कथा-विन्यास और प्रवाह

डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों की सबसे प्रमुख विशेषता उनका सुविचारित और सुसंगठित कथा-विन्यास है। कोहली जी ने 'दीक्षा', 'अवसर', 'संघर्ष की ओर', और 'युद्ध' जैसे उपन्यासों में पारंपरिक रामकथा को आधुनिक सामाजिक यथार्थ के साथ इस प्रकार संयोजित किया है कि कथा का प्रवाह न केवल तार्किक रूप से क्रमबद्ध रहता है, बल्कि पाठक के मानसिक स्तर पर भी निरंतर गतिशील रहता है। उनकी रचनाओं में घटनाओं की संरचना इस प्रकार की जाती है कि वह प्रत्येक अध्याय में रोचकता और गंभीरता का संतुलन बनाए रखती है।

डॉ. कोहली का कथा-विन्यास रेखीय न होकर बहुआयामी है। वे केवल घटनाओं के वर्णन तक सीमित नहीं रहते, बल्कि प्रत्येक घटना के पीछे छिपे सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक कारकों को उजागर करते हैं। 'दीक्षा' में विश्वामित्र और राम के संवादों के माध्यम से आध्यात्मिक-राजनैतिक द्वंद्व को सामने लाया गया है, वहीं ‘अवसर’ में राम के अयोध्या से वनगमन की घटना को महज शोकात्मक नहीं, बल्कि राजनीतिक निर्णय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे कथानक का प्रवाह एक आधुनिक विमर्श की दिशा में बढ़ता है।

उनकी भाषा शैली, चरित्रों की अंतरात्मा में उतरने वाली मनोवैज्ञानिक गहराई, और पौराणिक परिवेश को समकालीन सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की क्षमता कथानक को एक विशिष्ट प्रवाह देती है। कोहली कथा के भीतर फ्लैशबैक, विचार-प्रवाह, और संवादात्मक अंतराल का प्रयोग करते हैं, जिससे कहानी में विविधता और गतिशीलता बनी रहती है।

इसके अतिरिक्त, कथा का प्रवाह पात्रों के विकास के साथ जुड़ा हुआ होता है। राम, लक्ष्मण, विश्वामित्र, या रावण — सभी पात्र समय के साथ अपने अनुभवों और परिस्थितियों के आधार पर बदलते हैं, जिससे कथा गतिशील और स्वाभाविक प्रतीत होती है। कोहलीजी कथा में रसात्मकता और नैतिकता दोनों का अद्भुत समन्वय करते हैं, जिससे कथा-विन्यास केवल कथा का ढांचा नहीं, बल्कि एक विचारधारा बन जाती है।

इस प्रकार, डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों में कथा-विन्यास और प्रवाह पारंपरिक आख्यान शैली से अलग हटकर विचारोत्तेजक, तार्किक और बहुस्तरीय प्रस्तुति के रूप में विकसित होता है, जो उनके उपन्यासों को साहित्यिक और दार्शनिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण बनाता है।

संवाद शैली और भाषिक प्रयोग

डॉ. नरेन्द्र कोहली की रचनाशीलता का एक प्रमुख पक्ष उनकी संवाद शैली (Dialogue Technique) है, जो उनके उपन्यासों को न केवल जीवंतता प्रदान करती है, बल्कि पात्रों की मानसिकता, वैचारिक स्तर और सामाजिक चिंतन को भी पाठकों के सामने स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। रामकथा जैसे पौराणिक आख्यान को आधुनिक यथार्थवाद की कसौटी पर प्रस्तुत करने के लिए संवादों की विश्वसनीयता और सशक्तता अत्यंत आवश्यक थी, जिसे कोहली जी ने अत्यंत दक्षता से निभाया है।

उनकी संवाद शैली में संक्षिप्तता, स्पष्टता और प्रभावशीलता प्रमुखता से दृष्टिगोचर होती है। संवाद केवल वार्तालाप का माध्यम नहीं हैं, बल्कि वे पात्रों की विचारधारा, वैचारिक द्वंद्व, और मनोवैज्ञानिक तनाव को सामने लाने का एक शक्तिशाली उपकरण बन जाते हैं। उदाहरणस्वरूप, ‘दीक्षा’ उपन्यास में विश्वामित्र और वशिष्ठ के बीच के संवाद केवल व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा को नहीं दर्शाते, बल्कि वे ज्ञान बनाम बल, तप बनाम अधिकार, और नीति बनाम सत्ता जैसे मूल प्रश्नों को गहराई से स्पर्श करते हैं।

