जिसने भारत और अमेरिका के संबंधों को नया आयाम दिया। इस बदलती भू-राजनीतिक परिदृश्य में, चीन की बढ़ती शक्ति और प्रभाव ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस प्रस्तावना में शीत-युद्ध के दौरान भारत-अमेरिका संबंधों का अवलोकन और शीत-युद्ध के बाद की भू-राजनीतिक गतिशीलता में परिवर्तन पर विचार किया गया है।

शीत-युद्ध के अंत के बाद से भारत और अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। यह अध्ययन इस संबंध के विकास की खोज करती है और एशियाई भू-राजनीतिक परिदृश्य में एक प्रमुख खिलाड़ी चीन के लिए निहितार्थों की जांच करती है। शीत-युद्ध का अंत वैश्विक शक्ति गतिशीलता में महत्वपूर्ण परिवर्तन का प्रतीक था, जिससे नई गठबंधन और रणनीतिक साझेदारियाँ बनीं। भारत और अमेरिका के लिए, इस अवधि ने सामान्य रणनीतिक हितों और आर्थिक संबंधों द्वारा संचालित पारस्परिक संदेह से एक मजबूत साझेदारी में रूपांतरण देखा है।

1.1 शीत-युद्ध के दौरान भारत-अमेरिका संबंधों का अवलोकन

1.1.1 गुट-निरपेक्षता और भारत की नीति

शीत-युद्ध के दौरान, भारत ने गुट-निरपेक्ष आंदोलन (NAM) का नेतृत्व किया, जो न तो अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी गुट में था और न ही सोवियत संघ के नेतृत्व वाले पूर्वी गुट में। यह नीति भारत की स्वतंत्र और संतुलित विदेश नीति का प्रतीक थी। इस नीति का उद्देश्य था कि भारत दोनों महाशक्तियों के बीच संतुलन बनाए रखे और किसी एक गुट का समर्थन न करे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस नीति का प्रमुख समर्थन किया और इसे भारत की स्वतंत्रता और संप्रभुता के लिए महत्वपूर्ण माना  (टलबॉट,  2004)।

1.1.2 अमेरिका की नीति और पाकिस्तान के साथ गठबंधन

दूसरी ओर, अमेरिका ने शीत-युद्ध के दौरान पाकिस्तान के साथ गठबंधन किया। अमेरिका ने दक्षिण एशिया में अपने रणनीतिक हितों को सुरक्षित करने के लिए पाकिस्तान को एक महत्वपूर्ण सहयोगी माना। पाकिस्तान ने अमेरिका से सैन्य और आर्थिक सहायता प्राप्त की, जबकि भारत ने सोवियत संघ के साथ अपने संबंधों को मजबूत किया। यह गठबंधन भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों में एक प्रमुख बाधा था (चौधरी और वानडुज़र-स्नो, 2008)।

1.1.3 संबंधों में उतार-चढ़ाव

शीत-युद्ध के दौरान, भारत और अमेरिका के बीच संबंध उतार-चढ़ाव भरे रहे। उदाहरण के लिए, 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया, जिससे भारत और अमेरिका के संबंधों में तनाव पैदा हुआ। इसके विपरीत, 1962 के चीन-भारत युद्ध के दौरान, अमेरिका ने भारत को सैन्य सहायता प्रदान की, जिससे संबंधों में कुछ सुधार हुआ (जैन, 2016)।

1.2 शीत-युद्ध के बाद भू-राजनीतिक गतिशीलता में परिवर्तन

1.2.1 वैश्विक शक्ति संतुलन में परिवर्तन

शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद, वैश्विक शक्ति संतुलन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सोवियत संघ के विघटन ने एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था की स्थापना की, जिसमें अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा। इस परिवर्तन ने भारत और अमेरिका के बीच नए अवसरों और साझेदारियों का मार्ग प्रशस्त किया। भारत ने अपनी आर्थिक नीतियों में सुधार करते हुए 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से विकास करने लगी (शाफ़र, 2009)।

1.2.2 भारत-अमेरिका संबंधों का विकास

1991 में भारत के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव द्वारा शुरू किए गए आर्थिक उदारीकरण ने भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को नया आयाम दिया। इसके बाद, दोनों देशों के बीच संबंधों में लगातार सुधार हुआ। 1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद संबंधों में अस्थायी तनाव आया, लेकिन बाद में अमेरिका-भारत परमाणु समझौते (2005) ने एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें नागरिक परमाणु सहयोग को प्रोत्साहन मिला (टलबॉट, 2004), (जैन , 2016)।

1.2.3 चीन की भूमिका

शीत-युद्ध के बाद के दौर में, चीन का उदय एक प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में हुआ। चीन की बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति ने क्षेत्रीय और वैश्विक राजनीति में नए समीकरण बनाए। भारत और अमेरिका दोनों ने चीन की इस बढ़ती शक्ति को एक रणनीतिक चुनौती के रूप में देखा। इस परिप्रेक्ष्य में, भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझेदारी और मजबूत हुई। दोनों देशों ने क्वाड (चतुर्भुज सुरक्षा संवाद) और इंडो-पैसिफिक रणनीति जैसी पहलों के माध्यम से चीन की आक्रामक नीतियों का मुकाबला करने के लिए कदम उठाए (पॉल, 2018)।

