शिक्षा के प्रति उनके दृष्टिकोण के संबंध में शहरी पुरुषों, शहरी महिलाओं, ग्रामीण पुरुषों, ग्रामीण महिलाओं की तुलना करना
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सारांश: वर्तमान शोध का उद्देश्य शहरी पुरुषों, शहरी महिलाओं, ग्रामीण पुरुषों तथा ग्रामीण महिलाओं के शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण की तुलना करना है। अध्ययन में यह पाया गया कि विभिन्न सामाजिक-भौगोलिक पृष्ठभूमियों और लिंग के आधार पर शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण में उल्लेखनीय अंतर विद्यमान है। शहरी महिलाओं में शिक्षा के प्रति अत्यधिक सकारात्मक दृष्टिकोण देखने को मिला, जो आत्मनिर्भरता, सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत विकास की भावना से प्रेरित था। शहरी पुरुषों ने शिक्षा को व्यावसायिक सफलता और सामाजिक प्रतिष्ठा के साधन के रूप में देखा। दूसरी ओर, ग्रामीण पुरुषों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत पारंपरिक था, जिसमें शिक्षा को केवल नौकरी या जीविका के साधन तक सीमित माना गया। वहीं, ग्रामीण महिलाओं में शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण घरेलू जिम्मेदारियों, पारिवारिक सीमाओं और सामाजिक अपेक्षाओं से प्रभावित था, जिससे उनकी आकांक्षाएं सीमित रहीं। यह अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित करने वाले कारक केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और लैंगिक भी हैं, अतः समावेशी और संवेदनशील नीतियों के माध्यम से इन विविधताओं को संबोधित करने की आवश्यकता है।
मुख्य शब्द: शिक्षा का दृष्टिकोण, शहरी-ग्रामीण तुलना, लैंगिक अंतर, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शैक्षिक दृष्टिकोण, महिला शिक्षा, ग्रामीण महिला शिक्षा, सामाजिक-सांस्कृतिक कारक, शैक्षिक समानता, दृष्टिकोण विश्लेषण
प्रस्तावना
भारत एक ऐसा देश है जहाँ विविधताओं की बहुलता ही उसकी पहचान है—भाषा, धर्म, जाति, संस्कृति, आर्थिक स्थिति और सामाजिक संरचनाओं के विविध रूपों ने यहाँ की सामाजिक बुनावट को अत्यंत जटिल बना दिया है। इसी सामाजिक जटिलता के बीच शिक्षा का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है, क्योंकि शिक्षा ही वह साधन है जो व्यक्ति के मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक और नैतिक विकास को दिशा देती है। यह केवल ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार, सामाजिक चेतना और सशक्तिकरण की ओर ले जाने वाला मार्ग है (दुबे 2017)।
देश के संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है, परंतु व्यावहारिक धरातल पर यह अधिकार सभी वर्गों के लिए समान रूप से सुलभ नहीं है। खासतौर पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच, और इन क्षेत्रों में रहने वाले पुरुषों और महिलाओं के दृष्टिकोण में, शिक्षा को लेकर एक स्पष्ट अंतर परिलक्षित होता है। शहरी क्षेत्रों में जहाँ सुविधाओं की उपलब्धता, तकनीकी संसाधन और वैश्विक जागरूकता शिक्षा को गति प्रदान करते हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक वर्जनाएं, आर्थिक पिछड़ापन, संसाधनों की कमी और पारंपरिक सोच शिक्षा की प्रगति में बाधा बनती है।
इसी प्रकार, लैंगिक दृष्टिकोण से भी शिक्षा की स्थिति असमान दिखाई देती है। पुरुषों के लिए शिक्षा को पारिवारिक उत्तरदायित्व, रोज़गार की अनिवार्यता और सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता है, जबकि महिलाओं के लिए शिक्षा आज भी कई परिवारों में केवल एक विकल्प के रूप में देखी जाती है, न कि अधिकार के रूप में। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों में सरकार और समाज की मिलीजुली कोशिशों से महिलाओं की शिक्षा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है, फिर भी अभी भी सामाजिक दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता बनी हुई है।
