विश्वविद्यालयीन छात्राओं की अष्टमनोस्थितियों पर यौगिक क्रियाओं (हठयोग) का प्रभाव
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सारांश: इस शोध अध्ययन का उद्देश्य यौगिक क्रियाओं का प्रभाव विश्वविद्यालयीन छात्राओं के अष्टमनोस्थितियों पर देखना है | इस शोध के लिए कुल 100 छात्राओं का चयन किया गया है इनको दो समूहों यथा - प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूह में विभाजित किया गया है | प्रत्येक समूह में 50-50 प्रयोज्य है इन पर अष्टमनोस्थितियों का परीक्षण प्रयोग किया गया है | यह परीक्षण अष्टमनोस्थिति प्रश्नावली का हिंदी रूपांतरण एवं भारतीय अनुकूलन कपूर एवं भार्गव (2010) मापनी से किया गया हैं | यौगिक क्रियाएं (षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध) योग का एक विशेष अभ्यास है जिसका अभ्यास प्रायोगिक समूह पर 40 मिनट तक दो माह के लिए कराया गया तथा नियंत्रित समूह अपनी दैनिक चर्या का पालन करते रहे | दोनों समूहों का पूर्व परीक्षण तथा दो माह की यौगिक क्रियाओं के अभ्यास के बाद पश्च-परीक्षण किया गया है | ये परीक्षण ‘t’(two-tailed) तथा ‘A’ संड़लर्स परीक्षण से किये गए है जिसकी सार्थक कसौटी α= या p<0.005 की रखी गई| जिससे यह पाया कि विश्वविद्यालयीन छात्राओं की अष्टमनोस्थितियों जैसे चिंता, तनाव, अवसाद, प्रतिगमन, अपराध भाव, थकान, बहिर्मुखता एवम उत्तेजना के अंतर्गत इन प्रयोज्यों में सार्थक सुधार हुआ है | छात्राओं की अष्टमनोस्थितियों के मध्यमानों में सार्थक परिवर्तन देखा गया |
मुख्य शब्द: विश्वविद्यालयीन छात्राएं, यौगिक क्रियाएं, अष्टमनोस्थितियां
प्रस्तावना
पर्यावरणीय परिवर्तन, पश्चिमीकरण का अंधानुकरण एवं बदलते सामाजिक परिवेश के कारण कई बार व्यक्ति के जीवन के इस स्तर पर दुविधायुक्त संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। वह न तो नये परिवेश से पूरा समायोजन कर सकता है और न ही विमुख हो सकता है। तब इस स्थिति में उसके मानसिक उद्धोलन बढ़ जाते हैं। पश्चिमी अन्धानुकरण, मीडिया से प्रसारित होने वाली सामाजिक मूल्यों से दूर अश्लील सामग्रियां इस अवस्था के व्यक्तियों पर एक विशेष प्रभाव डालते हैं। भोजन की विविध स्वाद परक रूचियां, भौतिक साधनों के एकत्रिकरण द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त करने की होळ, एवं वर्तमान में बढ़ती हुई हिंसात्मकता एवं आक्रामकता के मध्य अपनी सुरक्षा की क्या व्यवस्था हो आदि स्थितियों से किशोर प्रभावित होते हैं। इससे कई किशोर तो संभलकर अपने जीवन का सही प्रबंधन करके पूर्वोक्त समस्याओं से बच जाते हैं परन्तु जो इन परिस्थितियों से समायोजन नहीं कर पाते वे मानसिक संघर्ष, मनःस्तापि लक्षणों जैसे दुश्चिन्ता, अवसाद, उन्माद, मनोग्रस्त बाध्यता, स्नायुदौर्बल्यता आदि एवं अन्य हल्के मानसिक व्यतिक्रमों या तीव्र मानसिक व्यतिक्रमों से ग्रसित हो जाते हैं। ये लक्षण अस्पष्ट अन्तर्दृष्टि, अस्पष्ट प्रत्यक्षीकरण, अहम् और पराहम की तनुता, दबाव एवं तनाव के कारण उत्पन्न होते हैं ।
योग की अवधारणा