1.2.4 भारत-अमेरिका संबंधों का रणनीतिक महत्व

21वीं सदी में, भारत और अमेरिका के बीच संबंध व्यापक और मजबूत हुए। रक्षा सहयोग, आर्थिक साझेदारी, और तकनीकी आदान-प्रदान के माध्यम से दोनों देशों ने अपने संबंधों को और भी मजबूत किया। प्रमुख रक्षा समझौतों और सैन्य अभ्यासों ने द्विपक्षीय संबंधों को और भी मजबूत किया। इसके साथ ही, दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई (शाफ़र, 2009) ।

1.3 भविष्य की चुनौतियां और संभावनाएं

भारत-अमेरिका संबंधों का भविष्य कई क्षेत्रों में सहयोग और संघर्ष दोनों की संभावनाओं के साथ आगे बढ़ेगा। चीन की बढ़ती शक्ति और प्रभाव को संतुलित करने के लिए दोनों देशों को मिलकर काम करना होगा। तकनीकी सहयोग, आर्थिक साझेदारियाँ, और वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में दोनों देशों का योगदान महत्वपूर्ण रहेगा (मिटर , 2020)।

1.4 निष्कर्ष

शीत-युद्ध के बाद भारत-अमेरिका संबंधों का विकास और उनके चीन पर प्रभाव वैश्विक और क्षेत्रीय भू-राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए हैं। भारत और अमेरिका की बढ़ती साझेदारी और चीन की प्रतिक्रिया ने एशिया में एक नई भू-राजनीतिक संतुलन की आवश्यकता को जन्म दिया है। भविष्य में, यह संबंध और भी गहरे और व्यापक हो सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा।

  1. भारत-अमेरिका संबंधों का ऐतिहासिक संदर्भ

2.1 शीत-युद्ध से पहले की बातचीत

भारत और अमेरिका के बीच संबंधों का आरंभ औपनिवेशिक युग से होता है। 18वीं और 19वीं सदी में व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान ने दोनों देशों के बीच प्रारंभिक संबंध स्थापित किए। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने एक-दूसरे से प्रेरणा ली थी। महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसे नेताओं के विचारों ने दोनों देशों के नागरिक अधिकार आंदोलनों को प्रेरित किया (राजन, 2013).

2.2 शीत-युद्ध के दौरान भारत-अमेरिका संबंध

1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत ने अपनी विदेशी नीति में गुट-निरपेक्षता को अपनाया। शीत-युद्ध के दौरान, भारत और अमेरिका के संबंध कभी-कभी तनावपूर्ण रहे। अमेरिका ने पाकिस्तान को सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की, जो भारत के लिए चिंता का विषय बना रहा (कोहेन, 2001). भारत ने सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखे, जिससे अमेरिका के साथ उसके संबंध प्रभावित हुए (मत्तू , 1999).

2.3 भारत की गुट-निरपेक्ष नीति

भारत की गुट-निरपेक्ष नीति ने उसे शीत-युद्ध के दोनों ध्रुवों से दूर रखा। यह नीति प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित की गई थी और इसका उद्देश्य भारत को किसी भी सैन्य गुट में शामिल न होने देना था (गुहा, 2007). इस नीति के तहत, भारत ने सोवियत संघ और अमेरिका दोनों से समान दूरी बनाए रखी और अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी (बाजपेई, 2003).

2.4 अमेरिका-पाकिस्तान गठबंधन और इसका भारत-अमेरिका संबंधों पर प्रभाव

अमेरिका और पाकिस्तान के बीच सैन्य गठबंधन ने भारत-अमेरिका संबंधों को जटिल बना दिया। 1954 में सेंटो और सीटो जैसे सैन्य संधियों के माध्यम से पाकिस्तान अमेरिका का महत्वपूर्ण सहयोगी बन गया (कपूर, 2005). इस सैन्य सहयोग ने भारत में सुरक्षा चिंताओं को जन्म दिया और उसे सोवियत संघ के करीब लाया (गांगुली, 2012).

2.5 संक्रमण काल: शीत-युद्ध का अंत और संबंधों में प्रारंभिक बदलाव

1989 में शीत-युद्ध के अंत के बाद, भारत और अमेरिका के संबंधों में धीरे-धीरे सुधार आने लगा। 1991 में भारत ने आर्थिक उदारीकरण और सुधारों की प्रक्रिया शुरू की, जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक और व्यापारिक संबंध मजबूत हुए (Mohan, 2006). 1998 में भारत के परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा, लेकिन 2000 के दशक में संबंधों में सुधार हुआ (टेलिस, 2001).

2.6 निष्कर्ष

भारत और अमेरिका के संबंधों का इतिहास विभिन्न चरणों और घटनाओं से भरा हुआ है। शीत-युद्ध के दौरान के तनावपूर्ण संबंधों के बावजूद, दोनों देशों ने समय के साथ अपने संबंधों को सुधारने का प्रयास किया है। वर्तमान में, भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझेदारी और सहयोग बढ़ रहा है, जो वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है (पंत, 2008).

  1. शीत-युद्ध के बाद भारत-अमेरिका संबंधों का विकास

3.1 1990 के दशक में भारत में आर्थिक उदारीकरण

1990 के दशक में भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया ने भारत-अमेरिका संबंधों में महत्वपूर्ण बदलाव लाया। 1991 में, भारत ने बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधार और उदारीकरण की नीति अपनाई, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा प्रारंभ की गई थी। इस नीति का मुख्य उद्देश्य आर्थिक संकट से निपटना और देश को वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकीकृत करना था (गुहा, 2007).

