घरेलू हिंसा में पुरुष पीड़ित: भारत में सामाजिक जागरूकता, न्यायिक प्रक्रिया और सुधार की आवश्यकता
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सारांश: भारत में घरेलू हिंसा पर चर्चा अक्सर महिलाओं के संदर्भ में केंद्रित होती है, जबकि पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा की समस्या भी गंभीर है। यह लेख पुरुष पीड़ितों की अनदेखी, न्यायिक प्रक्रिया में असमानता, और आवश्यक कानूनी सुधारों पर प्रकाश डालता है। सामाजिक जागरूकता की कमी, कानूनी संरचनाओं की असमानता, और पुरुषों के लिए समर्थन प्रणालियों की अनुपस्थिति इस मुद्दे को और जटिल बनाती हैं। इस अध्ययन का उद्देश्य पुरुष पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक कानूनी और सामाजिक सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करना है। पुरुष पीड़ितों की समस्याएँ अक्सर शर्म और सामाजिक कलंक के कारण सामने नहीं आ पातीं।<br />समाज में गहराई से जमी रूढ़िवादी धारणाएँ पुरुषों को हमेशा “सशक्त” मानती हैं, जिससे उनकी पीड़ा अदृश्य रह जाती है। घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005, केवल महिलाओं पर केंद्रित है और पुरुषों की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं करता। कई देशों में पुरुष पीड़ितों के लिए हेल्पलाइन और सहायता केंद्र उपलब्ध हैं, जिनका भारत में अभाव है। मीडिया और शोध संस्थान भी इस मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते। न्यायिक प्रक्रियाओं में लैंगिक समानता की कमी पुरुषों को उचित संरक्षण से वंचित कर देती है। यह स्थिति केवल कानूनी ही नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के संकट को भी जन्म देती है।पुरुष पीड़ितों की स्थिति को समझने और उनकी सहायता के लिए डेटा और अनुसंधान की कमी है।सकारात्मक सुधारों के लिए नीतिगत पहल और जन-जागरूकता अभियानों की आवश्यकता है। यदि समाज और कानून दोनों ही संतुलित दृष्टिकोण अपनाएँ, तो घरेलू हिंसा की समस्या का वास्तविक समाधान संभव हो सकेगा।
मुख्य शब्द: घरेलू हिंसा, पुरुष पीड़ित, सामाजिक जागरूकता, न्यायिक प्रक्रिया, कानूनी सुधार, भारत, लैंगिक समानता, मानसिक स्वास्थ्य, कानूनी संरचना, समर्थन प्रणालियाँ
परिचय
घरेलू हिंसा एक गंभीर सामाजिक समस्या है जो पारिवारिक संरचनाओं को प्रभावित करती है। जबकि महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर व्यापक चर्चा और कानूनी प्रावधान हैं, पुरुषों के खिलाफ हिंसा की अनदेखी की जाती है। यह स्थिति पुरुष पीड़ितों के लिए न्याय की राह को कठिन बनाती है। इस लेख में हम पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा की समस्या, इसके कानूनी पहलुओं, और आवश्यक सुधारों पर चर्चा करेंगे।
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो घरेलू हिंसा के मामलों में ध्यान मुख्यतः महिलाओं की सुरक्षा पर ही केंद्रित रहा है। औपनिवेशिक काल से लेकर स्वतंत्र भारत तक, कानून बनाने की प्रक्रिया में समाज की पारंपरिक धारणाएँ प्रमुख रही हैं, जिनमें पुरुष को परिवार का संरक्षक और शक्तिशाली माना गया। इसी कारण पुरुषों को पीड़ित के रूप में मान्यता नहीं मिली। घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 भी केवल महिलाओं को संरक्षण प्रदान करता है और इसमें पुरुषों के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं है। इस प्रकार पुरुष पीड़ित न तो शिकायत दर्ज कराने के लिए सक्षम कानूनी मंच पा पाते हैं और न ही सहायता सेवाओं का लाभ उठा पाते हैं।
भारत के दंड संहिता,1860 (IPC,1860) में भी ऐसे प्रावधान कम हैं जो पुरुषों को घरेलू हिंसा से बचा सकें। धारा 498-ए, जो पत्नी पर क्रूरता के मामलों से संबंधित है, पुरुषों के खिलाफ उपयोग की जाती है, किंतु यदि किसी पुरुष को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक हिंसा झेलनी पड़े तो उसके पास न्याय पाने का कोई स्पष्ट रास्ता नहीं है। इसके विपरीत, पश्चिमी देशों में धीरे-धीरे यह स्वीकार किया गया है कि पुरुष भी घरेलू हिंसा के शिकार हो सकते हैं और वहाँ उनके लिए परामर्श सेवाएँ, आश्रय गृह और कानूनी सहायता उपलब्ध कराई जाती है।
कानूनी असमानता का एक और पहलू यह है कि न्यायपालिका भी प्रायः पुरुष पीड़ितों की शिकायतों को गंभीरता से नहीं लेती। कई मामलों में सामाजिक पूर्वाग्रह इस सोच को मजबूत करते हैं कि “पुरुष पीड़ित नहीं हो सकता”। इससे न केवल पीड़ितों की आवाज़ दब जाती है बल्कि वास्तविक आंकड़े भी सामने नहीं आ पाते। यदि इतिहास के संदर्भ में देखा जाए तो पुरुष पीड़ितों की स्थिति पर अकादमिक अनुसंधान और सरकारी रिपोर्टें भी नगण्य रही हैं।
यह ऐतिहासिक उपेक्षा आधुनिक समय में कानूनी सुधारों की आवश्यकता को और अधिक स्पष्ट करती है। वर्तमान परिस्थिति में आवश्यक है कि घरेलू हिंसा कानून को लिंग-तटस्थ बनाया जाए, ताकि किसी भी व्यक्ति — चाहे वह पुरुष हो या महिला — को न्याय मिल सके। साथ ही, पुरुषों के लिए हेल्पलाइन, काउंसलिंग सेंटर और अस्थायी आश्रय गृह जैसी संस्थागत व्यवस्थाएँ भी की जानी चाहिए। यह परिवर्तन न केवल कानूनी समानता की दिशा में कदम होगा बल्कि पारिवारिक और सामाजिक संरचनाओं को भी अधिक संतुलित बनाएगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में घरेलू हिंसा के खिलाफ कानूनी प्रावधानों की शुरुआत 2005 में हुई, जब 'महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम' (PWDVA) पारित हुआ। यह कानून महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है। हालांकि, इस अधिनियम में पुरुषों के खिलाफ हिंसा के लिए कोई प्रावधान नहीं था, जिससे पुरुष पीड़ितों को कानूनी सहायता प्राप्त करने में कठिनाई होती है। 2013 में 'निरभया क़ानून' के तहत महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में सख्त प्रावधान किए गए, लेकिन पुरुषों के खिलाफ हिंसा के लिए कोई समान प्रावधान नहीं थे। इस असमानता ने पुरुषों के खिलाफ हिंसा की अनदेखी को बढ़ावा दिया।
समाज में पुरुषों के खिलाफ हिंसा को लेकर मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता है। पारंपरिक धारणाएँ जैसे 'पुरुषों को मजबूत होना चाहिए' और 'पुरुषों को अपनी भावनाएँ नहीं दिखानी चाहिए' ने पुरुषों को अपनी समस्याओं को व्यक्त करने में संकोच किया है। इसके परिणामस्वरूप, पुरुष पीड़ितों की संख्या का सही आंकलन करना कठिन हो गया है। इसके अलावा, पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मामलों में पुलिस और न्यायिक प्रणाली की प्रतिक्रिया भी अक्सर नकारात्मक रही है, जिससे पीड़ितों को न्याय प्राप्त करना और भी कठिन हो गया है।
हालांकि, कुछ पहलुओं में सुधार हुआ है। उदाहरण के लिए, कुछ न्यायालयों ने पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मामलों में न्यायिक सक्रियता दिखाई है। इसके अलावा, कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मामलों में जागरूकता फैलाने और सहायता प्रदान करने के लिए कार्यक्रम शुरू किए हैं। फिर भी, यह सुधार सीमित हैं और व्यापक स्तर पर परिवर्तन की आवश्यकता है।
इस संदर्भ में, कानूनी सुधारों की आवश्यकता है जो पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मामलों को समान रूप से संबोधित करें। इसके लिए, PWDVA में संशोधन करके पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मामलों के लिए प्रावधान जोड़े जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त, पुरुष पीड़ितों के लिए विशेष सहायता केंद्रों की स्थापना, जागरूकता अभियानों का आयोजन, और न्यायिक प्रणाली में लैंगिक संवेदनशीलता की ट्रेनिंग की आवश्यकता है। इस प्रकार, पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा की समस्या को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा पर अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा को एक गंभीर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या के रूप में मान्यता दी गई है। अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में पुरुष पीड़ितों के लिए हेल्पलाइन, काउंसलिंग सेवाएँ और आश्रय गृह उपलब्ध कराए गए हैं, ताकि वे सामाजिक उपहास और मानसिक आघात से उबर सकें। संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसी वैश्विक संस्थाओं ने घरेलू हिंसा को केवल लैंगिक समस्या नहीं बल्कि मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन के रूप में परिभाषित किया है। इस दृष्टि से पुरुष और महिलाएँ दोनों ही हिंसा के शिकार हो सकते हैं और दोनों को समान रूप से सुरक्षा और न्याय की आवश्यकता होती है। कनाडा और न्यूजीलैंड जैसे देशों में किए गए शोध बताते हैं कि घरेलू हिंसा के लगभग 30 से 40 प्रतिशत मामलों में पुरुष पीड़ित होते हैं, जो यह स्पष्ट करता है कि यह मुद्दा केवल महिलाओं तक सीमित नहीं है।
यूरोपीय देशों में घरेलू हिंसा से संबंधित कानूनों को जेंडर-न्यूट्रल बनाया गया है, ताकि पुरुष और महिला दोनों को समान संरक्षण मिल सके। इसके विपरीत भारत में घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 मुख्यतः महिलाओं की सुरक्षा पर केंद्रित है, जिसके कारण पुरुष पीड़ितों को न्यायिक सुरक्षा और समर्थन का अभाव रहता है। यह असमानता पुरुषों को हिंसा की रिपोर्टिंग करने से रोकती है और वे सामाजिक उपहास तथा बदनामी के डर से चुप रहना बेहतर समझते हैं। अंतरराष्ट्रीय अनुभव भारत के लिए इस दिशा में सुधार की प्रेरणा प्रदान कर सकते हैं। यदि भारत भी जेंडर-न्यूट्रल कानून अपनाता है तो न्यायिक प्रक्रिया अधिक संतुलित और निष्पक्ष हो सकती है।
सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पुरुष पीड़ितों के प्रति संवेदनशीलता और सहानुभूति की कमी इस समस्या को और जटिल बना देती है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों की तरह भारत में भी पुरुषों के लिए विशेष काउंसलिंग सेंटर और हेल्पलाइन सेवाओं की स्थापना आवश्यक है। इसके साथ ही, शिक्षा और जन-जागरूकता अभियान पुरुष पीड़ितों को सामने आने और अपनी समस्याएँ साझा करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। न्यायिक प्रक्रिया में पुरुषों की आवाज़ को गंभीरता से सुनना और उनके मामलों का निष्पक्ष निपटारा करना समय की माँग है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप भारत को लैंगिक समानता पर आधारित घरेलू हिंसा विरोधी नीति तैयार करनी चाहिए, ताकि समाज में न्याय और संतुलन कायम रह सके। इस प्रकार, भारत यदि अंतरराष्ट्रीय अनुभवों से सीख ले, तो एक ऐसा कानूनी और सामाजिक ढांचा विकसित कर सकता है जो न्यायपूर्ण, मानवाधिकारोन्मुखी और वास्तविक रूप से समावेशी हो।
निष्कर्ष
पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा एक गंभीर और अनदेखी समस्या है। इसके समाधान के लिए कानूनी, सामाजिक और न्यायिक सुधारों की आवश्यकता है। PWDVA में संशोधन, पुरुष पीड़ितों के लिए सहायता प्रणालियों की स्थापना, और समाज में जागरूकता फैलाने के प्रयास इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं। केवल कानूनी प्रावधानों से ही समस्या का समाधान नहीं होगा; इसके लिए समाज में मानसिकता में बदलाव और न्यायिक प्रणाली में संवेदनशीलता की आवश्यकता है। इस प्रकार, पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा की समस्या को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
भविष्य का दायरा
भविष्य में, पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में बढ़ती जागरूकता और कानूनी प्रावधानों में सुधार की संभावना है। इसके लिए, निम्नलिखित क्षेत्रों में कार्य किया जा सकता है:
- कानूनी सुधार: PWDVA में संशोधन करके पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मामलों के लिए प्रावधान जोड़े जाएं। इसके अलावा, पुरुष पीड़ितों के लिए विशेष कानूनी सहायता प्रदान की जाए।
- सामाजिक जागरूकता: समाज में पुरुषों के खिलाफ हिंसा के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए अभियान चलाए जाएं। इसके लिए, मीडिया, शिक्षा संस्थानों और गैर-सरकारी संगठनों का सहयोग लिया जा सकता है।
- न्यायिक संवेदनशीलता: न्यायिक अधिकारियों को पुरुषों के खिलाफ हिंसा के मामलों में संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं।
- सहायता प्रणालियाँ: पुरुष पीड़ितों के लिए विशेष सहायता केंद्रों की स्थापना की जाए, जहां उन्हें कानूनी, मानसिक और सामाजिक सहायता प्राप्त हो सके।
इन प्रयासों से पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा की समस्या को प्रभावी ढंग से संबोधित किया जा सकता है और लैंगिक समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं।