परिचय

बाल श्रम भारत जैसे उभरते हुए विकासशील राष्ट्र की सामाजिक संरचना में व्याप्त एक गंभीर समस्या है। जब बच्चे अपने बचपन में शिक्षा, खेल और विकास की संभावनाओं के बजाय मजदूरी, शारीरिक परिश्रम और शोषण का सामना करते हैं, तो वह न केवल उनके व्यक्तिगत भविष्य बल्कि राष्ट्र की उत्पादकता और मानवीय गरिमा को भी क्षति पहुँचाता है। बाल श्रमिक वे बच्चे होते हैं जो 14 या 18 वर्ष से कम आयु में, पूर्णकालिक अथवा अंशकालिक रूप से कार्य करते हैं, चाहे वह कृषि क्षेत्र, निर्माण कार्य, घरेलू कार्य, होटलों, कारखानों या खदानों में हो। यह स्थिति बच्चों के संपूर्ण विकास में बाधा उत्पन्न करती है और संविधान में प्रदत्त उनके मौलिक अधिकारों के भी विपरीत है।

समस्या की पृष्ठभूमि

भारत में बाल श्रम की जड़ें ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों में निहित हैं। औपनिवेशिक काल में औद्योगिक उत्पादन में बच्चों का उपयोग सस्ते श्रमिक के रूप में किया गया, और यह प्रवृत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अनेक रूपों में जारी रही। गरीबी, अशिक्षा, परिवार की बड़ी आकार संरचना, सामाजिक असमानता, बाल विवाह और सामाजिक जागरूकता की कमी ने इस प्रवृत्ति को और अधिक स्थायी बना दिया। बाल श्रमिकों की उपस्थिति ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में देखी जाती है, जहाँ वे कृषि, निर्माण, घरेलू श्रम, ईंट भट्टे, खनन, छोटे व्यापारिक प्रतिष्ठानों और अन्य असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत पाए जाते हैं।

अध्ययन की आवश्यकता

बाल श्रम का प्रश्न केवल नीति या कानून का नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, प्रशासनिक इच्छाशक्ति और सामूहिक जिम्मेदारी का भी है। यद्यपि सरकार और विभिन्न संस्थानों द्वारा अनेक उपाय अपनाए गए हैं, किंतु बाल श्रम की जमीनी स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। इसलिए यह अध्ययन आवश्यक है ताकि यह जाना जा सके कि बाल श्रमिकों की समस्याएं क्या हैं, वर्तमान योजनाएँ कितनी कारगर हैं, और किन स्तरों पर ठोस हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह शोध इस दिशा में एक योगदान प्रस्तुत करता है कि भविष्य में बाल श्रम उन्मूलन के लिए ठोस रणनीतियाँ विकसित की जा सकें।

उद्देश्य

  • भारत में बाल श्रमिकों की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करना।
  • बाल श्रमिकों की प्रमुख समस्याओं की पहचान करना।
  • सरकारी नीतियों एवं अधिनियमों की प्रभावशीलता का परीक्षण करना।
  • ग़ैर-सरकारी संगठनों की भूमिका और कार्यों की समीक्षा करना।
  • बाल श्रम के उन्मूलन हेतु नीतिगत सुझाव प्रस्तुत करना।

समीक्षा साहित्य

ILO और यूनिसेफ की रिपोर्टों में विकासशील देशों में शिक्षा की कमी और सामाजिक सुरक्षा की कमजोर स्थिति को इसके प्रमुख कारणों में गिना गया है। भारत में NSSO और जनगणना रिपोर्टों से स्पष्ट होता है कि कई बच्चे विद्यालय छोड़ श्रम कार्यों में लग जाते हैं। मायरोन वीनर (1991) ने शिक्षा प्रणाली की विफलता को बाल श्रम के विस्तार का कारण बताया, वहीं कैलाश सत्यार्थी ने इसे मानवाधिकार हनन मानते हुए सामाजिक जागरूकता पर बल दिया। जाँ द्रेज़ और अमर्त्य सेन (2013) ने सामाजिक असमानता और भेदभाव को इसकी जड़ में बताया, जबकि कौशिक बसु ने शिक्षा को अनिवार्य बनाए जाने और आर्थिक प्रोत्साहन की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। समग्रतः यह समीक्षा संकेत देती है कि बाल श्रम उन्मूलन केवल कानून से नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक-शैक्षिक हस्तक्षेपों से ही संभव है।