उदारीकरण के परिणामस्वरूप, विदेशी निवेश में वृद्धि हुई और भारतीय अर्थव्यवस्था ने तेज़ी से विकास करना शुरू किया। अमेरिका ने इन सुधारों का स्वागत किया और दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश के संबंध मजबूत होने लगे। भारतीय आईटी उद्योग ने इस समय में वैश्विक स्तर पर पहचान बनाई और अमेरिका इसका सबसे बड़ा लाभार्थी बना (मोहन, 2006).

3.2 1990 के दशक में राजनयिक और रणनीतिक बदलाव

1990 के दशक में राजनयिक और रणनीतिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण बदलाव हुए। सोवियत संघ के पतन के बाद, भारत ने अपनी विदेश नीति में परिवर्तन किया और अमेरिका के साथ संबंधों को सुधारने की दिशा में कदम बढ़ाए। इस दौरान, अमेरिका ने भी भारत के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने की आवश्यकता को समझा।

1998 में, भारत ने पोखरण-II परमाणु परीक्षण किया, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कीं। अमेरिका ने इस परीक्षण के बाद भारत पर कई आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध लगाए (टेलिस, 2001). हालांकि, भारत ने अपनी परमाणु नीति की रक्षा की और उसे अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक बताया। इस घटनाक्रम ने दोनों देशों के बीच तनाव को बढ़ाया, लेकिन साथ ही उन्होंने बातचीत और सहयोग के नए रास्ते भी खोजे।

3.3 प्रमुख दौरे और समझौते

1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में, भारत और अमेरिका के नेताओं ने कई महत्वपूर्ण दौरों और समझौतों के माध्यम से अपने संबंधों को और मजबूत किया। 2000 में, अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत का दौरा किया, जिसने दोनों देशों के बीच संबंधों में एक नया अध्याय खोला (कोहेन, 2001). इस दौरे के दौरान, दोनों देशों ने कई क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिसमें आर्थिक, तकनीकी और रक्षा सहयोग शामिल थे।

2005 में, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश और भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका-भारत परमाणु समझौता किया, जो दोनों देशों के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ (पंत, 2008). इस समझौते ने भारत को अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यापार में शामिल होने की अनुमति दी और उसकी ऊर्जा सुरक्षा को बढ़ावा दिया।

3.4 1998 के परमाणु परीक्षण और उसके बाद के प्रतिबंध

1998 में भारत द्वारा किए गए पोखरण-II परमाणु परीक्षण ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कीं। अमेरिका ने इस परीक्षण के बाद भारत पर कई आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध लगाए (टेलिस, 2001). इन प्रतिबंधों का उद्देश्य भारत को अपनी परमाणु नीति में बदलाव करने के लिए दबाव डालना था। हालांकि, भारत ने अपनी परमाणु नीति की रक्षा की और उसे अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक बताया।

परमाणु परीक्षण के बाद के वर्षों में, भारत और अमेरिका ने अपने संबंधों को सुधारने की दिशा में कदम बढ़ाए। दोनों देशों ने विभिन्न मुद्दों पर बातचीत शुरू की और द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इस प्रक्रिया में, दोनों देशों ने अपने आर्थिक, तकनीकी और सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा दिया (कोहेन, 2001).

3.5 अमेरिका-भारत परमाणु समझौता (2005)

2005 में, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश और भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका-भारत परमाणु समझौता किया, जो दोनों देशों के बीच संबंधों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ (पंत, 2008). इस समझौते ने भारत को अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यापार में शामिल होने की अनुमति दी और उसकी ऊर्जा सुरक्षा को बढ़ावा दिया।

परमाणु समझौते के तहत, अमेरिका ने भारत को परमाणु ईंधन और तकनीक की आपूर्ति करने की प्रतिबद्धता जताई, जबकि भारत ने अपने असैनिक और सैन्य परमाणु कार्यक्रमों को अलग-अलग रखने का वचन दिया। इस समझौते ने दोनों देशों के बीच रणनीतिक और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा दिया और उन्हें वैश्विक मुद्दों पर मिलकर काम करने के लिए प्रेरित किया (मोहन, 2006).

3.6 निष्कर्ष

शीत-युद्ध के बाद के वर्षों में भारत-अमेरिका संबंधों में महत्वपूर्ण बदलाव और विकास हुआ है। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण और सुधारों ने दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश के संबंधों को मजबूत किया। राजनयिक और रणनीतिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण कदम उठाए गए, जिन्होंने दोनों देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया। परमाणु परीक्षण और उसके बाद के प्रतिबंधों के बावजूद, भारत और अमेरिका ने अपने संबंधों को सुधारने और मजबूत करने के लिए लगातार प्रयास किए हैं। 2005 में अमेरिका-भारत परमाणु समझौते ने दोनों देशों के बीच संबंधों में एक नया अध्याय जोड़ा और उन्हें वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए मिलकर काम करने के लिए प्रेरित किया है (पंत, 2008).