भाषिक प्रयोग की दृष्टि से डॉ. कोहली की भाषा सहज, प्रवाहमयी और पाठक के बौद्धिक स्तर के अनुकूल है। वे संस्कृतनिष्ठ हिंदी और देशज शब्दों का सुंदर संतुलन बनाए रखते हैं, जिससे भाषा में न तो अनावश्यक क्लिष्टता आती है और न ही वह अत्यधिक साधारण लगती है। कथा की भव्यता को बनाए रखते हुए वे भाषा को उस समय और पात्र की मानसिकता के अनुरूप ढालते हैं। रावण जैसे पात्र का भाषा प्रयोग गर्व, अहंकार और विद्वता से परिपूर्ण होता है, जबकि सीता और राम के संवादों में संयम, करुणा और उच्च नैतिकता की झलक स्पष्ट होती है।

डॉ. कोहली का भाषिक प्रयोग उस स्थान और स्थिति की भावना को भी व्यक्त करता है। संकट की घड़ी में संवादों में तनाव की झलक होती है, जबकि आध्यात्मिक संवादों में गूढ़ दर्शन और चिंतन की बौद्धिकता दिखती है। यही कारण है कि पाठक न केवल कथा को समझता है, बल्कि पात्रों की मनोभूमि और वैचारिक गहराई को भी अनुभव कर पाता है।

इस प्रकार, डॉ. नरेन्द्र कोहली की संवाद शैली और भाषिक प्रयोग न केवल उनके उपन्यासों को संप्रेषणीय और रोचक बनाते हैं, बल्कि रामकथा जैसे गूढ़ विषय को जनसामान्य तक सशक्त और सार्थक रूप में पहुँचाने का माध्यम भी बनते हैं। यह विशेषता उन्हें हिंदी साहित्य में संवादप्रधान लेखन के एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है।

प्रतीकात्मकता और रूपक

डॉ. नरेन्द्र कोहली ने अपने रामकथापरक उपन्यासों में प्रतीकात्मकता और रूपक का अत्यंत सशक्त एवं प्रभावी प्रयोग किया है, जो उनके साहित्य को केवल कथा तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसे दर्शन, विचार और सामाजिक यथार्थ से जोड़ता है। उनके उपन्यासों में प्रतीक और रूपक महज अलंकार नहीं होते, बल्कि वे पात्रों, घटनाओं और स्थलों के माध्यम से गहरे सांस्कृतिक और दार्शनिक अर्थ प्रदान करते हैं।

सबसे प्रमुख प्रतीक ‘राम’ स्वयं हैं — जो केवल एक ऐतिहासिक या पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि मर्यादा, धर्म, उत्तरदायित्व और नेतृत्व के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। राम का वनगमन त्याग और कर्तव्य का प्रतीक है, जो आधुनिक पाठकों के लिए नेतृत्व में नैतिकता की आवश्यकता को दर्शाता है। इसी प्रकार ‘रावण’ मात्र राक्षस राजा नहीं, बल्कि अहंकार, अति विद्वता और आत्मवंचना का प्रतीक बनकर उभरता है।

सीता का चरित्र भी कोहली के उपन्यासों में प्रतीकात्मक रूप से भारतीय नारी की गरिमा, धैर्य और आत्मबल का प्रतिनिधित्व करता है। उनका अपहरण केवल एक स्त्री की व्यथा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों और नारी अस्मिता पर संकट का रूपक बन जाता है।

डॉ. कोहली ‘वन’ को भी प्रतीक के रूप में प्रयुक्त करते हैं — जो कभी आत्मशोधन का माध्यम, तो कभी राजनैतिक संघर्ष की भूमि बनता है। ‘वन’ यहाँ केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं, बल्कि मानव जीवन की जटिलताओं, परीक्षा और वैचारिक संकल्पों का मंच है। ‘युद्ध’ उपन्यास में लंका विजय केवल दैत्य दल पर विजय नहीं, बल्कि अधर्म पर धर्म की वैचारिक विजय का प्रतीक है।