महर्षि व्यास योग का अर्थ समाधि करते हैं। व्याकरणशास्त्र में (युज) धातु से भाव में घञ् प्रत्यय करने पर योग शब्द व्युत्न्न होता है। महर्षि पाणिनि के धातुपाठ के दिवादिगण में (युज समाधों), रुधादिगण में (युजीर योगे) तथा चुरादिगण में (युज संयमने) अर्थ में आती है। संक्षेप में हम कह सकते है की संयमपूर्वक साधना करते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ योग करके (जोड़कर) समाधि का आनंद लेना योग है।
यौगिक क्रियाएं
हठयोग दो वर्णों से मिलकर बना है 'ह' और 'ठ' । ह का अर्थ- सूर्य स्वर, दायाँ स्वर, पिंगला स्वर, अथवा यमुना तथा' ठ' का अर्थ- चंद्र स्वर, बायाँ स्वर अथवा गंगा लिया जाता है। दोनों के संयोग से अग्निस्वर , मध्य स्वर, सुषुम्ना स्वर, अथवा सरस्वती स्वर चलता है। जिसके कारण ब्रह्मनाड़ी में प्राण का संचरण होने लगता है| इसी ब्रह्मनाड़ी के निचले सिरे के पास कुंडलिनी शक्ति सुप्त अवस्था में स्थित है | जब साधक प्राणायाम करता है तो प्राण के आघात से सुप्तकुंडलिनी जागृत होती है| जो सात चक्रों को भेदती हुई समाधि की स्थिति तक पहुंचाती है | यही पद्धति आज आसन, प्राणायाम, षट्कर्म, मुद्रा, बंध तथा यौगिक आहार के अभ्यास के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय हो रही है|
हठयोग की क्रियाओं का सबसे अधिक वर्णन घेरंड संहिता में दिया गया है। घेरंड संहिता में सप्तसाधन बताए गए हैं। सप्त साधनों की योग विद्या इस प्रकार है- षट्कर्म से शरीर की शुद्धि, आसनों द्वारा शरीर का मजबूत होना, मुद्राओं द्वारा स्थिरता, प्रत्याहार से धीरता, प्राणायाम से शरीर का हल्का पन, ध्यान से सजगता व साक्षात्कार तथा समाधि से निर्लिप्त भाव की प्राप्ति होने पर मुक्ति है।
योग के विभिन्न घटकों का मानवीय व्यवहार के विभिन्न पक्षों पर पड़ने वाले प्रभावों से संबंधित कई शोध कार्य हो चुके हैं। उनमें से कुछ प्रमुख शोध कार्यों का विवेचन हम आगे कर रहे है ।
एपले, अब्राम्स तथा शेर (1989) एवं अलेक्जेंडर, ग्लेड़रलूज और रेनफोर्थ (1993) ने अपने अध्ययन में पाया कि भावातीत ध्यान के नियमित अभ्यास से प्रयोज्यों की चिंता में कमी, मादक पदार्थों के व्यसन में कमी तथा मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि हुई है | जिन (1992) ने अपने अध्ययन में ताईची गतिज ऊर्जा (Chinese Moving Meditation Taichi) के नियमित अभ्यास से मानसिक एवं संवेगात्मक तनाव के मुख्य कारण असंतुलित मनोदशा में सार्थक कमी देखी |
टॉब, स्टेनर, वेनगार्टन तथा वॉल्टन (1994) ने अपने अध्ययन में पाया कि भावातीत ध्यान के नियमित अभ्यास से व्यक्ति में अवसाद, उत्तेजना, संवेगात्मक अस्थिरता में कमी तथा कठिनाइयों का सामना करने की योग्यता में वृद्धि हुई है |
गौड़ (1998) ने बाल विद्यार्थियों की संवेगात्मक स्थिरता, बौधिक स्तर एवं भय अनुक्रियाओं पर भी प्रेक्षाध्यान अभ्यास का सकारात्मक एवं सार्थक प्रभाव देखा |
गौड़, सैनी एवं श्रीवास्तव (2002) ने प्रेक्षा-ध्यान करने वाले कैदियों के मानसिक दबावों में सार्थक कमी देखी |
भारद्वाज और जोशी (2008) ने महाविद्यालय विद्यार्थियों की स्मरण शक्ति विकास पर नाड़ी शोधन, भ्रामरी प्राणायाम और ॐ जाप का का प्रभाव देखा उन्होंने पाया की इन योग-क्रियाओ के अभ्यास से छात्रों एवम् छात्राओं की स्मरण शक्ति में वृद्धि हुई |
