विश्वविद्यालयीन छात्राओं के समायोजन पर चयनित यौगिक क्रियाओं (हठयोग) का प्रभाव
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सारांश: इस शोध<strong> </strong>अध्ययन का उद्देश्य यौगिक क्रियाओं का प्रभाव विश्वविद्यालयीन छात्राओं के समायोजन पर देखना है| इसके लिए कुल 50 छात्राओं का प्रयोज्यों के रूप में चयन किया गया| यौगिक क्रियाओं का प्रशिक्षण देने के पूर्व इन प्रयोज्यों के समायोजन स्तर का मापन ए.के.पी.सिन्हा और आर.पी.सिंह (2010) की समायोजन मापनी से किया गया, यह प्रयोग की पूर्व स्थिति है | यहाँ यौगिक क्रियाओं का तात्पर्य हठयोग के विभिन्न अंग यथा – चयनित षट्कर्म, आसन, प्राणयाम, मुद्रा एवं बंध से है | इन यौगिक क्रियाओं का समुचित ढंग से प्रतिदिन 60 मिनट तक दो माह के लिए नियमित अभ्यास कराया गया | अभ्यास के दो माह बाद उनके समायोजन स्तर का पुन: परीक्षण किया गया | ये स्थिति पश्च-परीक्षण की है | प्राप्त आंकड़ो का विश्लेषण ‘t’ परीक्षण (two tail) द्वारा किया गया जिसका कसौटी स्तर α=या p<0.05 है | शोध के प्राप्त परिणाम ये इंगित करते है कि योग अभ्यास के पूर्व इन छात्राओं का समायोजन पांचों क्षेत्र यथा गृह, स्वास्थ्य, शैक्षणिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक में समायोजन क्रमश: औसत, असंतोषजनक, असंतोषजनक, असंतोषजनक तथा बहुत असंतोषजनक स्तर का है | दो माह के यौगिक क्रियाओं के नियमित अभ्यास से इनके समायोजन के पांचों क्षेत्र यथा – गृह, स्वास्थ्य, शैक्षणिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक क्षेत्र में सार्थक सुधार हुआ है | कुल समायोजन में भी सार्थक एवं सकारामक परिवर्तन देखा गया | इस शोध से यह स्पष्ट होता है कि चयनित हठ यौगिक क्रियाओं के अभ्यास से छात्राओं के समायोजन में सार्थक सुधार होता है |
मुख्य शब्द: विश्वविद्यालयीन छात्राएं, यौगिक क्रियाएं, समायोजन
प्रस्तावना
मनुष्य जीवन में किशोरावस्था शारीरिक विकास की एक महत्त्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था में ग्रन्थिय कार्यों से उनके मानसिक एवं शारीरिक स्तर पर कई बड़े परिवर्तन आते हैं। ग्रन्थिय परिवर्तनों से उनकी शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता भी बढ़ने लगती है। इस अवस्था में व्यक्ति शैक्षणिक उपलब्धियां प्राप्त करता हुआ महाविद्यालय या उच्च स्तरीय शिक्षा की दहलीज पर पांव रखता है। इनमें जीवन जीने का एक नया जोश उभरता है। इस अवस्था में किशोर अनाश्रित होकर कार्य करना चाहता है और दुनिया को अपनी संज्ञानात्मक क्रियाओं से समझने का प्रयत्न करता है तथा सामाजिक व्यवहार एवं अपने समायोजन के बारे में भी बड़ा सचेत रहता है यहीं से व्यक्ति को अपने आप का समायोजन करने का अवसर मिलता है। जो किशोर इस अवस्था में अपनी क्रियाओं का सही प्रबंधन कर लेते है वे समायोजन में सफल होते हैं और एक सकारात्मक एवं व्यवस्थित व्यक्तित्व का विकास करते हैं।