उनकी भाषा में प्रयुक्त रूपकात्मकता भी ध्यान देने योग्य है। वे संवादों और वर्णनों में रूपकों के माध्यम से ऐसे विचार प्रस्तुत करते हैं जो पाठक को गहराई से सोचने पर विवश करते हैं। उदाहरणतः, सत्ता को ‘शक्ति का नशा’, या अहंकार को ‘दर्प की ज्वाला’ जैसे प्रयोग भाव और चिंतन को एक साथ अभिव्यक्त करते हैं।

इस प्रकार, डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों में प्रतीकात्मकता और रूपक पौराणिक आख्यानों को आधुनिक वैचारिक विमर्श से जोड़ने का कार्य करते हैं। वे न केवल कथा की गहराई बढ़ाते हैं, बल्कि पाठक को सांस्कृतिक चेतना, नैतिक मूल्यों और सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग भी करते हैं। यही गुण उनके साहित्य को केवल मनोरंजन नहीं, अपितु चिंतन और आत्मबोध का माध्यम बनाता है।

वर्णनात्मक शैली और दृश्यात्मकता: डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों में

डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों की एक विशिष्ट विशेषता उनकी वर्णनात्मक शैली है, जो पाठक को केवल कथा सुनाने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि उसे घटनाओं, पात्रों और वातावरण में मानसिक रूप से सहभागी बना देती है। उनकी लेखनी में घटनाओं का चित्रण इतना जीवंत और सजीव होता है कि पाठक उन दृश्यों को अपने मानस-पटल पर स्पष्ट रूप से देख और महसूस कर सकता है। वे वातावरण, समय, और पात्रों के भावों को इस प्रकार वर्णित करते हैं कि कथा केवल पढ़ी नहीं जाती — वह अनुभूत होती है।

उदाहरण के लिए, ‘दीक्षा’ उपन्यास में राम और विश्वामित्र की यात्रा का चित्रण केवल यात्रा का भौगोलिक विवरण नहीं है, बल्कि उस यात्रा के दौरान प्रकृति, ऋषि परंपरा, सांस्कृतिक मूल्यों और मनोदशा की बारीकी से की गई व्याख्या भी है। कोहली जी छोटी-छोटी बातों — जैसे जंगल की शांति, ऋषियों की दिनचर्या, या युद्धभूमि की उत्तेजना — को गहरे भावात्मक रंगों में रंगते हैं, जिससे उनका वर्णन दृश्यात्मक प्रभाव छोड़ता है।

उनकी वर्णनात्मक शैली में स्पष्टता और सजीवता की अद्भुत संगति है। वे ऐसे उपमानों, उपमाओं और दृश्य चित्रों का चयन करते हैं जो पाठक की कल्पना को तुरंत सक्रिय कर देते हैं। उदाहरणतः, जब वे लंका के राजदरबार का वर्णन करते हैं, तो रावण की सत्ता, शक्ति और गर्व का जो दृश्य उपस्थित होता है, वह केवल वर्णन नहीं, बल्कि एक प्रभावशाली दृश्य अनुभव बन जाता है।

इसके अतिरिक्त, भावात्मक वर्णन भी कोहली की शैली की एक बड़ी विशेषता है। सीता की अग्निपरीक्षा या भरत की पीड़ा जैसे प्रसंगों में उनका भावनात्मक चित्रण इतना गहन होता है कि पाठक पात्रों की वेदना को अपनी अनुभूति में महसूस करता है। यहां उनकी शैली केवल बाह्य घटनाओं का चित्रण नहीं करती, बल्कि आंतरिक भावनाओं और मानसिक द्वंद्वों को भी अभिव्यक्त करती है।

डॉ. कोहली की वर्णनात्मक शैली में संयम और संतुलन भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वे न तो अत्यधिक विस्तार में जाते हैं और न ही केवल संकेतों तक सीमित रहते हैं। उनका उद्देश्य पाठक को कथा में डुबो देना होता है — उसे सोचने, महसूस करने और घटनाओं से जुड़ने का अवसर देना होता है।