  1. 21वीं सदी में रणनीतिक साझेदारी

4.1 द्विपक्षीय रक्षा सहयोग

21वीं सदी में भारत और अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग ने नए आयाम हासिल किए हैं। दोनों देशों ने रणनीतिक साझेदारी को मजबूती देने के लिए कई कदम उठाए हैं। 2001 में, 9/11 के आतंकी हमलों के बाद, अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत को एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में देखा। इसके बाद, दोनों देशों के बीच रक्षा और सुरक्षा संबंधों में तेजी आई।

2005 में, अमेरिका और भारत ने एक नई रक्षा साझेदारी की घोषणा की, जिसमें रक्षा उपकरणों की खरीद, सैन्य प्रशिक्षण, और तकनीकी सहयोग शामिल थे (टेलिस, 2001). इसके अलावा, दोनों देशों ने एक-दूसरे के रक्षा प्रतिष्ठानों का दौरा करना और संयुक्त सैन्य अभ्यास करना शुरू किया, जिससे उनकी रक्षा क्षमताओं में सुधार हुआ।

4.2 प्रमुख रक्षा समझौते और सैन्य अभ्यास

21वीं सदी में भारत और अमेरिका के बीच कई प्रमुख रक्षा समझौते हुए हैं। 2016 में, दोनों देशों ने लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (LEMOA) पर हस्ताक्षर किए, जो उन्हें एक-दूसरे के सैन्य ठिकानों का उपयोग करने की अनुमति देता है। इस समझौते ने आपूर्ति श्रृंखला को बेहतर बनाने और संयुक्त सैन्य अभ्यास को सुगम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई (मोहन, 2006).

2018 में, दोनों देशों ने COMCASA (Communications Compatibility and Security Agreement) पर हस्ताक्षर किए, जो उन्हें एक-दूसरे के संचार उपकरणों का उपयोग करने और संवेदनशील जानकारी साझा करने की अनुमति देता है (पंत, 2008). इसके अलावा, भारत और अमेरिका ने कई संयुक्त सैन्य अभ्यास किए हैं, जैसे कि 'युद्ध अभ्यास', 'मालाबार', और 'कोप इंडिया', जिनमें नौसेना, वायु सेना और सेना की संयुक्त गतिविधियाँ शामिल हैं।

4.3 आर्थिक और व्यापारिक संबंध

21वीं सदी में भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक और व्यापारिक संबंधों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और वह वैश्विक बाजार में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन चुका है। 2005 में, अमेरिका-भारत परमाणु समझौते के बाद दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंधों में तेजी आई।

4.4 द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि

भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार में तेजी से वृद्धि हुई है। 2000 के दशक के आरंभ में दोनों देशों के बीच व्यापार लगभग 20 बिलियन डॉलर था, जो 2020 में बढ़कर 150 बिलियन डॉलर से अधिक हो गया (कोहेन, 2001). इसमें प्रमुखता से आईटी, फार्मास्यूटिकल्स, कृषि उत्पाद, और सेवा क्षेत्र शामिल हैं।

4.5 निवेश और आर्थिक साझेदारियाँ

भारत और अमेरिका के बीच निवेश और आर्थिक साझेदारियाँ भी बढ़ी हैं। अमेरिकी कंपनियों ने भारत में बड़े पैमाने पर निवेश किया है, विशेष रूप से आईटी, मैन्युफैक्चरिंग, और सर्विस सेक्टर में। वहीं, भारतीय कंपनियों ने भी अमेरिका में निवेश किया है और रोजगार के अवसर पैदा किए हैं।

उदाहरण के लिए, इंफोसिस, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS), और विप्रो जैसी भारतीय कंपनियों ने अमेरिका में अपने परिचालन का विस्तार किया है, जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध मजबूत हुए हैं (मोहन, 2006).

4.6 तकनीकी और शैक्षिक आदान-प्रदान

तकनीकी और शैक्षिक क्षेत्र में भी भारत और अमेरिका के बीच सहयोग बढ़ा है। दोनों देशों के बीच तकनीकी और वैज्ञानिक अनुसंधान में साझेदारी बढ़ी है। नासा और इसरो के बीच सहयोग इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें दोनों देशों ने अंतरिक्ष अन्वेषण और अनुसंधान में मिलकर काम किया है (पंत, 2008).

इसके अलावा, शैक्षिक क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच आदान-प्रदान बढ़ा है। भारतीय छात्रों की एक बड़ी संख्या उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जाती है, जो दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक और शैक्षिक संबंधों को मजबूत करती है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों और भारतीय संस्थानों के बीच अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में सहयोग भी बढ़ा है।

4.7 निष्कर्ष

21वीं सदी में भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझेदारी ने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। रक्षा, आर्थिक, और तकनीकी क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ा है। प्रमुख रक्षा समझौतों और संयुक्त सैन्य अभ्यास ने दोनों देशों की रक्षा क्षमताओं को मजबूत किया है। द्विपक्षीय व्यापार और निवेश में वृद्धि ने आर्थिक संबंधों को और मजबूत किया है। तकनीकी और शैक्षिक आदान-प्रदान ने दोनों देशों के बीच ज्ञान और नवाचार को बढ़ावा दिया है।

  1. चीन के संदर्भ में भारत-अमेरिका संबंध

5.1 वैश्विक शक्ति के रूप में चीन का उदय

21वीं सदी में चीन का उदय एक वैश्विक शक्ति के रूप में हुआ है। आर्थिक और सैन्य क्षमताओं में तेजी से वृद्धि के साथ, चीन ने वैश्विक मंच पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाना शुरू कर दिया है। चीन की आर्थिक वृद्धि ने उसे दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया है। इसके साथ ही, उसने अपनी सैन्य क्षमताओं का भी विस्तार किया है, जिससे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में उसका प्रभाव बढ़ा है (शामबॉ, 2013).