शोध पद्धति

यह शोध एक विवेचनात्मक  और आलोचनात्मक  प्रकृति का है, जिसमें भारत में बाल श्रमिकों से संबंधित मुख्य समस्याओं का अध्ययन किया जाएगा और उनके निदान के उपायों का विश्लेषण किया जाएगा। अध्ययन का मुख्य आधार द्वितीयक डेटा पर आधारित है, जिसमें विभिन्न स्रोतों से जानकारी एकत्र की जाएगी। इन स्रोतों में प्रमुख रूप से पुस्तकें, शोध पत्र, शैक्षिक जर्नल, रिपोर्टें, सरकारी दस्तावेज, शैक्षिक वेबसाइटें और विश्वसनीय ऑनलाइन स्रोत शामिल हैं। डेटा संग्रहण के लिए इन स्रोतों से संबंधित जानकारी को संकलित, समीक्षा और विश्लेषित किया जाएगा, ताकि बाल श्रमिकों की मुख्य समस्याओं का व्यापक और सटीक विवरण प्रस्तुत किया जा सके। विश्लेषण के दौरान, इन समस्याओं का कारण, प्रभाव और वर्तमान उपायों का मूल्यांकन किया जाएगा, साथ ही उनमें मौजूद कमियों और सुधार के संभावित उपायों पर भी विचार किया जाएगा। इस प्रक्रिया में, संबंधित विषय के विशेषज्ञों की राय और पूर्व अध्ययन भी शामिल किए जाएंगे, ताकि निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय और सटीक हो।

भारत में बाल श्रमिकों की वर्तमान स्थिति

भारत में बाल श्रम आज भी एक गंभीर सामाजिक चुनौती के रूप में विद्यमान है, भले ही इसके उन्मूलन के लिए वर्षों से प्रयास किए जा रहे हैं। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा समय-समय पर प्रस्तुत की गई रिपोर्टों में यह दर्शाया गया है कि भारत की एक बड़ी जनसंख्या अभी भी इस समस्या से प्रभावित है, विशेषकर आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में। राष्ट्रीय आँकड़ों के अनुसार, 2011 की जनगणना में भारत में लगभग 1 करोड़ 30 लाख (13 मिलियन) बाल श्रमिकों की उपस्थिति दर्ज की गई थी, जिनमें अधिकांश बच्चे 5 से 14 वर्ष की आयु सीमा के अंतर्गत थे। इन आँकड़ों में यह पाया गया कि बाल श्रम ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है, जहाँ बच्चे कृषि, पशुपालन, ईंट भट्ठों, और घरेलू कार्यों में संलग्न पाए गए। वहीं शहरी क्षेत्रों में बच्चे चाय की दुकानों, छोटे उद्योगों, घरेलू नौकरियों, निर्माण स्थलों और होटल-ढाबों में कार्यरत हैं। हालाँकि सरकार ने 2021 में Child Labour Report प्रस्तुत नहीं की है, लेकिन अनेक सामाजिक संगठनों द्वारा जुटाए गए अनौपचारिक आँकड़े यह बताते हैं कि कोविड-19 महामारी के बाद बाल श्रम की स्थिति और अधिक चिंताजनक हो गई है। सामाजिक और आर्थिक संदर्भ में देखा जाए तो बाल श्रम की समस्या केवल आर्थिक अभाव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संरचना, शिक्षा की उपेक्षा, और श्रम के प्रति समाज की मानसिकता से भी जुड़ी हुई है। कई परिवारों में बाल श्रम को आजीविका के पूरक साधन के रूप में देखा जाता है। इसके पीछे ग़रीबी, अशिक्षा, परिवार का आकार, माता-पिता की बेरोजगारी, तथा सामाजिक सुरक्षा के अभाव जैसे कारण प्रमुख रूप से उत्तरदायी हैं। साथ ही, कई क्षेत्रों में बालकों के अधिकारों की जानकारी का अभाव तथा कानूनों के क्रियान्वयन की कमी भी इस समस्या को बढ़ावा देती है। विशेष रूप से यह देखा गया है कि दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों से आने वाले बच्चे अधिक संख्या में श्रम में संलग्न होते हैं। बालिकाओं की स्थिति और भी गंभीर है, जो घर के भीतर और बाहर दोनों ही प्रकार के श्रम में सम्मिलित होती हैं। कई बार वे शारीरिक शोषण और भावनात्मक प्रताड़ना का भी शिकार होती हैं। इस प्रकार, भारत में बाल श्रमिकों की वर्तमान स्थिति सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत पहलुओं से अत्यंत जटिल और संवेदनशील बनी हुई है, जो न केवल बच्चों के विकास में बाधक है, बल्कि देश की सामाजिक और नैतिक संरचना के लिए भी एक चुनौती प्रस्तुत करती है।