यह शोध इन्हीं द्वंद्वों और असमानताओं को उजागर करने का प्रयास है। यह शहरी पुरुषों, शहरी महिलाओं, ग्रामीण पुरुषों और ग्रामीण महिलाओं के शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण की तुलना कर यह जानने का प्रयास करता है कि उनके विचार, प्राथमिकताएँ और व्यवहार कैसे और क्यों एक-दूसरे से भिन्न हैं। इस अध्ययन का उद्देश्य केवल सांख्यिकीय तुलना करना नहीं है, बल्कि उस गहन सामाजिक संरचना को समझना है जो शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण को आकार देती है। यह शोध इस विचार से प्रेरित है कि जब तक हम समाज के सभी वर्गों की शैक्षिक सोच और व्यवहार को नहीं समझते, तब तक हम एक समान और समावेशी शैक्षिक नीति का निर्माण नहीं कर सकते।
शिक्षा समाज का वह स्तंभ है जिस पर किसी राष्ट्र की चेतना, सोच, मूल्यबोध, और भविष्य टिका होता है। यह न केवल ज्ञान का स्रोत है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन, मानसिक विकास, आर्थिक सशक्तिकरण और सांस्कृतिक स्थायित्व का माध्यम भी है। भारतीय संस्कृति में शिक्षा को प्रारंभ से ही उच्चतम आदर्शों के साथ जोड़ा गया है। प्राचीन काल में 'गुरुकुल' प्रणाली ने ज्ञान और संस्कार दोनों को समान महत्व दिया, जहाँ शिक्षा केवल जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि जीवन के उद्देश्यों को जानने और आत्मबोध प्राप्त करने का माध्यम थी (बख्शी 2016)।
समकालीन युग में, वैश्वीकरण, तकनीकी विकास, और जीवन की जटिलताओं ने शिक्षा की परिभाषा को और व्यापक बना दिया है। अब यह केवल किताबी ज्ञान या डिग्री तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि यह नेतृत्व क्षमता, नवाचार, समस्या समाधान, नैतिक निर्णय, और सामाजिक उत्तरदायित्व से भी जुड़ चुकी है। शिक्षा अब न केवल व्यक्ति को एक अच्छा नागरिक बनने में मदद करती है, बल्कि उसे सामाजिक असमानताओं, लैंगिक भेदभाव, धार्मिक कट्टरता और सांस्कृतिक पूर्वग्रहों से लड़ने के लिए भी सक्षम बनाती है।
स्त्री शिक्षा का संदर्भ इसमें अत्यधिक महत्वपूर्ण है। महिलाओं के लिए शिक्षा केवल निजी स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का माध्यम नहीं है, बल्कि यह एक पीढ़ी के निर्माण का आधार भी है। एक शिक्षित महिला न केवल स्वयं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाती है, बल्कि वह अपने बच्चों, परिवार और समाज को भी शिक्षा और चेतना की ओर प्रेरित करती है। शिक्षा उसके आत्मविश्वास, निर्णय लेने की क्षमता, और सामाजिक असमानताओं के विरुद्ध संघर्ष करने की शक्ति को पुष्ट करती है।
वहीं पुरुषों के लिए शिक्षा आज के प्रतिस्पर्धी सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे में एक अपरिहार्य आवश्यकता बन चुकी है। आर्थिक जिम्मेदारियों को निभाने, तकनीकी क्षेत्रों में दक्षता प्राप्त करने, और पारिवारिक तथा सामाजिक निर्णयों में भागीदारी के लिए उन्हें शिक्षा के आधुनिक स्वरूप को अपनाना आवश्यक हो गया है। हालांकि, उनके ऊपर अपेक्षाओं का सामाजिक दबाव भी अधिक होता है, जिससे कई बार शिक्षा केवल एक साधन मात्र बनकर रह जाती है, न कि आत्मविकास का मार्ग।
इस प्रकार, शिक्षा का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व केवल औपचारिक प्रणाली तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज के प्रत्येक सदस्य की चेतना, सोच, व्यवहार और अवसरों की समानता से गहराई से जुड़ा हुआ है। जब तक समाज में सभी वर्गों, विशेष रूप से शहरी और ग्रामीण, पुरुष और महिला के बीच शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण में समानता नहीं आती, तब तक न तो शैक्षिक विकास संभव है और न ही समावेशी सामाजिक प्रगति।
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कार्यप्रणाली
इस अनुसंधान के लिए अपनाई गई कार्यप्रणाली को सुनियोजित एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संरचित किया गया है। नमूना प्रक्रिया के अंतर्गत औरंगाबाद जिले के 514 माध्यमिक विद्यालयों में से 258 शहरी और 256 ग्रामीण विद्यालयों में से क्रमशः 130 और 128 विद्यालयों का 50% के अनुपात में चयन किया गया, जिससे शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके। कुल लगभग 1000 दसवीं कक्षा के छात्रों को चुना गया, जिनमें 400 अंग्रेजी माध्यम, 300 उर्दू माध्यम, और 300 मराठी माध्यम के छात्र शामिल हैं। अध्ययन में प्रयुक्त उपकरणों में प्रश्नावली, दृष्टिकोण पैमाना और साक्षात्कार शामिल हैं, जिनका उद्देश्य छात्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण का मूल्यांकन करना था। उपकरणों की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने हेतु 100 छात्रों पर पायलट अध्ययन किया गया, जिसमें प्राप्त सुझावों के आधार पर आवश्यक संशोधन किए गए। डेटा संग्रह के दौरान छात्रों, उनके माता-पिता और शिक्षकों से क्रमशः प्रश्नावली, दृष्टिकोण पैमाने और साक्षात्कार के माध्यम से जानकारी प्राप्त की गई। प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों से एकत्रित आंकड़ों का विश्लेषण वर्णनात्मक सांख्यिकी, रिग्रेशन विश्लेषण और सहसंबंध विश्लेषण जैसी तकनीकों से किया गया। यद्यपि अध्ययन में नमूना आकार और उपकरणों से संबंधित कुछ सीमाएँ थीं, फिर भी प्रयुक्त वैज्ञानिक विधियों के माध्यम से प्राप्त निष्कर्ष विश्वसनीय और उपयोगी सिद्ध होते हैं।
डेटा विश्लेषण और परिणाम
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों के दृष्टिकोण में भी महत्वपूर्ण अंतर पाया गया है। इसका मुख्य कारण शहरी क्षेत्रों में शिक्षा की बेहतर सुविधाएं और संसाधनों की उपलब्धता हो सकती है।
तालिका 1: शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों का दृष्टिकोण
क्षेत्र |
सकारात्मक दृष्टिकोण (%) |
नकारात्मक दृष्टिकोण (%) |
कुल छात्र |
शहरी क्षेत्र |
70% |
30% |
150 |
ग्रामीण क्षेत्र |
52% |
48% |
180 |
यह तालिका दर्शाती है कि शहरी क्षेत्र के छात्रों में शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण अधिक सकारात्मक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों में नकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतिशत अधिक है। यह अंतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा सुविधाओं की भिन्नता के कारण हो सकता है।
ग्राफ़ 1: शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में दृष्टिकोण का तुलनात्मक प्रदर्शन
इस ग्राफ़ में स्पष्ट किया गया है कि शहरी क्षेत्र के छात्रों में शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अधिक सकारात्मक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत नकारात्मक है। यह अंतर शहरी क्षेत्रों में बेहतर शिक्षा सुविधाओं और संसाधनों की उपलब्धता से जुड़ा हो सकता है।
निष्कर्ष
शहरी पुरुषों, शहरी महिलाओं, ग्रामीण पुरुषों और ग्रामीण महिलाओं के शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण की तुलना से यह निष्कर्ष निकलता है कि सभी वर्गों में शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया गया है, किंतु दृष्टिकोण में कुछ भिन्नताएँ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं। अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि शहरी क्षेत्रों के छात्रों—विशेष रूप से शहरी महिलाओं—का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण अधिक सकारात्मक और प्रेरित है। वे उच्च शिक्षा, आत्मनिर्भरता, और कैरियर निर्माण को प्राथमिकता देती हैं। वहीं शहरी पुरुष भी शिक्षा को आवश्यक मानते हैं, किंतु उनमें प्रतियोगी भावना अधिक देखी गई। दूसरी ओर, ग्रामीण क्षेत्रों में भी शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, किंतु संसाधनों की सीमित उपलब्धता, सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ, और आर्थिक परिस्थितियाँ उनके दृष्टिकोण को कुछ हद तक प्रभावित करती हैं। ग्रामीण महिलाओं में शिक्षा के प्रति सकारात्मक झुकाव तो है, परंतु पारिवारिक जिम्मेदारियाँ और विवाह की सामाजिक अपेक्षाएँ उनके शैक्षिक दृष्टिकोण को सीमित कर सकती हैं। कुल मिलाकर, अध्ययन यह दर्शाता है कि शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण में क्षेत्रीय और लैंगिक भिन्नताओं की उपस्थिति है, लेकिन समग्र रूप से सभी वर्ग शिक्षा को जीवन में आवश्यक और प्रगति का माध्यम मानते हैं। यह संकेत करता है कि यदि उपयुक्त अवसर और सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ, तो सभी वर्गों के छात्र समान रूप से शैक्षिक विकास में भागीदारी कर सकते हैं।