प्रधान और नागेंद्र (2010) ने अपने एक शोध अध्ययन में बच्चों की मानसिक एकाग्रता पर योग प्रतिपादित शवासन की विधि का सकारात्मक एवं सार्थक प्रभाव देखा |
कुमार एवं शर्मा (2017) ने खिलाड़ियों के उत्कृष्ट प्रदर्शन एवं तनाव मुक्ति हेतु हठयौगिक क्रियाओं के प्रभावों का अध्ययन किया | इसमें उन्होंने हठयौगिक क्रियाओं के अभ्यास से खिलाड़ियों के उत्कृष्ट प्रदर्शन में सकारात्मक वृद्धि तथा तनाव में कमी पाई |
उद्देश्य
इस शोध कार्य के निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य हैं-
1. विश्वविद्यालयीन छात्राओं की अष्टमनोस्थितियों का अध्ययन करना।
2. अष्टमनोस्थितियों पर यौगिक क्रियाओं के प्रभाव देखना |
3. प्राप्त आंकड़ों का सांख्यिकी विश्लेषण करना एवं वैज्ञानिक ढंग से इन के परिणामों की व्याख्या करना।
परिकल्पनाएं
1. यौगिक क्रियाओं (षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध) के 2 माह के अभ्यास का प्रायोगिक समूह (यौगिक क्रियाएं करने वाली विश्वविद्यालयीन छात्राओं) के प्रयोज्यों में नियंत्रित समूह (दैनिकचर्या वाली विश्वविद्यालयीन छात्राओं) के प्रयोज्यों की अपेक्षा अष्टमनोस्थितियों जैसे तनाव, अवसाद, प्रतिगमन, अपराध भाव, थकान, बहिर्मुखता एवम उत्तेजना में सार्थक एवं सकारात्मक सुधार होने की संभावना है।
2. यौगिक क्रियाओं (षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध) के 2 माह के अभ्यास के पश्चात प्रायोगिक समूह की छात्राओं की अष्टमनोस्थितियों में पूर्व-परीक्षण की तुलना में पश्च-परीक्षण में सार्थक सुधार होने की सम्भावना है ।
3. नियंत्रित समूह (दैनिक चर्या वाली विश्वविद्यालयीन छात्राएं) जिनको यौगिक क्रियाओं का कोई अभ्यास नहीं कराया जाएगा अतः उनकी अष्टमनोस्थितियों में 2 माह के पश्चात सार्थक सुधार होने की कम संभावना है।
अनुसंधान अभिकल्प
इस शोध कार्य में दो समूहों का निर्माण किया जाएगा यथा - प्रायोगिक समूह (यौगिक क्रियाएं करने वाली छात्राएं) नियंत्रित समूह (दैनिकचर्या करने वाली छात्राएं) प्रत्येक समूह 50 छात्राओं का होगा। जैसाकि सारणी सं.-1 में दर्शाया गया है -
तालिका 1: शोध अभिकल्प का विवरण
प्रतिदर्श
प्रयोज्यों का चुनाव:-
इस शोध कार्य के लिए उद्देश्यानुसार (purposive) 100 छात्रा प्रयोज्यों का न्यादर्श लिया गया । जिन्हें दो समूहों में विभक्त किया गया | प्रत्येक समूह में 50-50 प्रयोज्य थे । इनमे से एक समूह प्रायोगिक समूह (यौगिक क्रियाएं करने वाली छात्राएं) तथा दूसरा नियंत्रित समूह (दैनिक चर्या वाली छात्राएं) था (सारणी सं.-2) | सभी प्रयोज्यों का दो स्तरों पर परीक्षण किया गया । प्रयोज्यों की आयु शैक्षणिक स्तर, आर्थिक स्तर जहां तक संभव हो समान रखें गए |
यौगिक क्रियाएं (छात्राएं) N= 50 सामान्य दैनिकचर्या(छात्राएं) N=50
परीक्षण एवं उपकरण:- प्रस्तुत शोध कार्य के लिए निम्न मनोवैज्ञानिक परीक्षण का उपयोग किया गया |
1.अष्टमनोस्थिति प्रश्नावली का हिंदी रूपांतरण एवं भारतीय अनुकूलन कपूर एवं भार्गव (2010)
अष्टमनोस्थिति प्रश्नावली