5.2 चीन के साथ भारत के सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता

भारत और चीन के बीच संबंध हमेशा जटिल रहे हैं। 1962 में हुए सीमा युद्ध के बाद से दोनों देशों के बीच सीमा विवाद बना हुआ है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर अक्सर तनाव और संघर्ष होते रहे हैं। 2020 में गलवान घाटी में हुई झड़प ने दोनों देशों के बीच तनाव को फिर से उजागर किया (मोहन, 2020).

भारत और चीन के बीच रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी महत्वपूर्ण है। चीन के 'बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव' (BRI) और दक्षिण एशिया में उसके बढ़ते प्रभाव ने भारत के लिए चिंताएं पैदा की हैं। चीन का पाकिस्तान के साथ घनिष्ठ संबंध और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में उसके परियोजनाएं भारत की सुरक्षा के लिए खतरा माने जाते हैं (पंत, 2020).

5.3 एशिया में चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए अमेरिका की रणनीति

चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए अमेरिका ने कई रणनीतिक कदम उठाए हैं। अमेरिका ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति को मजबूत किया है और क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ सुरक्षा संबंधों को बढ़ाया है। अमेरिका की यह रणनीति 'पिवोट टू एशिया' या 'रीबैलेंस टू एशिया' के रूप में जानी जाती है, जिसे ओबामा प्रशासन ने 2011 में अपनाया था (कैंपबेल और रैटनर, 2018).

इस रणनीति का उद्देश्य एशिया-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता और सुरक्षा को बढ़ावा देना और चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करना है। इसके तहत, अमेरिका ने जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, और भारत जैसे देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत किया है। भारत को इस रणनीति में एक महत्वपूर्ण साझेदार माना गया है।

5.4 क्वाड (चतुर्भुज सुरक्षा संवाद)

चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम 'क्वाड' (चतुर्भुज सुरक्षा संवाद) का गठन है। क्वाड में अमेरिका, भारत, जापान, और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। इस सुरक्षा संवाद का उद्देश्य एक स्वतंत्र, मुक्त, और समृद्ध इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को सुनिश्चित करना है। क्वाड की बैठकें नियमित रूप से आयोजित होती हैं और इसमें समुद्री सुरक्षा, आतंकवाद, और आपदा प्रबंधन जैसे मुद्दों पर चर्चा होती है (स्मिथ, 2020).

2020 में, क्वाड के देशों ने चीन के आक्रामक व्यवहार के खिलाफ मिलकर काम करने का संकल्प लिया। मालाबार नौसेना अभ्यास, जो पहले भारत, अमेरिका, और जापान के बीच होता था, उसमें 2020 से ऑस्ट्रेलिया को भी शामिल किया गया। इस कदम ने क्वाड की रणनीतिक महत्ता को और बढ़ा दिया है (राजगोपालन, 2020).

5.5 इंडो-पैसिफिक रणनीति

चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने के लिए अमेरिका की 'इंडो-पैसिफिक रणनीति' भी महत्वपूर्ण है। इस रणनीति का उद्देश्य इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में स्वतंत्रता, खुलापन, और समृद्धि को बढ़ावा देना है। 2018 में, अमेरिका ने अपने राष्ट्रीय रक्षा रणनीति में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को प्रमुखता दी और इस क्षेत्र में अपनी सैन्य और कूटनीतिक उपस्थिति को बढ़ाने का निर्णय लिया (वुथनो, 2018).

इंडो-पैसिफिक रणनीति के तहत, अमेरिका ने भारत के साथ अपने रणनीतिक और रक्षा संबंधों को और मजबूत किया है। अमेरिका और भारत ने '2+2 संवाद' की शुरुआत की, जिसमें दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों ने नियमित रूप से मुलाकात की और क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर चर्चा की (पंत और जोशी, 2020).

5.6 निष्कर्ष

चीन के संदर्भ में भारत-अमेरिका संबंधों में महत्वपूर्ण बदलाव और विकास हुआ है। वैश्विक शक्ति के रूप में चीन के उदय ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में संतुलन को प्रभावित किया है। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता ने भारत के लिए सुरक्षा चिंताएं बढ़ाई हैं। चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए अमेरिका ने अपनी रणनीति में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं और भारत को एक महत्वपूर्ण साझेदार माना है। क्वाड और इंडो-पैसिफिक रणनीति ने दोनों देशों के बीच सहयोग को और मजबूत किया है और क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

  1. चीन के लिए भू-राजनीतिक प्रभाव

6.1 एशिया में रणनीतिक संतुलन

21वीं सदी में चीन का उदय एशिया में रणनीतिक संतुलन को प्रभावित कर रहा है। उसकी आर्थिक और सैन्य शक्ति में तेजी से वृद्धि ने उसे क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर एक प्रमुख खिलाड़ी बना दिया है। इसके साथ ही, चीन ने अपने पड़ोसी देशों के साथ आक्रामक नीति अपनाई है, जिससे क्षेत्रीय तनाव बढ़ा है (शामबॉ, 2013). भारत, जापान, और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने चीन की इस नीति के खिलाफ रणनीतिक सहयोग बढ़ाने की कोशिश की है।

6.2 भारत-अमेरिका साझेदारी पर चीन की प्रतिक्रिया

भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती रणनीतिक साझेदारी पर चीन ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। चीन को लगता है कि भारत-अमेरिका संबंध उसके क्षेत्रीय और वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के लिए खतरा हैं। चीन ने भारत और अमेरिका के बीच होने वाले रक्षा समझौतों और सैन्य अभ्यासों पर नाराजगी जताई है (मोहन, 2020). चीन ने भारत के पड़ोसी देशों, जैसे पाकिस्तान और नेपाल, के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने की कोशिश की है, जिससे भारत पर दबाव बनाया जा सके।