इस प्रकार, वर्णनात्मक शैली और दृश्यात्मकता डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों को एक साहित्यिक सौंदर्य प्रदान करती है, जो उन्हें न केवल पठनीय बल्कि दृश्यात्मक अनुभवों से युक्त कलात्मक रचना भी बनाती है। यह शैली उन्हें हिंदी कथा साहित्य में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है, जहां कथाकार पाठक को दृश्य और विचार दोनों की यात्रा पर ले जाता है।

पात्र विकास की कलात्मकता

डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों की एक विशिष्ट विशेषता है — पात्र विकास की कलात्मकता। वे अपने पात्रों को केवल पौराणिक संदर्भों तक सीमित नहीं रखते, बल्कि उन्हें जीवंत, जटिल और मनोवैज्ञानिक रूप से परिपक्व बनाने का प्रयास करते हैं। उनका साहित्य पात्रों के बाह्य क्रियाकलापों से अधिक उनके अंतर्द्वंद्व, निर्णय प्रक्रिया, और वैचारिक विकास पर केंद्रित होता है।

राम का चरित्र इस दृष्टि से अत्यंत विकसित और कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है। वे कोहली के उपन्यासों में केवल एक ईश्वर या राजा नहीं, बल्कि एक संवेदनशील, न्यायप्रिय और उत्तरदायी मानव के रूप में उभरते हैं। ‘दीक्षा’ से लेकर ‘युद्ध’ तक राम का भावनात्मक, बौद्धिक और नैतिक विकास क्रमशः सामने आता है — वे एक आज्ञाकारी पुत्र से एक कुशल योद्धा और फिर एक समदर्शी शासक बनते हैं। उनकी निर्णय प्रक्रिया में विवेक, त्याग और नीतिकेन्द्रित सोच की झलक मिलती है, जो पात्र विकास की परिपक्वता का प्रतीक है।

सीता का चरित्र भी कोहली जी के उपन्यासों में गहराई से उकेरा गया है। वह केवल एक पत्नी नहीं, बल्कि संकट में धैर्य और आत्मबल का उदाहरण हैं। सीता का आत्मसंघर्ष, उनकी आंतरिक पीड़ा, और सामाजिक दृष्टिकोण का सामना करने की उनकी शक्ति उन्हें एक समसामयिक नारी का प्रतीक बनाती है। उनका चरित्र पारंपरिकता और आधुनिक स्त्री विमर्श का सेतु बन जाता है।

लक्ष्मण, भरत, और रावण जैसे पात्रों का भी क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होता है। लक्ष्मण की त्वरित प्रतिक्रिया और तात्कालिक क्रोध धीरे-धीरे समर्पण, त्याग और बौद्धिकता में परिवर्तित होता है। भरत का चरित्र, विशेष रूप से ‘अवसर’ उपन्यास में, एक राजकुमार के अंतर्द्वंद्व और धर्म-संकट को कलात्मक रूप से चित्रित करता है। वहीं रावण का चित्रण एक दुष्ट राक्षस तक सीमित नहीं रहता — वह अभिमान, विद्वता और आत्ममोह का जटिल समागम बन जाता है, जिससे पाठक उसके अंत तक सहानुभूति और विरोध दोनों के भावों में उलझ जाता है।

डॉ. कोहली पात्रों को स्थिर रूप में नहीं दिखाते, बल्कि उन्हें परिस्थितियों से प्रभावित होने वाले जीवंत व्यक्ति के रूप में विकसित करते हैं। उनके पात्र गलतियाँ करते हैं, सीखते हैं, बदलते हैं, और अंततः पाठक को नैतिक, दार्शनिक और सामाजिक स्तर पर सोचने के लिए प्रेरित करते हैं।

इस प्रकार, पात्र विकास की कलात्मकता डॉ. कोहली के उपन्यासों को न केवल साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध बनाती है, बल्कि उन्हें मानव जीवन की जटिलताओं का यथार्थवादी चित्रण भी प्रदान करती है। यह विशेषता उन्हें हिंदी कथा साहित्य में एक मौलिक स्थान प्रदान करती है।