अष्टमनोस्थिति प्रश्नावली कपूर एवं भार्गव द्वारा निर्मित है| यह प्रश्नावली कैटल एवं कुरान के परीक्षण का भारतीय अनुकूलन हिंदी रूपांतरण है| इस प्रश्नावली में व्यक्ति की अष्टमनोस्थितियों जैसे चिंता, तनाव, अवसाद, प्रतिगमन, अपराध भाव, थकान, बहिर्मुखता एवम उत्तेजना से सम्बधित प्रश्न है| यह प्रश्नावली उच्चस्तर पर विश्वसनीय व वैद्य है।
प्रक्रिया
इस शोध कार्य के लिए 100 प्रयोज्यों के न्यादर्श का चुनाव किया गया । जिनको दो समूहों में विभक्त किया गया । ये समूह हैं - प्रायोगिक समूह एवम नियंत्रित समूह। प्रत्येक समूह में 50 प्रयोज्य है | प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों को यौगिक क्रियाओं (आसन, षट्कर्म, प्राणायाम, मुद्रा एवम बंध) का नियमित अभ्यास 2 माह तक कराया गया | नियंत्रित समूह को किसी भी प्रकार का कोई भी यौगिक अभ्यास नहीं कराया गया | ये सभी अपनी दैनिकचर्या स्वाभाविक क्रम से करते रहें। दोनों समूहों के प्रयोज्यों को दिए जाने वाले यौगिक क्रियाओं से पहले मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से उनकी अष्टमनोस्थितियों का मापन किया गया | प्रयोग की यह स्थिति पूर्व परीक्षण अवस्था है | तत्पश्चात प्रायोगिक समूह को 2 माह तक यौगिक क्रियाओं का अभ्यास कराया गया जबकि नियंत्रित समूहों के प्रयोज्य अपनी नियमित दिनचर्या में प्रवृत्त रहें | दो माह बाद दोनों समूहों के प्रयोज्यों पर उपरोक्त परीक्षण किये गए | यह परीक्षण पश्च-परीक्षण है | जैसा कि सारणी सं.1 में बताया गया है |
यौगिक क्रियाओं का अभ्यास निम्न सारणी के अनुसार कराया गया |
तालिका 2: यौगिक क्रियाओं के अभ्यास की रूपरेखा
परिणाम एवं व्याख्या:- परीक्षणों से प्राप्त आकड़ों का विश्लेषण इस प्रकार किया गया –
अंतर्समुह तुलना
प्रायोगिक समूह एवं नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों का चयन एक ही प्रकार की समष्टि से किया गया है | अत: इनकी अष्टमनोस्थितियों का स्तर समान होने की सम्भावना है इसलिए इन समूहों की प्रारम्भिक तुलना द्वि- पक्षीय ‘टी’(two tail ‘t’) परीक्षण से की गई है | अत: प्रयोग पूर्व-स्थिति में इस समूह के प्रयोज्यों की अष्टमनोस्थितियों में समानता की सम्भावना कम है | ’टी’ परीक्षण के जांच की कसौटी α=or p<.05 स्तर की रखी गई है |
1. पूर्व-प्रायोगिक तुलना - प्रयोग के पूर्व दोनों समूह के प्रयोज्यों की अष्टमनोपरिस्थितियों के स्तर में समानता व् असमानता देखने के लिए यह तुलना की गई है | जैसाकि पूर्व में सपष्ट किया गया है कि इस प्रकार की तुलना में दो समूहों की आपस में तुलना की जाएगी |
(i) प्रायोगिक समूह एवं नियंत्रित समूह:
सारणी न:-4 में प्रायोगिक समूह एवं नियंत्रित समूह के मध्यमानों (M), मानक विचलनों (S.D.) और (‘टी’) मूल्यों को दर्शाया गया है | उपरोक्त सारिणी से स्पष्ट होता है कि प्रयोग पूर्व स्थिति में प्रायोगिक एवं नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों के मध्यमानों में कोई सार्थक भिन्नता नहीं है | अत: इस स्तर पर इन प्रयोज्यों की मानसिक स्थितियां समान है | दोनों समूहों के प्रयोज्यों की चिंता की मात्रा समान परन्तु उच्च स्तर की है , इनका मानसिक दबाव भी समान एवं उच्च स्तर का है तथा इनमें अवसादी क्रियाएं भी समान है परन्तु सामान्य से उच्च स्तर की है | इन दोनों समूहों के प्रयोज्यों की प्रतिगमनात्मक क्रियाएं, थकान, अपराध भाव एवं उत्तेजनात्मक क्रियाएं भी समान किन्तु सामान्य से अधिक है | इस तरह सारिणी सं 4 से यह स्पष्ट होता है कि दोनों समूहों के प्रयोज्यों की अष्टमनोपरिस्थितियां समान है |