भौतिक स्तर पर व्यक्ति अपनी शारीरिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं जैसे भूख, प्यास, यौन, सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा की पूर्ति स्वयं अपने स्तर पर करने का प्रयत्न करता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे सामाजिक मान्यता या सुविधा न मिलने से उसमें तनाव, संघर्ष एवं दबाव की स्थितियां पैदा हो जाती हैं । लेकिन यौगिक क्रियाएं (षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध) का अभ्यास करने से मानसिक तनाव में कमी आती है और किशोरों को परिस्थितियों का सामना करने के लिए उत्साह और धैर्य की प्राप्ति होती है |
समायोजन
समायोजन का अर्थ स्पष्ट करते हुए गेट्स एवं अन्य विद्वानों ने लिखा है कि ‘समायोजन’ शब्द के दो अर्थ हैं, एक अर्थ में निरन्तर चलने वाली एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति स्वयं और पर्यावरण के बीच अधिक सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध् रखने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है। दूसरे अर्थ में समायोजन जीवन एक संतुलित दशा है जिस पर पहुँचने पर हम उस व्यक्ति को सुसमायोजित कहते हैं।
समायोजन की परिभाषा:- मनोवैज्ञानिकों के अनुसार समायोजन को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है -
बोरिंग, लैंगफील्ड एवं वैल्ड के अनुसार, ‘’समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में संतुलन बनाए रखता है।’’
योग
योग का अर्थ:- पाणिनी ने योग शब्द की व्युत्पत्ति 'युजिर् योगे' एवं “युज् समाधौ” इन दो धातुओं से दी है। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार योग शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है, जैसे- जोड़ना, मिलाना, मेल आदि। इसी आधार पर जीवात्मा और परमात्मा का मिलन योग कहलाता है । इसी संयोग की अवस्था को "समाधि" की संज्ञा दी जाती है जो कि जीवात्मा और परमात्मा की समतावस्थाजनित होती है । यथा-
समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः ।
संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः। -(वशिष्ठ संहिता-1/44)
महर्षि पतंजलि ने योग शब्द को समाधि के अर्थ में प्रयुक्त किया है । व्यास जी ने 'योगः समाधिः कहकर योग शब्द का अर्थ समाधि ही किया है।
यौगिक क्रियाएं
हठयोग दो वर्णों से मिलकर बना है 'ह' और 'ठ' । ह का अर्थ- सूर्य स्वर, दायाँ स्वर, पिंगला स्वर, अथवा यमुना तथा' ठ' का अर्थ- चंद्र स्वर, बायाँ स्वर अथवा गंगा से लिया जाता है। दोनों के संयोग से अग्निस्वर, मध्य स्वर, सुषुम्ना स्वर, अथवा सरस्वती स्वर चलता है। जिसके कारण ब्रह्मनाड़ी में प्राण का संचरण होने लगता है| इसी ब्रह्मनाड़ी के निचले सिरे के पास कुंडलिनी शक्ति सुप्त अवस्था में स्थित है | जब साधक प्राणायाम करता है तो प्राण के आघात से सुप्तकुंडलिनी जागृत होती है| जो सात चक्रों को भेदती हुई समाधि की स्थिति तक पहुंचाती है | यही पद्धति आज आसन, प्राणायाम, षट्कर्म, मुद्रा, एवं बंध के अभ्यास के कारण सर्वाधिक लोकप्रिय हो रही है|
हठयोग की क्रियाओं का सबसे अधिक वर्णन घेरंड संहिता में दिया गया है। घेरंड संहिता में सप्तसाधन बताए गए हैं। सप्त साधनों की योग विद्या इस प्रकार है- षट्कर्म से शरीर की शुद्धि, आसनों द्वारा शरीर का मजबूत होना, मुद्राओं द्वारा स्थिरता, प्रत्याहार से धीरता, प्राणायाम से शरीर का हल्का पन, ध्यान से सजगता व साक्षात्कार तथा समाधि से निर्लिप्त भाव की प्राप्ति होने पर मुक्ति है।