6.3 क्षेत्रीय सुरक्षा संरचना पर प्रभाव

चीन के बढ़ते प्रभाव ने क्षेत्रीय सुरक्षा संरचना को भी प्रभावित किया है। चीन ने दक्षिण चीन सागर में अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाया है और विवादित क्षेत्रों में कृत्रिम द्वीपों का निर्माण किया है। इसके परिणामस्वरूप, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने क्षेत्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के लिए कदम उठाए हैं। अमेरिका ने 'फ्रीडम ऑफ नेविगेशन ऑपरेशंस' (FONOPs) के माध्यम से दक्षिण चीन सागर में अपनी नौसेना की उपस्थिति को मजबूत किया है (कैंपबेल और रैटनर, 2018).

6.4 बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI)

चीन की 'बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव' (BRI) एक प्रमुख भू-राजनीतिक परियोजना है, जिसका उद्देश्य एशिया, यूरोप, और अफ्रीका के बीच बुनियादी ढांचे और व्यापारिक कनेक्टिविटी को बढ़ाना है। BRI के माध्यम से चीन ने कई देशों में बंदरगाहों, सड़कों, और रेलमार्गों का निर्माण किया है, जिससे उसकी आर्थिक और राजनीतिक पकड़ बढ़ी है। हालांकि, कई देशों ने इस परियोजना पर चिंता जताई है, क्योंकि इससे वे चीनी ऋण के जाल में फंस सकते हैं (रोलैंड, 2020).

भारत ने BRI का विरोध किया है, खासकर 'चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा' (CPEC) के कारण, जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है। भारत का मानना है कि यह उसकी संप्रभुता का उल्लंघन है और इसके खिलाफ उसने वैश्विक मंचों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है (पंत, 2020).

6.5 क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP)

क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) एक महत्वपूर्ण व्यापारिक समझौता है, जिसमें एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 15 देश शामिल हैं। चीन ने इस समझौते में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इसे अपने आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के एक उपकरण के रूप में देखा है। RCEP का उद्देश्य सदस्य देशों के बीच व्यापार और निवेश को बढ़ावा देना और व्यापारिक बाधाओं को कम करना है (पेट्री और प्लमर, 2020).

भारत ने हालांकि, RCEP में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया है, क्योंकि उसे आशंका है कि इससे उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था को नुकसान हो सकता है और चीन से आयात बढ़ सकता है। भारत ने अपनी कृषि और उद्योगों की सुरक्षा के लिए RCEP से बाहर रहने का निर्णय लिया (मुखर्जी, 2020).

6.6 निष्कर्ष

चीन के उदय ने एशिया में भू-राजनीतिक संतुलन को गहराई से प्रभावित किया है। भारत-अमेरिका साझेदारी पर चीन की प्रतिक्रिया और क्षेत्रीय सुरक्षा संरचना पर उसके प्रभाव ने क्षेत्रीय तनाव को बढ़ाया है। चीन की BRI और RCEP जैसी परियोजनाओं ने उसकी आर्थिक और राजनीतिक पकड़ को मजबूत किया है, लेकिन इसके साथ ही क्षेत्रीय देशों में चिंताएं भी बढ़ी हैं। भारत ने इन परियोजनाओं का विरोध किया है और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए कदम उठाए हैं। भविष्य में, एशिया की भू-राजनीतिक स्थिति पर चीन की रणनीतियाँ और भारत-अमेरिका साझेदारी का प्रभाव महत्वपूर्ण होगा।

  1. भविष्य की संभावनाएं और चुनौतियां

7.1 सहयोग और संघर्ष के संभावित क्षेत्र

सहयोग के क्षेत्र: भारत और अमेरिका के बीच भविष्य में कई क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाएं हैं। इनमें रक्षा और सुरक्षा, व्यापार और निवेश, ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, और वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुसंधान शामिल हैं।

7.1.1 रक्षा और सुरक्षा: दोनों देशों ने हाल ही में कई रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं और संयुक्त सैन्य अभ्यास कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति भविष्य में भी जारी रहने की संभावना है, विशेष रूप से चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर (टेलिस, 2001).

7.1.2 व्यापार और निवेश: भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और अमेरिकी कंपनियों की भारत में निवेश करने की इच्छा के चलते द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि जारी रहेगी।

7.1.3 ऊर्जा सुरक्षा: अमेरिका के साथ ऊर्जा सुरक्षा और हरित ऊर्जा में सहयोग भारत के लिए महत्वपूर्ण होगा, खासकर सौर और पवन ऊर्जा क्षेत्रों में (पंत, 2020).

7.1.4 जलवायु परिवर्तन: दोनों देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं, जिसमें कार्बन उत्सर्जन में कमी और हरित प्रौद्योगिकियों का विकास शामिल है।

7.2 संघर्ष के क्षेत्र: हालाँकि, कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ संघर्ष की संभावना बनी रहती है।

7.2.1 व्यापारिक विवाद: व्यापारिक नीतियों में अंतर और संरक्षणवादी रुख के कारण दोनों देशों के बीच व्यापारिक विवाद हो सकते हैं।

7.2.2 प्रवासन और वीजा: एच-1बी वीजा और अन्य प्रवासन नीतियों को लेकर दोनों देशों के बीच मतभेद हो सकते हैं।

7.2.3 मानवाधिकार और लोकतंत्र: मानवाधिकार और लोकतंत्र से जुड़े मुद्दों पर दोनों देशों के बीच कभी-कभी मतभेद हो सकते हैं, विशेषकर कश्मीर और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर (कोहेन, 2001).