बाल श्रमिकों की प्रमुख समस्याएं

भारत में बाल श्रमिकों को अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है जो न केवल उनके व्यक्तिगत विकास में बाधक हैं, बल्कि उनके मानवाधिकारों का भी उल्लंघन करती हैं। ये समस्याएं बहुआयामी हैं| शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर।

शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण बाल श्रमिकों की सबसे गंभीर समस्या है। अक्सर देखा गया है कि बच्चे अत्यंत कठिन परिस्थितियों में लंबे समय तक कार्य करते हैं, जिनमें से अधिकांश कार्य खतरनाक होते हैं| जैसे कि ईंट-भट्टों में, निर्माण स्थलों पर, कारखानों में रसायनों के संपर्क में, या गर्म धूप में सड़क किनारे कार्य करना। पर्याप्त आराम, पौष्टिक भोजन और सुरक्षा उपकरणों की अनुपस्थिति उनके स्वास्थ्य को अत्यधिक प्रभावित करती है। मानसिक स्तर पर बच्चों को अक्सर डांट, तिरस्कार, भय, असुरक्षा और अपमान का सामना करना पड़ता है, जिससे उनमें आत्मग्लानि, निराशा और असंतोष की भावना उत्पन्न होती है। आर्थिक रूप से ये बच्चे अत्यधिक कम वेतन पर काम करने के लिए विवश होते हैं, जिससे उनका शोषण होता है और वे गरीबी के चक्र से बाहर नहीं निकल पाते।

शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति बाल श्रमिकों के जीवन में सबसे उपेक्षित पक्ष होता है। अधिकांश बाल श्रमिक औपचारिक शिक्षा से वंचित रहते हैं, और जो कभी स्कूल गए भी होते हैं वे समय की कमी या पारिवारिक दबाव के कारण पढ़ाई छोड़ देते हैं। शिक्षा के अभाव में वे सामाजिक परिवर्तन और व्यक्तिगत प्रगति से कट जाते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से, बाल श्रमिकों को प्रायः कुपोषण, त्वचा संबंधी रोग, श्वसन संक्रमण, और अन्य पुरानी बीमारियों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे गंदे, असुरक्षित और प्रदूषित वातावरण में कार्य करते हैं। चिकित्सा सुविधा तक उनकी पहुँच न के बराबर होती है।