कथानक में भावात्मक और नैतिक द्वंद्व

डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों की कथानक संरचना केवल घटनाओं की श्रृंखला नहीं है, बल्कि वह भावनात्मक और नैतिक द्वंद्व की गहराइयों में उतरती है। कोहली जी ने पौराणिक चरित्रों को न केवल आदर्श रूप में प्रस्तुत किया, बल्कि उन्हें संवेदनशील, आत्मसंशयी और निर्णयों के क्षणों में संघर्षरत मानव के रूप में भी चित्रित किया है। यह द्वंद्व ही उनके उपन्यासों को गहराई, सजीवता और समसामयिकता प्रदान करता है।

सबसे प्रमुख भावात्मक द्वंद्व राम के चरित्र में परिलक्षित होता है। एक ओर वे पुत्र हैं जो अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हैं, और दूसरी ओर वे पति हैं जो सीता के अपहरण और अग्निपरीक्षा के समय व्यक्तिगत प्रेम और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच संघर्ष करते हैं। राम का यह नैतिक द्वंद्व – “क्या समाज के लिए नारी की शुद्धता को प्रमाणित करना आवश्यक है?” – उन्हें एक आदर्श पुरुषोत्तम से बढ़कर एक गहराई से सोचने वाला, उत्तरदायित्व से ग्रसित शासक बना देता है।

सीता का भावात्मक संघर्ष भी उतना ही जटिल है। उनका वनवास, रावण द्वारा अपहरण, और अग्निपरीक्षा – ये केवल बाह्य घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि उनके स्त्रीत्व, आत्मसम्मान और आंतरिक विश्वास पर आधारित गहन द्वंद्व की परतें हैं। सीता का मौन कई बार उस नारी की आवाज़ बन जाता है जो हर युग में समाज की संकीर्ण मानसिकता से संघर्ष करती रही है।

भरत का चरित्र तो नैतिक द्वंद्व का जीवंत प्रतीक है। राम के वनवास के बाद अयोध्या का राज्य उनके लिए एक ऐसा दायित्व बन जाता है, जो न तो उनका है और न ही वे उससे विमुख हो सकते हैं। भरत का राम के लिए खड़ाऊँ राजसिंहासन पर रखना – एक भावनात्मक और नैतिक निर्णय है, जो उनके त्याग, निष्ठा और आत्मद्वंद्व को उजागर करता है।

रावण, जो प्रायः नकारात्मक रूप में चित्रित होता है, को कोहली जी ने अहंकार और विद्वता के संघर्षरत पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। रावण की चेतना स्वयं में नैतिकतावादी नहीं है, परंतु उसमें द्वंद्व विद्यमान है — वह जानता है कि सीता का हरण धर्मविरुद्ध है, फिर भी वह अहंकार, प्रतिशोध और आकर्षण के कारण उस पथ पर चलता है।

इन भावात्मक और नैतिक द्वंद्वों का प्रयोग केवल कथा में जटिलता जोड़ने के लिए नहीं, बल्कि पाठक को आत्मविश्लेषण की दिशा में प्रेरित करने के लिए किया गया है। पाठक केवल घटनाओं को नहीं पढ़ता, वह पात्रों के निर्णयों, उलझनों और त्याग से मानवता, धर्म और कर्तव्य के विषय में विचार करता है।

इस प्रकार, डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों में कथानक भावात्मक और नैतिक द्वंद्वों की गहराई से समृद्ध है, जो उन्हें पौराणिकता से ऊपर उठाकर सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत चेतना का आईना बना देता है। यही शिल्पगत विशेषता उनके उपन्यासों को कालजयी बनाती है।

पौराणिकता और समकालीनता का संगम

डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यासों की सबसे उल्लेखनीय विशेषता है — पौराणिकता और समकालीनता का प्रभावशाली संगम। कोहली जी ने जिस कुशलता से प्राचीन रामकथा के मूल तत्वों को सुरक्षित रखते हुए उसे आधुनिक दृष्टिकोण और सामाजिक सरोकारों के साथ जोड़ा है, वह उनके साहित्य को कालजयी और सार्वकालिक बनाता है। उन्होंने राम, सीता, लक्ष्मण, रावण जैसे पौराणिक पात्रों को धार्मिक प्रतीकों के स्थान पर जीवंत, संघर्षशील, और समसामयिक मूल्यों से युक्त व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया है।

पौराणिकता के अंतर्गत कोहली जी मूल कथा की घटनाओं, स्थानों, संबंधों और प्रतीकों को यथावत रखते हैं। उन्होंने वाल्मीकि रामायण, तुलसीकृत रामचरितमानस, और अन्य परंपरागत रामकथाओं से प्रेरणा लेकर कथानक की मूल रचना को धार्मिक-सांस्कृतिक संदर्भों के अनुसार ढाला है। परंतु उनका उद्देश्य केवल पुनर्कथन नहीं है — वे उन घटनाओं को समकालीन दृष्टिकोण से पुनर्परिभाषित करते हैं।

समकालीनता की झलक सबसे पहले पात्रों के मानसिक संघर्ष, सामाजिक जिम्मेदारियों और नैतिक निर्णयों में दिखाई देती है। राम केवल ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ नहीं हैं, वे एक ऐसा व्यक्ति हैं जो सत्ता, धर्म और परिवार के बीच संतुलन साधते हुए निर्णय लेते हैं — ठीक उसी प्रकार जैसे आज का आदर्श नेता या समाज सेवक करता है। रावण का चित्रण एक अहंकारी परंतु विद्वान और सामर्थ्यवान नेता के रूप में होता है — जो सत्ता के लोभ और आत्ममोह का शिकार हो जाता है। यह रूपांतरण उसे एक समसामयिक राजनैतिक चरित्र की तरह प्रस्तुत करता है।

सीता का चरित्र भी परंपरा से बाहर निकलकर एक आत्मनिर्भर, सोचने वाली, और प्रतिरोध करने वाली नारी का प्रतीक बनता है, जो आज की स्त्री की स्थिति और संघर्ष को प्रतिबिंबित करता है। भरत, लक्ष्मण और हनुमान जैसे पात्रों को भी आधुनिक संदर्भों में कर्तव्यनिष्ठ, नैतिक और भावनात्मक रूप से परिपक्व रूप में दिखाया गया है।

डॉ. कोहली की भाषा, संवाद, और शैली भी इस संगम को सशक्त बनाते हैं। वे एक ओर पौराणिक पदावली और प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, वहीं दूसरी ओर आज की विचारधारा, मनोवैज्ञानिक विवेचन और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को भी स्थान देते हैं। इस कारण उनके उपन्यास केवल धार्मिक ग्रंथों का आधुनिक संस्करण नहीं, बल्कि आधुनिक भारत के लिए सांस्कृतिक आत्मनिरीक्षण का साधन बन जाते हैं।

इस प्रकार, डॉ. नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों में पौराणिकता और समकालीनता का संगम केवल शिल्प का सौंदर्य नहीं, बल्कि भारतीय समाज की बदलती चेतना और मूल्यों का सजीव चित्रण है। यह संगम उन्हें परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सेतु के रूप में स्थापित करता है, जो आज के पाठक को न केवल धार्मिक दृष्टि से प्रेरित करता है, बल्कि सामाजिक रूप से भी जागरूक बनाता है।

निष्कर्ष

डॉ. नरेन्द्र कोहली के रामकथापरक उपन्यास हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं क्योंकि वे परंपरागत पौराणिक आख्यान को आधुनिक संदर्भों में पुनः व्याख्यायित करते हैं। उनका कथा शिल्प बहुआयामी है, जिसमें कथा का प्रवाह, पात्रों का मनोवैज्ञानिक विकास, नैतिक और भावात्मक द्वंद्व, और भाषा का सजीव प्रयोग एक विशिष्ट साहित्यिक अनुभव प्रदान करता है। कोहली जी की रचनाएँ केवल धार्मिक शिक्षाओं तक सीमित नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक प्रश्नों पर विमर्श प्रस्तुत करती हैं। इस प्रकार, उनके उपन्यास न केवल कथा का माध्यम हैं, बल्कि समकालीन समाज के लिए एक विचारशील मार्गदर्शक के रूप में भी स्थापित होते हैं।