7.3 भारत-अमेरिका संबंधों में उभरते हुए रुझान

21वीं सदी में भारत-अमेरिका संबंधों में कई नए रुझान उभर रहे हैं।

7.3.1 इंडो-पैसिफिक रणनीति: अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोनों देश इस क्षेत्र में शांति, स्थिरता और स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं (पंत और जोशी, 2020).

7.3.2 क्वाड का महत्व: क्वाड (अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया) का महत्व बढ़ रहा है, और यह चीन के आक्रामक रवैये के खिलाफ एक सामूहिक प्रतिक्रिया के रूप में उभर रहा है (स्मिथ, 2020).

7.3.3 तकनीकी सहयोग: तकनीकी और वैज्ञानिक अनुसंधान में सहयोग बढ़ रहा है, जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष अनुसंधान शामिल हैं।

7.3.4 स्वास्थ्य सहयोग: कोविड-19 महामारी ने स्वास्थ्य सहयोग के महत्व को रेखांकित किया है, और दोनों देश भविष्य में स्वास्थ्य सुरक्षा और महामारी प्रतिक्रिया में मिलकर काम कर सकते हैं (मुखर्जी, 2020).

7.4 भविष्य की गतिशीलता को आकार देने में चीन की भूमिका

चीन की भूमिका भविष्य में भारत-अमेरिका संबंधों की गतिशीलता को काफी हद तक प्रभावित करेगी।

7.4.1 सुरक्षा चिंताएं: चीन की आक्रामक नीति और सैन्य विस्तार ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा चिंताओं को बढ़ाया है। भारत और अमेरिका दोनों ही चीन की रणनीतियों का मुकाबला करने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं।

7.4.2 आर्थिक प्रतिस्पर्धा: चीन की बढ़ती आर्थिक शक्ति और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा बढ़ाई है। भारत और अमेरिका मिलकर इस चुनौती का सामना करने की कोशिश कर रहे हैं (रोलैंड, 2020).

7.4.3 प्रौद्योगिकीय प्रतिस्पर्धा: चीन की प्रौद्योगिकीय उन्नति और 5जी नेटवर्क के प्रसार ने अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए नई चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। भारत और अमेरिका मिलकर सुरक्षित प्रौद्योगिकी और साइबर सुरक्षा में निवेश कर रहे हैं (वुथनो, 2018).

8. निष्कर्ष

प्रमुख बिंदुओं का पुनरावलोकन

इस अध्ययन में हमने देखा कि भारत-अमेरिका संबंधों ने कैसे विकास किया और विभिन्न चरणों से गुजरे। हमने शीत-युद्ध, आर्थिक उदारीकरण, और 21वीं सदी में दोनों देशों के बीच बढ़ते सहयोग का विश्लेषण किया। चीन के संदर्भ में दोनों देशों की रणनीतिक साझेदारी पर भी विचार किया गया।

8.1 व्यापक भू-राजनीतिक संदर्भ में भारत-अमेरिका संबंधों का महत्व

भारत-अमेरिका संबंध व्यापक भू-राजनीतिक संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। दोनों देश दुनिया की दो सबसे बड़ी लोकतांत्रिक शक्तियाँ हैं और वैश्विक शांति, स्थिरता और समृद्धि को बढ़ावा देने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है।

8.1.1 क्षेत्रीय सुरक्षा: एशिया-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता और सुरक्षा के लिए दोनों देशों का सहयोग आवश्यक है।

8.1.2 वैश्विक आर्थिक शक्ति: दोनों देशों के बीच आर्थिक और व्यापारिक संबंध वैश्विक अर्थव्यवस्था को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं (कोहेन, 2001).

8.1.3 मानवाधिकार और लोकतंत्र: दोनों देशों के बीच साझेदारी वैश्विक स्तर पर मानवाधिकार और लोकतंत्र को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण है।

8.2 भारत, अमेरिका और चीन के बीच विकसित हो रहे त्रिपक्षीय गतिशीलता पर अंतिम विचार

भारत, अमेरिका और चीन के बीच विकसित हो रही त्रिपक्षीय गतिशीलता भविष्य के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को आकार देगी।

8.2.1 सहयोग और प्रतिस्पर्धा: भारत और अमेरिका मिलकर चीन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सहयोग बढ़ा रहे हैं, लेकिन इस प्रतिस्पर्धा में संतुलन बनाए रखना भी आवश्यक है (पंत, 2020).