तालिका 3: आठ भावनात्मक चरणों पर पूर्व-प्रायोगिक चरण में प्रायोगिक और नियंत्रण समूह के लिए माध्य, मानक विचलन और 't' मान (प्रत्येक के लिए N=50)
2. प्रयोग के दो माह पश्चात् तुलना : पश्च-स्थिति
(अष्टमनोस्थितियों पर यौगिक क्रियाओं का प्रभाव :सामान्य दैनिक क्रियाओं की तुलना में )-
सारिणी नं- 5 प्रायोगिक समूह एवं नियंत्रित समूह की दो माह पश्चात स्थिति के मध्यमान (M), मानक विचलन (S.D.) तथा ‘टी’ (t) मूल्यों को प्रदर्शित करती है | उक्त सारिणी के अनुसार पश्च-परीक्षण स्तर पर प्रायोगिक समूह एवम नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों की अष्टमनोपरिस्थितियों अर्थात चिंता, दबाव, अवसाद, प्रतिगमन, थकान, अपराध भाव, बहिर्मुखता aएवं उत्तेजना के मध्यमानों में सार्थक भिन्नताएँ पाई गई है | प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों में नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों की अपेक्षा दबाव क्षेत्र में p<.05 के सार्थक स्तर में कमी हुई है अर्थात विश्राम करने में असमर्थता, खिंचाव का अनुभव करना, निरन्तर विचारों से ग्रस्त रहना, असंतोषजनक प्रदर्शन में सार्थक कमी हुई है | प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों में नियंत्रित समूह की अपेक्षा चिंता के क्षेत्र में अर्थात शीघ्र क्रोधित हो जाना, तनावग्रस्तता, भावनात्मक रूप से दुखी रहना, खीझना आदि में p<.05 सार्थक स्तर पर कमी हुई है |
तालिका 4: आठ भावनात्मक अवस्थाओं पर प्रायोगिक और नियंत्रण समूह के लिए प्रायोगिक-पश्चात चरण में माध्य, मानक विचलन और ‘t’ मान (प्रत्येक के लिए N=50)
अवसाद के क्षेत्र में भी प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों में दुःख, निराशा, कमजोर मनोवृति आदि में नियंत्रित समूह की अपेक्षा p>.01 के सार्थक स्तर की कमी हुई है |
नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों की अपेक्षा प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों की प्रतिगमनात्मक क्रियाओं के क्षेत्र में भी सार्थक कमी आई है अर्थात इन प्रयोज्यों का असमंजस की स्थिति में रहना, एकाग्रता का अभाव, समस्या का समाधान करने में कठिनाई का अनुभव करना, आवेश में रहना आदि में p<.01 के सार्थक स्तर पर कमी आई है |
थकान के क्षेत्र में भी प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों में शक्तिहीनता, चिडचिडापन, असंतोषजनक कार्य निष्पति आदि में नियंत्रित समूह की अपेक्षा p<.005 के सार्थक स्तर पर कमी आई है |
नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों की अपेक्षा प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों के अपराध भावों में जैसे – स्वंय के अपराधों के लिए चिंतित रहना, दुखी रहना, अनियमित निद्रा आदि में सार्थक स्तर p<.01 पर कमी आई है |