सामाजिक बहिष्कार और मानवीय अधिकारों का उल्लंघन भी बाल श्रमिकों के जीवन का एक सच्चा पहलू है। समाज उन्हें 'छोटे काम' करने वाला समझ कर हेय दृष्टि से देखता है, जिससे उनका आत्मसम्मान प्रभावित होता है। सामाजिक समावेशन की प्रक्रियाओं से वे बहिष्कृत रहते हैं| उन्हें समान अवसर, समान व्यवहार और सामाजिक समर्थन नहीं मिल पाता। उनके बाल अधिकार जैसे शिक्षा का अधिकार, सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार, संरक्षण का अधिकार आदि का नियमित उल्लंघन होता है।

सरकारी नीतियाँ और कानून

भारत सरकार ने बाल श्रम को समाप्त करने और बच्चों को सुरक्षित, शिक्षित और गरिमामय जीवन प्रदान करने हेतु अनेक कानूनों और नीतियों की स्थापना की है। इनका उद्देश्य न केवल बाल श्रम को प्रतिबंधित करना है, बल्कि बच्चों के समग्र विकास को सुनिश्चित करना भी है।

बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 (संशोधित 2016 में) यह अधिनियम भारत में बाल श्रम से संबंधित सबसे प्रमुख कानून है। प्रारंभिक रूप से यह अधिनियम बच्चों को खतरनाक व्यवसायों में काम करने से रोकता था, लेकिन 2016 में किए गए संशोधन के बाद, यह अधिनियम 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी भी प्रकार के कार्य में नियुक्त करने पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाता है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE Act) यह अधिनियम 6 से 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का अधिकार सुनिश्चित करता है। इस अधिनियम का उद्देश्य बच्चों को शिक्षा की ओर आकर्षित करना और उन्हें स्कूल से बाहर काम में संलग्न होने से रोकना है। यह अधिनियम बाल श्रम उन्मूलन के अभियान में एक सकारात्मक कदम रहा है, परंतु इसके क्रियान्वयन में अभी भी कई व्यावहारिक चुनौतियाँ विद्यमान हैं।

राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (NCLP), 1988 सरकार द्वारा चलाया गया यह कार्यक्रम उन जिलों में लागू किया जाता है जहाँ बाल श्रम की अधिकता पाई जाती है। इसका उद्देश्य कार्यरत बालकों को पुनर्वास केंद्रों में शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य सेवा और व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराना है।

अन्य प्रमुख योजनाएं और कानून

संविधान का अनुच्छेद 21(A): सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार देता है।

अनुच्छेद 24: 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को खतरनाक कार्यों में नियुक्ति से रोकता है।

POSCO अधिनियम, 2012: बच्चों के यौन शोषण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है।

किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015: शोषित या उपेक्षित बच्चों के पुनर्वास की व्यवस्था करता है।

ग़ैर-सरकारी संगठनों की भूमिका

भारत में बाल श्रम जैसी गहन सामाजिक समस्या से निपटने में ग़ैर-सरकारी संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और परिवर्तनकारी रही है। ये संगठन केवल बच्चों की मुक्ति या पुनर्वास तक सीमित नहीं रहते, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, कानूनी संरक्षण, और सामाजिक पुनर्संरचना जैसे विविध आयामों में भी ठोस हस्तक्षेप करते हैं। बचपन बचाओ आंदोलन, चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन, प्रयास, सेव द चिल्ड्रन, और क्राई जैसी संस्थाएँ न केवल बच्चों को बंधुआ मज़दूरी, घरेलू शोषण या बाल श्रम से मुक्त कर मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती हैं, बल्कि जनजागरूकता अभियानों, विधिक कार्यवाहियों, और प्रशासनिक दबाव के माध्यम से व्यापक सामाजिक चेतना का निर्माण भी करती हैं। इन संगठनों द्वारा संचालित अस्थायी आश्रय गृह, अनौपचारिक शिक्षा केंद्र, व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम और परामर्श सेवाएँ बच्चों के सर्वांगीण पुनर्वास को संभव बनाती हैं। इन प्रयासों को सशक्त बनाने के लिए सरकार, समाज और नीति निर्माताओं का सहयोग अत्यावश्यक है, ताकि बाल श्रम जैसी गहरी सामाजिक चुनौती का स्थायी समाधान सुनिश्चित किया जा सके।

निवारण के उपाय

बाल श्रम जैसी सामाजिक विकृति को केवल क़ानूनी निषेधों से समाप्त नहीं किया जा सकता; इसके लिए बहुस्तरीय प्रयास, सामाजिक जागरूकता, और संस्थागत प्रतिबद्धता आवश्यक होती है। इस खंड में विभिन्न स्तरों पर अपनाए जा सकने वाले निवारक उपायों पर चर्चा की गई है।

1. नीतिगत सुधार और प्रशासनिक कड़ाई

सरकार द्वारा बनाए गए बाल श्रम निषेध अधिनियमों को ज़मीनी स्तर पर लागू करने में अब भी अनेक खामियाँ बनी हुई हैं। अतः सुझाव दिए जाते हैं कि बाल श्रम कानूनों को सख़्ती से लागू किया जाए। निगरानी तंत्र को मज़बूत किया जाए। स्थानीय प्रशासन, श्रम विभाग और पुलिस को सामूहिक रूप से उत्तरदायी बनाया जाए कि वे बाल श्रम के मामलों में शीघ्र और ठोस कार्रवाई करें। मज़दूर बस्तियों, निर्माण स्थलों और असंगठित क्षेत्रों में निरीक्षणों की आवृत्ति बढ़ाई जाए। अपराधियों के लिए दंडात्मक प्रावधानों का प्रभावी कार्यान्वयन हो।

2. शिक्षा और कौशल विकास को बढ़ावा

शिक्षा ही बाल श्रम के सबसे प्रभावी समाधान के रूप में उभरी है। इसके अंतर्गत:

सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा उपलब्ध कराई जाए। मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति, किताबें और यूनिफॉर्म जैसी सुविधाएँ उपलब्ध करवाकर बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित किया जाए। स्कूल ड्रॉपआउट बच्चों के लिए पुनः प्रवेश कार्यक्रम चलाए जाएँ। किशोरों के लिए कौशल प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए जाएँ, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकें।

3. समाज में जागरूकता और मानसिकता में परिवर्तन

बाल श्रम की मूल जड़ केवल गरीबी नहीं, बल्कि सामाजिक असंवेदनशीलता और जागरूकता की कमी भी है। अतः जन जागरूकता अभियानों के माध्यम से यह संदेश फैलाया जाए कि बाल श्रम कराना या सहन करना अपराध है। मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ता, विद्यालय, और स्थानीय पंचायतें मिलकर नियमित संवाद, रैलियाँ और नुक्कड़ नाटक आदि आयोजित करें। व्यवसायियों और उद्यमियों को बाल श्रमिकों को न रखने के लिए प्रेरित और शिक्षित किया जाए। सामाजिक संस्थानों में बाल श्रम के मुद्दे पर सामूहिक चर्चा और विमर्श को बढ़ावा मिले।

4. आर्थिक सशक्तिकरण और सामाजिक संरक्षण

बाल श्रम प्रायः परिवार की आर्थिक विवशता के कारण होता है। अतः गरीब परिवारों को वित्तीय सहायता, रोज़गार गारंटी, और स्व-सहायता समूहों के ज़रिए सक्षम बनाया जाए। महिलाओं को स्वरोज़गार से जोड़कर परिवार की आर्थिक निर्भरता बच्चों पर से हटाई जा सकती है। बच्चों के लिए समाज कल्याण योजनाओं, जैसे बाल विकास कार्यक्रम, किशोरी योजना आदि को बेहतर क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाए।

5. ग़ैर-सरकारी संगठनों और जनसहभागिता को प्रोत्साहन

सरकार अकेले इस चुनौती से नहीं निपट सकती। अतः NGOs, स्वयंसेवी संस्थाएँ, और समुदाय-आधारित संगठनों को सरकार के साथ साझेदारी मॉडल में काम करने की अनुमति और प्रोत्साहन मिले। इन संगठनों को वित्तीय संसाधन, क़ानूनी संरक्षण, और प्रशासनिक समर्थन प्रदान किया जाए।

निष्कर्ष

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में बाल श्रम एक गहन सामाजिक चुनौती के रूप में विद्यमान है, जिसकी जड़ें आर्थिक विषमता, सामाजिक असमानता, शिक्षा की कमी और संवेदनहीन मानसिकता में गहराई तक फैली हुई हैं। इस शोध के माध्यम से यह स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आया है कि बाल श्रम केवल एक आर्थिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक बहुआयामी सामाजिक समस्या है जो एक बच्चे के जीवन, उसकी शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यक्तित्व विकास और मानवाधिकारों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। शोध के दौरान यह देखा गया कि बाल श्रमिक बच्चों को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण का सामना करना पड़ता है। वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं और उन्हें अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही श्रम के बोझ तले दबा दिया जाता है। अधिकांश बच्चे निर्माण स्थलों, घरेलू कार्यों, दुकानों, फैक्ट्रियों और खेतों में असुरक्षित और अस्वस्थ वातावरण में काम करने को विवश हैं, जहाँ उनके अधिकारों की कोई सुरक्षा नहीं होती। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूल अधिकारों तक उनकी पहुँच अत्यंत सीमित होती है, जिससे उनके समग्र विकास की संभावनाएँ बाधित होती हैं। सरकारी प्रयासों की दृष्टि से देखा जाए तो भारत में बाल श्रम के उन्मूलन हेतु समय-समय पर अनेक कानून और योजनाएँ बनाई गई हैं |  जैसे बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, शिक्षा का अधिकार अधिनियम, और विभिन्न पुनर्वास योजनाएँ। फिर भी, ज़मीनी स्तर पर इनका क्रियान्वयन संतोषजनक नहीं है। सामाजिक जागरूकता की कमी, प्रशासनिक उदासीनता और आर्थिक विवशता के कारण बाल श्रम की समस्या निरंतर बनी हुई है। इसके अतिरिक्त, ग़ैर-सरकारी संगठनों द्वारा किए जा रहे कार्य उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने न केवल अनेक बच्चों का जीवन बदला है, बल्कि समाज में जागरूकता और संवेदना भी उत्पन्न की है। उनके द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा और पुनर्वास केंद्र, जागरूकता अभियान, और समुदाय सहभागिता कार्यक्रमों से सकारात्मक परिवर्तन की संभावनाएँ स्पष्ट होती हैं। इस अध्ययन से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है, जब तक कि सामाजिक स्तर पर मानसिकता में परिवर्तन न हो। बाल श्रम के उन्मूलन के लिए परिवार, समाज, स्कूल, सरकार और स्वयंसेवी संस्थानों को मिलकर कार्य करना होगा। शिक्षा को आकर्षक, उपयोगी और सुलभ बनाना, बच्चों के माता-पिता को आर्थिक रूप से सक्षम बनाना, और बच्चों को कौशल प्रशिक्षण देना इस दिशा में निर्णायक उपाय सिद्ध हो सकते हैं। अतः कहा जा सकता है कि भारत में बाल श्रम की समस्या का समाधान बहुआयामी, दीर्घकालिक और समावेशी दृष्टिकोण से ही संभव है। जब तक हम समाज के प्रत्येक वर्ग को इस परिवर्तन में भागीदार नहीं बनाते, तब तक कोई भी नीति या कानून प्रभावी नहीं हो सकता। बच्चों को उनका बचपन लौटाना न केवल एक नैतिक कर्तव्य है, बल्कि यह भारत के उज्ज्वल भविष्य की बुनियाद भी है।