प्रस्तावना

प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली ज्ञान परंपराएँ और प्रथाएँ मानवता को प्रोत्साहित करती थी। पुराण में ज्ञान को अप्रतिम माना गया है। भारत के तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला वल्लभी, उज्जयिनी, काशी आदि विश्व प्रसिद्ध शिक्षा एवं शोध के प्रमुख केंद्र थे तथा यहां कई देशों के शिक्षार्थी ज्ञानार्जन के लिए आते थे। रामकाव्य मूलतः इसी समन्वय भावना के कारण मानवतावादी माना जाता है। व्यक्ति, परिवार और समाज तथा भोग और त्याग का समन्वय करके सम्पूर्ण मानव जाति तथा उसके चिंतन को एक ही धरातल पर प्रस्तुत कर सही अर्थों में मानवतावाद की स्थापना करने का प्रयास किया है।

रामकाव्य धारा के अंतर्गत तुलसीदास जी ने समस्त चर अचर प्राणियों एवं सम्पूर्ण मानव जीवन को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया है जो आज भी प्रासंगिक है।

भारतीय ज्ञान परंपरा एवं राम काव्य

भारत के संदर्भ में कहा जाता है- "प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल में प्राकृतिक संपदा, कृषि और गोवंश थे। प्राकृतिक संपदा के रूप में हमारे पास नदियों के अक्षय भण्डार के रूप में शुद्ध और पवित्र जल स्त्रोत थे। हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की जैव विविधता वाली जलवायु थी। मसलन मामूली सी कोशिश आजीविका के लायक पौष्टिक खाद्य सामग्री उपलब्ध करा देती थी। इसीलिए नदियों के किनारे और वन प्रांतरों में मानव सभ्यता और भारतीय संस्कृति विकसित हुई। भोजन की उपलब्धता सुलभ हुई तो सृजन की ओर चिंतन के पुरोधा सृष्टि के रहस्यों की तलाश में जुट गए। आर्थिक संसाधनों को समृद्ध बनाने के लिए ऋषि-मुनियों ने नये-नये प्रयोग किए।"1 ऋषि-मुनियों ने जब जीवन और जगत को लेकर नए प्रयोग किए, नए अनुभव प्राप्त किए, उन्हें शास्त्रार्थ की तार्किकता के माध्यम से सत्य-असत्य और उपयोग अनुपयोग की कसौटियों पर कसकर मानव हित में रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है। शास्त्रार्थ भी भारतीय ज्ञान के तार्किक, तुलनात्मक, विश्लेषणात्मक व शोधपरक दृष्टि का परिचायक है। ऋषि और मुनि मंत्रदृष्टा मात्र नहीं रहे हैं वरन् उन्होंने विद्योपदेश के माध्यम से जन सामान्य तक ज्ञान को प्रेषित करने में अहम् भूमिका निभाई है। "ज्ञान, सदाचार, कलाएं जो कुछ साहित्य के विविध रूपों में विद्यमान है उनके हम प्राचीन विद्वानों और ऋषि मुनियों के प्रति कृतज्ञ हैं। उन्हीं की कृपा से आज हमको श्रुति, स्मृति, वेदांग चौसठ महाविद्या और कलाओं के मूल तथ्यों का ज्ञान हो सकता है और कम से कम उनके अस्तित्व का पता लग सकता है। यह समस्त साहित्य देववाणी अथवा संस्कृति में प्रकट किया गया है परंतु ज्ञान की परंपरा में किसी विशेष भाषा या उसके विशेष रूप का बंधन नहीं है। भगवान बुद्ध और जैन आचार्यों ने पाली, मागधी आदि प्राकृत भाषाओं का आश्रय लिया और उनकी परंपरा भी आज तक चली आ रही है। हिंदी, बंगला, मराठी, गुजराती, उड़िया, तैलंगी, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, आसमी आदि आजकल की प्रचलित प्राकृत भाषाएं हैं।

जिनमें संत, महात्मा, सुधारकों ने सदाचार की शिक्षा देकर अपनी परंपरा को स्थिर रखा है।"2 रामकाव्य परंपरा - वाल्मीकि की प्रतिभा ने रामकाव्य को ऐसा चिताकर्षण तथा मर्म स्पर्शी रूप प्रदान किया था कि आगे चलकर भारत की काव्यधारा रामकथा को लेकर चलती रही इसके अतिरिक्त निकटवर्ती देशों में भी प्रचुर मात्रा में रामकाव्य की सृजना हुई। रामकाव्य परंपरा में रामकथा को आधार बनाकर बौद्ध तथा जैन साहित्य संस्कृत, प्राकृत अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य और विदेशी साहित्य में रामकाव्य को आधार बनाकर साहित्य सृजन किया गया है। बौद्धों ने कई शताब्दियों पूर्व राम को बोधिसत्व मानकर राम को अपने जातक साहित्य में स्थान दिया है। इस प्रकार 'दशरथ जातक' 'अनामक जातकम्' तथा दशरथ कथनम् ये तीन जातक उत्पन्न हुए। इसका मूल स्त्रोत सम्भवतः रामकथा की लोकप्रियता घटने लगी अतः अर्वाचीन बौद्ध साहित्य में रामकथा का अभाव होने लगा। बौद्धों की भांति जैन साहित्य में भी रामकथा को मुख्यतः अपनाया गया। जैन साहित्य में इसकी लोकप्रियता शताब्दियों तक बनी रही। जिसके फलस्वरूप एक अत्यन्त विस्तृत रामकाव्य की सृष्टि जैन साहित्य में हुई। विमलसूरि ने सर्वप्रथम तीसरी शताब्दी में पउमचरिउ (प्राकृत) लिखकर रामकथा को जैन धर्म के सांचे में ढालने का प्रथम प्रयास किया। इसका संस्कृत रूपातंरण रविषेण ने सन् 600 ई में किया था। जो पदमचरित के नाम से प्रसिद्ध है। हिंदी, खड़ी बोली के गद्य के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। आगे चलकर जैन कवियों ने रविषेण के आधार पर रामकाव्य की रचना की है। कालिदास कृत रघुवंश में रामचरित के अतिरिक्त अन्य रघुवंशीय राजाओं का चरित्र चित्रण वर्णित है फिर भी राम को इस महाकाव्य का प्रधान नायक माना जा सकता है। कालिदास ने कथा में कोई महत्वपूण परिवर्तन नहीं किया, फिर भी उनकी प्रतिभा ने एक मौलिक युक्ति द्वारा उनको वाल्मीकि के अन्धानुकरण से बचा लिया है- "---अयोध्या लौटते समय राम पुष्पक पर बैठकर सीता को वनवास के स्थल दिखलाते हैं और अतीत के सुख दुःख का स्मरण दिलाकर रामकथा की कथावस्तु का एक मर्मस्पर्शी, करुण रस से ओत-प्रोत चित्र प्रस्तुत करते है।"3 रामानंद जी राघवानंद जी दीक्षा ली थी। इन्होंने रामावत सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया स्वामी रामानंद ने वर्णाश्रम धर्म में आस्था रखते हुए भी भक्ति को सभी वर्णों के लिए आवश्यक माना है। उन्होंने पुनः हिंदू धर्म में वापिस लौटने के लिए रामतारक मंत्र दिया। निम्न जातियों के अनेक भक्तों को अपना शिष्यत्व प्रदान कर उन्होंने भक्ति के प्रवाह को तीव्र बनाया। रामानंद के शिष्यों में (परंपरा) कबीर व तुलसीदास प्रसिद्ध हैं। कबीर ने रामकाव्य को अपनाते हुए भी रामानंद सम्मत अवतारी राम स्वरूप को ग्रहण नहीं किया है। रामानंद द्वारा रचित आरती अत्यधिक प्रसिद्ध हुई है-

"आरती कीजै हनुमान लला की दुष्ट दलन रघुनाथ कला की

जाकै बल से गिरिवर कांपै, रोग दोष जाकै निकट ना आवै

लंक विध्वंस किये रघुराई रामानंद आरती गाई

सुर, नर, मुनि सब करहि आरती जै जै जै हनुमान लला की ।।"4

तुलसी के समय लगभग सम्पूर्ण भारत पर मुगलों का शासन था। भारत की दीन-हीन जनता हताशा-निराशा के एक ऐसे अंधकार में जकड़ी हुई थी जिससे बाहर आना मुश्किल था इन सब परिस्थितियों के बीच एक ऐसे महाकवि का उन्नयन होता है जो न केवल भारतीयों के हृदय से निराशा का भाव समाप्त करता है बल्कि उन्हें उपासना के लिए ऐसा विराट व आदि चरित्र देता है जो वर्तमान समय में भी उतने ही उदार रूप से लोगों के हृदय मन पर अंकित है जितना उनके समकालीन था। तुलसी साहित्य में हमें समाज सुधार उनके समय की देश दशा, सामंत विरोधी तत्व, ब्राहाणत्व विरोधी धाराएँ आदि सभी मानवतावादी दृष्टि देखने को मिलते हैं। 'कवितावली में तुलसीदास का युग दर्शन राजनीतिबद्ध मात्र न होकर बहुत व्यापक दिखाई देता है अपने समय की जनता में व्याप्त भुखमरी और बेरोजगारी का बहुत मार्मिक चित्रण करते हैं।'

"खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि,

बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।

जीविका विहीन लोग सीधमान सोचबस

कहै एक-एकन सो, कहाँ जाई? का करी"5

निष्कर्ष

विश्व कल्याण का मंत्र शांति, करुणा, दया, भ्रातृत्व सहयोग यह ऐसा आधारभूत मानवीय मूल्य है जो पूरी दुनिया को एक साथ जोड़ता है। भारत की ज्ञान परंपरा और उसका क्रियान्वयन कोविड के दौरान देखा जा चुका है। पूरी दुनिया के कल्याण के लिए भारत आगे आया यह जगजाहिर है। हम अपनी ज्ञान परंपरा को जाने पहचाने उसका राष्ट्र निर्माण, विकास एवं मानव कल्याण हेतु प्रयोग करें। जिससे हम पुनः विश्व गुरु बन सकते हैं। तुलसीदास ने वाल्मीकि रामायण को नये कलेवर व नवीन रूप में रचकर भारतीय जनमानस के हृदय में व्याप्त निराशा की गहराई को आशा में पल्लवित किया। उन्होंने रामकाव्य को प्रत्येक दृष्टि से चमोत्कर्ष पर पहुँचाया। भारतीय जनता को ऐसा नर-नारी चरित्र दिया है जिसका आदर्श रूप वर्तमान समय में भी वही स्थान रखता है, जो उनके समकालीन था।