· प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों में बहिर्मुखता के कारक में अर्थात असामाजिक व्यवहार तथा अत्यधिक बोलने की प्रवृति में नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों की अपेक्षा p<.01 के सार्थक स्तर पर कमी हुई है |
· यौगिक क्रियाएं करने वाले प्रयोज्यों में उत्तेजना के क्षेत्र में उतावलापन तथा संवेदनशीलता आदि मनोभावों में नियंत्रित समूह की अपेक्षा p<.01 के सार्थक स्तर पर कमी आई है | परिणामों से यह सपष्ट है कि यौगिक क्रियाओं के दो माह के नियमित अभ्यास से प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों की अष्टमनोस्थितियों में सार्थक एवं सकारात्मक सुधार हुआ है |
अंत:समूह की तुलना
1. अष्टमनोंस्थितियों पर यौगिक क्रियाओं का प्रभाव
(i) पूर्व – प्रायोगिक स्तर एवं पश्च-स्थिति की तुलना: सारिणी नं 6 में प्रायोगिक समूह के पूर्व–प्रायोगिक स्तर की पश्च स्थिति (दो माह पश्चात्) से तुलना को प्रस्तुत किया गया है | दोनों स्थितियों के मध्यमानों एवं सैण्ड़लर्स ‘ए’ को इस सारिणी में दर्शाया गया है |
तालिका 5: प्रायोगिक समूह के लिए पूर्व और उत्तर-प्रायोगिक के बीच माध्य और सैंडलर के 'A' मान
उपरोक्त सारिणी 6 से यह स्पष्ट है कि दो माह की यौगिक क्रियाओं के अभ्यास के पश्चात् प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों की अष्टमनोस्थितियों के सभी कारकों में अर्थात आठों कारकों में सकारात्मक और सार्थक सुधार हुआ है | इनकी अष्टमनोस्थितियों में चिंता के क्षेत्र में p<.025, दबाव क्षेत्र में p<.025, अवसाद के क्षेत्र में p<.01, प्रतिगमनात्मक क्रियाओं के क्षेत्र में p<.05, थकान के क्षेत्र में p<.01, अपराध भावों के क्षेत्र में p<.025, बहिर्मुखता के क्षेत्र में p<.05 तथा उत्तेजनात्मक क्रियाओं के क्षेत्र में p<.01 स्तर की सार्थक कमी हुई है | परिणामों से यह पता चलता है कि ये प्रयोज्य अपनी पूर्व-प्रायोगिक अवस्था की अपेक्षा दो माह के यौगिक क्रियाओं के अभ्यास के बाद (पश्च-स्थिति) मानसिक रूप से सुदृढ हुए है | इनकी चिंता आदि कारकों में कमी यह बताती है कि यौगिक क्रियाओं के अभ्यास से इनकी आन्तरिक शक्ति, अंतर्दृष्टि, माधुर्यता एवं शांति में वृद्धि हुई है|
3. अष्टमनोस्थितियों पर 2 माह की दैनिक सामान्य क्रियाओं का प्रभाव -
सारिणी नं.7 नियंत्रित समूह जिनको यौगिक क्रियाओं का कोई अभ्यास नहीं कराया गया उनके पूर्व परीक्षण व् दो माह पश्चात् पश्च परीक्षण में छात्राओं की अष्टमनोस्थितियों में कोई सार्थक भिन्नता नहीं है | अर्थात दोनों स्थितियों में अष्टमनोस्थितियों की मात्रा समान है | उक्त परिणामों से यह स्पष्ट होता है कि सामान्य दैनिक क्रियाओं का अष्टमनोस्थितियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा |
तालिका 6: नियंत्रण समूह के लिए भावनात्मक अवस्थाओं पर पूर्व और पश्चात-प्रयोगात्मक चरणों के बीच माध्य और सैंडलर के 'A' मान (प्रत्येक के लिए N=5o)
चर्चा एवं निष्कर्ष
इस शोध कार्य के प्राप्त परिणामों से यह बात स्पष्ट होती है कि यौगिक क्रियाओं के नियमित 2 माह के अभ्यास से छात्राओं की अष्टमनोस्थितियों में सार्थक एवं सकारात्मक परिवर्तन हुए है | इस शोध कार्य में अष्टमनोस्थितियों के मुख्य चार कारकों को यथा – चिंता, दबाव, अवसाद एवं अपराध भाव को वांछित कारकों के रूप में लिया गया और इन चारों कारकों पर यौगिक क्रियाओं का सकारात्मक प्रभाव पड़ा | इनके अतिरिक्त अन्य चार कारकों यथा – प्रतिगमनात्मक क्रियाओं, थकान, बहिर्मुखता तथा उत्तेजनात्मक क्रियाओं पर भी यौगिक क्रियाओं का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है | ध्यान के पूर्व शोध अध्धयनों में भी इसी प्रकार के परिणाम देखे गए है |
रोस, बालू, कनिंघम, तथा कोच, चाइल्डस, ब्लूमफील्ड नटराज एवं राधामनी, फर्ग्युसन, भारद्वाज, उपाध्याय एवं गौड, बूक्स स्केरनो, डेविस तथा अलेक्जेंडर, रॉबिन्सन, आर्मेजॉनसन, स्केनिड़र एवं वाल्टर आदि शोधकर्त्ताओं के शोध कार्यों के परिणाम इस शोध के परिणामों के समान है | रोस (1972) ने ध्यान करने वाले अभ्यर्थियों में चिंताओं में तथा मन:स्तापी क्रियाओं में कमी देखी | बालू (1973) कनिंघम तथा कोच (1973) ने भी भावातीत ध्यान करने वाले कैदियों की चिंताओं एवं हिंसक क्रियाओं में सार्थक कमी देखी | चाइल्ड (1973) ने ध्यान करने वाले बल अपराधियों की चिंताओं में सार्थक कमी देखी | ब्लूमफील्ड (1975) ने भी ध्यान करने वाले व्यक्तियों की अवसादी व् व्यामोही क्रियाओं में कमी देखी | नटराज एवं राधामनी (1975) और फर्ग्युसन (1978) ने ध्यान करने वाले व्यक्तियों की मानसिक क्रियाओं में सुधार देखा | फर्ग्युसन (1978) ने ध्यान से लोगों में आक्रामक व्यवहार, चिडचिडापन, नकारात्मक प्रवृति, द्वेष भावना तथा आपराधिक भावनाओं में व्यापक सार्थक सुधार देखा | बूक्स तथा स्केरनो (1986) ने भी ध्यान करने वाले अभ्यार्थियों में अवसादी क्रियाओं, चिंताओं, अनिद्रा तथा तनाव के लक्षणों में सार्थक कमी देखी | डेविस (1986) तथा अलेक्जेंडर, रॉबिन्सन, आर्मेजॉनसन, स्केनिड़र एवं वाल्टर (1993) ने भी अपने शोध अध्ययनों में चिंता, अवसाद एवं तनाव जैसे कारकों में सार्थक कमी देखी |
प्रेक्षाध्यान पर पूर्व में हुए कतिपय शोध कार्यों के परिणाम भी इस शोध कार्य के परिणामों के समान है | गौड़ एवं सैनी (2002) ने अपने एक अध्ययन में चिंताओं और छ: प्रकार की व्यथाओं में एक माह के प्रेक्षाध्यान के अभ्यास से सार्थक कमी देखी | गौड़, सैनी एवं श्रीवास्तव (2002) ने कैदियों की चिंताओं, मनोग्रसित-बाध्यता, अवसादी, रूपांतरित क्रियाओं, स्नायुदौर्बलता, सामाजिक अंतर्मुखता तथा मनोदैहिक समस्याओं में प्रेक्षाध्यान के अभ्यास का व्यापक सकारात्मक प्रभाव देखा | गौड़ एवं शर्मा (2003) ने भी कैदियों के व्यक्तित्व कारकों एवं मानसिक स्वास्थ्य में प्रेक्षाध्यान के अभ्यास से सुधार पाया | ये सभी परिणाम इस शोध की पुष्टि करते है | प्राप्त परिणाम पूरी तरह से चिंता, दबाव, अवसाद और अपराध भाव संबंधित परिकल्पनाओं की पुष्टि करते है |
निष्कर्ष:- यौगिक क्रियाएँ छात्राओं की भावनात्मक अष्टमनोस्थितियों में सुधार लाने की प्रभावी क्रियाएँ है | इनमें षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध प्रभावी क्रियाएँ है | जिनका अभ्यास करने से प्रायोज्यों की अष्टमनोस्थितियों में सकारात्मक प्रभाव हुआ है | यौगिक क्रियाओं के अधिक अभ्यास से अधिक लाभ मिलता है |