योग के विभिन्न घटकों का मानवीय व्यवहार के विभिन्न पक्षों पर पड़ने वाले प्रभावों से संबंधित कई शोध कार्य हो चुके हैं। उनमें से कुछ प्रमुख शोध कार्यों का विवेचन हम आगे कर रहे हैं।
गौड़ एवं शर्मा (2002) ने मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले विद्यार्थियों के गृह, सामाजिक, संवेगात्मक एवं स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में समायोजन पर प्रेक्षा-ध्यान की सार्थक व सकारात्मक परिणाम देखा ।
बेताल, (2005) ने अपने शोध में समायोजन पर ध्यान का सकारात्मक प्रभाव देखा |
कुमार एवं शर्मा (2017) ने खिलाड़ियों के उत्कृष्ट प्रदर्शन एवं तनाव मुक्ति हेतु हठयौगिक क्रियाओं के प्रभावों का अध्ययन किया | इसमें उन्होंने हठयौगिक क्रियाओं के अभ्यास से खिलाड़ियों के उत्कृष्ट प्रदर्शन में सकारात्मक वृद्धि तथा तनाव में कमी पाई |
नाथ एवं गौड़ (2018) ने विद्यालय जाने वाले किशोरों के समायोजन पर प्राणायामों का सकारात्मक प्रभाव देखा |
उद्देश्य
इस शोध कार्य के निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य हैं-
1. विश्वविद्यालयीन छात्राओं के समायोजन का अध्ययन करना ।
2. समायोजन पर यौगिक क्रियाओं का प्रभाव देखना |
3. प्राप्त आंकड़ों का सांख्यिकी विश्लेषण करना एवं वैज्ञानिक ढंग से इन के परिणामों की व्याख्या करना ।
परिकल्पना
यौगिक क्रियाओं (षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध) के 2 माह के अभ्यास के पश्चात प्रयोज्यों के समायोजन के विभिन्न क्षेत्रों यथा गृह, स्वास्थ्य, सामाजिक, संवेगात्मक तथा शैक्षणिक क्षेत्र में पूर्व-परीक्षण की तुलना में पश्च–परीक्षण में सार्थक सुधार होने की संभावना है।
अनुसंधान अभिकल्प
शोध कार्य के लिए पूर्व-पश्च प्रयोगात्मक (pre-post-experimental) अनुसंधान विधि तंत्र का उपयोग किया गया | इस शोध कार्य में केवल प्रायोगिक समूह का निर्माण किया गया जो 50 छात्राओं का है । जैसाकि सारणी सं.-1 में दर्शाया गया है |
सारणी 1: शोध अभिकल्प का विवरण
प्रतिदर्श
प्रयोज्यों का चुनाव
इस शोध कार्य के लिए उद्देश्यानुसार (purposive) 50 छात्रा प्रयोज्यों का न्यादर्श लिया गया । प्रयोज्यों की आयु 21-25 वर्ष, शैक्षणिक स्तर, आर्थिक स्तर जहां तक संभव हो समान रखें गए|
परीक्षण एवं उपकरण : प्रस्तुत शोध कार्य के लिए ए.के.पी सिन्हा और आर.पी सिंह (2010) समायोजन प्रश्नावली का उपयोग किया गया |
समायोजन प्रश्नावली : यह प्रश्नावली ए.के.सिन्हा और आर.पी.सिंह द्वारा निर्मित है। इस सूची में 102 प्रश्न दिए गए हैं। गृह 16, स्वास्थ्य 15, सामाजिक 19, संवेगात्मक 31, और शैक्षणिक 21। यह प्रश्नावली उच्चस्तर विश्वनीय और वैद्य है।
प्रक्रिया
इस शोध कार्य के लिए 50 प्रयोज्यों के न्यादर्श का चुनाव किया गया । इन प्रयोज्यों को यौगिक क्रियाओं (षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा, एवम बंध) का नियमित अभ्यास 2 माह तक कराया गया | इन प्रयोज्यों को दिए जाने वाले यौगिक क्रियाओं से पहले समायोजन प्रश्नावली से उनके समायोजन का मापन किया गया | प्रयोग की यह स्थिति पूर्व परीक्षण अवस्था है | तत्पश्चात प्रयोज्यों को 2 माह तक प्रतिदिन 60 मिनट यौगिक क्रियाओं का अभ्यास कराया गया | दो माह बाद प्रयोज्यों पर पुन: उपरोक्त परीक्षण किया गया | यह परीक्षण पश्च-परीक्षण अवस्था है । जैसा कि सारणी सं.1 में बताया गया है |
यौगिक क्रियाओं का अभ्यास सारणी सं – 2 के अनुसार कराया गया है |
सारिणी 2: यौगिक क्रियाओं के अभ्यास की रूपरेखा
परिणाम एवं व्याख्या :
परीक्षणों से प्राप्त मध्यमानों एवं मानक विचलनों को सारिणी सं 3 में प्रस्तुत किया गया है | आकड़ों का ‘t’ परीक्षण ( जिसकी सार्थक कसौटी α= या p<0.05 है) द्वारा विश्लेषण किया गया|
समायोजन पर योग-क्रियाओं का प्रभाव
जैसा कि सारिणी सं 3 में स्पष्ट है कि पूर्व प्रायोगिक स्थिति पर प्रायोज्यों का समायोजन का स्तर उपरोक्त पांचो क्षेत्र में यथा गृह, स्वास्थ्य, शैक्षणिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक में क्रमश: औसत, असंतोषजनक, असंतोषजनक, असंतोषजनक तथा बहुत असन्तोषजनक स्थिति में है |
सारणी 3: पूर्व और पश्चात् प्रयोगात्मक चरणों के माध्य, मानक विचलन और 't' मान
पूर्व प्रायोगिक स्तर एवं पश्च-प्रायोगिक स्तर की तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि दो माह की यौगिक क्रियाओं के निरन्तर अभ्यास के पश्चात प्रयोजकों के समायोजन के पांचों क्षेत्र यथा गृह, स्वास्थ्य, शैक्षणिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक क्षेत्र में सार्थक सुधार हुआ है | उनके गृह समायोजन में p<.005, स्वास्थ्य समायोजन में p<.005, शैक्षणिक समायोजन में p<.0005, संवेगात्मक समायोजन में p<.001, सामाजिक समायोजन में p<.005 तथा कुल समायोजन में भी p<.005 स्तर का सुधार हुआ है | अर्थात यौगिक क्रियाएं करने से प्रयोज्यों के समायोजन के पांचों क्षेत्र में सुधार होने से परिवार के सदस्यों से बातचीत करने के ढंग में सकारात्मकता आई है व स्वास्थ्य से सम्बन्धी समस्याओं में भी सुधार आया है और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ी है | प्रयोज्यों की शिक्षा के प्रति रूचि बढ़ी और सामाजिक कार्यों को करने में झिझक कम हुई जिससे समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण में सकारात्मक सुधार आया | प्रयोज्यों की संवेगात्मक स्थिरता में सुधार आया और मानसिक रूप से भी उनमें शांति व् स्थिरता आई है | ये परिणाम पूर्व-उल्लेखित परिकल्पना की पुष्टि करते है |
निष्कर्ष
समायोजन एवं यौगिक क्रियाओं (षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध) को लेकर कुछ कार्य हुए है | ध्यान एवं समायोजन को लेकर भी पर्याप्त शोध कार्य किये गए है | नीचे दिए गए इन शोधकायों के परिणाम इस शोधकार्य के परिणाम से समतुल्य है जो इस प्रकार है -
चाइल्ड, पाठक, गौड़, रुड़ौला, एरोन एंड एरोन, स्टेनर तथा वेनगार्टन तथा वाल्टन ने भावातीत ध्यान के अभ्यास से कुछ इसी तरह के परिणाम देखे | चाइल्ड (1973) ने भावातीत ध्यान से बाल अपराधियों के सामाजिक व्यवहार में सार्थक सुधार पाया | पाठक, गौड़ एवम रुड़ौला (1984) ने अपराधियों के व्यक्तित्व के 16 कारकों पर भावातीत ध्यान का सार्थक प्रभाव देखा | एरोन एवं एरोन (1989) भावातीत ध्यान के अभ्यास से बाल अपराधियों के स्वास्थ्य एवं व्यवहार में सार्थक सुधार देखा | टाब, स्टेनर, वेनगार्टन तथा वाल्टन (1994) ने देखा की भावातीत ध्यान के अभ्यास से संवेगात्मक अस्थिरता में कमी होती है | गौड़ (1994) ने भावातीत ध्यान का अभ्यास करने वाले अपराधियों पर अहम् एवं पराहम शक्ति, स्वप्रत्यय तथा स्ववास्तविकरण में सार्थक परिवर्तन देखे | ये शोध परिणाम हमारे शोध कार्य के निष्कर्षों का समर्थन करते है | गौड़ एवं बेताल (1999) ने मादक पदार्थों का सेवन करने वाले विद्यार्थियों के व्यक्तित्व में प्रेक्षाध्यान का सकारात्मक प्रभाव देखा तथा इन विद्यार्थियों का गृह, स्वास्थ्य, शैक्षणिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक क्षेत्रों में p<.005 के सार्थक स्तर पर सकारात्मक सुधार हुआ|
गौड़ एवं भार्गव (2005) ने व्यसनियों के समायोजन पर प्रेक्षाध्यान के प्रभाव का अध्ययन किया| उन्होंने देखा कि नियंत्रित समूह की तुलना में प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों में स्वास्थ्य समायोजन के क्षेत्र में p<.005, सामाजिक क्षेत्र में p<.025, तथा संवेगात्मक क्षेत्र में p<.005, का सार्थक सकारात्मक परिवर्तन आया | गृह क्षेत्र में सार्थक परिवर्तन नहीं देखा गया | प्रायोगिक समूह के प्रयोज्यों में अपनी पूर्व-प्रायोगिक स्थिति की तुलना में पश्च-प्रायोगिक स्तर-1
में समायोजन के चारों क्षेत्रों यथा गृह, स्वास्थ्य, सामाजिक तथा संवेगात्मक क्षेत्रों में क्रमशः p<.05, .005, .05, .05, के सार्थक स्तर तथा पश्च-प्रायोगिक स्तर -2 पर क्रमशः p<.005, .005, .005, .05, का परिवर्तन देखा |
गौड़ एवं शाह (2007) ने प्रेक्षाध्यान के अभ्यास का बाल अपराधियों के संवेगात्मक, सामाजिक तथा शैक्षिक समायोजन में सार्थक सकारात्मक प्रभाव देखा | इनके शोध–परिणाम भी हमारे शोध के परिणामों के समान ही है |
नाथ एवं गौड़ (2018) ने विद्यालय जाने वाले किशोरों के समायोजन पर प्राणायामों का सार्थक एवं सकारात्मक प्रभाव देखा |
मनुष्य को दैनिक चर्या का अनुसरण करते–करते शारीरिक व् मानसिक रूप से कुछ परेशानियो को झेलना पड़ता है और उनके शरीर में कुछ रासयनिक बदलाव होने लगते है जो दैनिक चर्या में बाधा डालते है | जिससे परिस्थितियों को समायोजित करना मुश्किल होता है लेकिन योग क्रियाओं (षट्कर्म, आसन, प्राणयाम, मुद्रा एवं बंध) के निरन्तर अभ्यास से शरीर का शोधन होता है जिससे रासयनिक विजातीय द्रव्य को शरीर से बाहर निकाला जाता है | इन क्रियाओं से शरीर के अंगों में लचीलापन बढता है जिससे शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता बढती है और मन की शांति एवं समरसता बढती है जिससे मनुष्य अपने कार्यों को अच्छे से समायोजित करने में सक्षम हो जाता है | अत: यौगिक क्रियाएं समायोजन के सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है|