8.2.2 रणनीतिक साझेदारी: दोनों देशों के बीच रणनीतिक साझेदारी न केवल उनके लिए बल्कि वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण है।

8.2.3 भविष्य की चुनौतियां: चीन के आक्रामक रवैये और वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के चलते भारत और अमेरिका को मिलकर नई रणनीतियाँ विकसित करनी होंगी।

8.3 निष्कर्ष

शीत-युद्ध के बाद भारत-अमेरिका संबंधों का विकास क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीति के लिए महत्वपूर्ण प्रभाव रखता है, विशेष रूप से चीन के संदर्भ में। जैसे-जैसे भारत और अमेरिका अपनी साझेदारी को गहरा करते हैं, एशिया में रणनीतिक परिदृश्य महत्वपूर्ण परिवर्तनों का गवाह बनने की संभावना है, जिसमें चीन इन गतिशीलताओं को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

संदर्भ

  1. कपूर, एस. पी. (2005)। "इंडिया एंड द यूनाइटेड स्टेट्स: एस्ट्रेंज्ड डेमोक्रेसीज़, 1941-1991"। सैज पब्लिकेशंस।
  2. कैंपबेल, के. एम., और रैटनर, ई. (2018)। "द चाइना रेकनिंग: हाउ बीजिंग डिफाइड अमेरिकन एक्सपेक्टेशंस"। फॉरेन अफेयर्स।
  3. कोहेन, एस. पी. (2001)। "इंडिया: इमर्जिंग पावर"। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन प्रेस।
  4. गांगुली, एस. (2012)। "कॉनफ्लिक्ट अनएंडिंग: इंडिया-पाकिस्तान टेंशन्स सिंस 1947"। कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस।
  5. गुहा, आर. (2007)। "इंडिया आफ्टर गांधी: द हिस्ट्री ऑफ़ द वर्ल्ड'स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी"। हार्परकॉलींस।
  6. चौधरी, प्रवीण के., और मार्टा वानडुज़र-स्नो। "द यूनाइटेड स्टेट्स एंड इंडिया: ए हिस्ट्री थ्रू आर्काइव्स"। सैज पब्लिकेशंस, 2008।
  7. जैन, बी. एम. "इंडिया-यूएस रिलेशन्स इन द ऐज ऑफ़ अनसर्टेनिटी: ए अनइजी बट वाइटल पार्टनरशिप"। रूटलेज, 2016।
  8. टलबॉट, स्ट्रोब। "एंगेजिंग इंडिया: यू.एस. स्ट्रैटेजिक रिलेशन्स विद द वर्ल्ड'स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी"। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन प्रेस, 2004।
  9. टेलिस, ए. जे. (2001)। "इंडिया'स इमर्जिंग न्यूक्लियर पोस्टचर: बिटवीन रीस्स्ड डिटरेंट एंड रेडी आर्सेनल"। रैंड कॉर्पोरेशन।
  10. पंत, एच. वी. (2008)। "कॉन्टेम्पररी डिबेट्स इन इंडियन फॉरेन एंड सिक्योरिटी पॉलिसी"। पलग्रेव मैकमिलन।
  11. पंत, एच. वी., और जोशी, वाई. (2020)। "इंडो-यूएस रिलेशन्स इन द ऐज ऑफ़ अनसर्टेनिटी: एन एवोल्विंग स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप"। रूटलेज।
  12. पेट्री, पी. ए., और प्लमर, एम. जी. (2020)। "आरसीईपी: ए न्यू ट्रेड एग्रीमेंट दैट विल शेप ग्लोबल इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिक्स"। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन।
  13. पॉल, टी. वी., संपादक। "द चाइना-इंडिया राइवलरी इन द ग्लोबलाइजेशन एरा"। जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी प्रेस, 2018।
  14. बजपेई, के. (2003)। "रूट्स ऑफ़ इंडिया'स स्ट्रैटेजिक कल्चर"। नेवल वार कॉलेज रिव्यू।
  15. मत्तू, ए. (1999)। "इंडिया'स न्यूक्लियर डिटरेंट: पोखरण II एंड बियॉन्ड"। हर-आनंद पब्लिकेशंस।
  16. मिटर, राना। "चाइना'स गुड वार: हाउ वर्ल्ड वार II इज शेपिंग ए न्यू नेशनलिज़्म"। बेलकनैप प्रेस, 2020।
  17. मुखर्जी, ए. (2020)। "इंडिया एंड द आरसीईपी: व्हाई इंडिया ऑप्टेड आउट"। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन।
  18. मोहन, सी. आर. (2006)। "इम्पॉसिबल एलाइज: न्यूक्लियर इंडिया, यूनाइटेड स्टेट्स, एंड द ग्लोबल ऑर्डर"। इंडिया रिसर्च प्रेस।
  19. राजगोपालन, आर. (2020)। "द क्वाड: सिक्योरिटी थ्रू पार्टनरशिप"। ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन।
  20. राजन, वी. जी. (2013)। "इंडिया एंड द यूनाइटेड स्टेट्स: द कोल्ड पीस"। फॉरेन पॉलिसी जर्नल।
  21. रोलैंड, एन. (2020)। "चाइना'स बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव: इंपैक्ट्स ऑन एशिया एंड पॉलिसी रिस्पॉन्सेज"। नेशनल ब्यूरो ऑफ एशियन रिसर्च।
  22. वुथनो, जे. (2018)। "द चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी एंड द पीपल'स लिबरेशन आर्मी: पार्टी-आर्मी रिलेशन्स इन चाइना"। नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी प्रेस।
  23. शाफर, टेरेसिटा सी. "इंडिया एंड द यूनाइटेड स्टेट्स इन द 21st सेंचुरी: रीइनवेंटिंग पार्टनरशिप"। सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज़, 2009।
  24. शामबॉ, डी. (2013)। "चाइना गोज ग्लोबल: द पार्शल पावर"। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।
  25. स्मिथ, जे. एम. (2020)। "द क्वाड 2.0: ए फाउंडेशन फॉर ए फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक"। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन।