ग्रामीण महिला स्वावलंबन में स्वराज, स्वदेशी व खादी की भूमिका: महात्मा गांधी के विचारों के विशेष संदर्भ में एक समाजशास्त्रीय अध्ययन
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सारांश: महात्मा गांधी ने भारतीय महिलाओं के जागरण और स्वावलंबन की दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने महिलाओं को न सिर्फ राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में उनके सक्रिय भागीदारी हेतु प्रेरित किया बल्कि उनके अधिकारों, कर्तव्यों और आत्मविश्वास को भी सशक्त बनाया। महात्मा गांधी का यह मानना था कि आर्थिक स्वतंत्रता व स्वावलम्बन महिला सशक्तिकरण का मूल आधार है। इसी उद्देश्य से उन्होंने महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को स्वदेशी, स्वराज और खादी से जोड़ा तथा उन्हें चरखा-कताई और बुनाई के माध्यम से आर्थिक आत्मनिर्भरता की राह दिखाई। खादी आंदोलन और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार में महिलाओं की भागीदारी ने स्वदेशी आंदोलन को व्यापक जनाधार प्रदान किया। इस प्रकार, महिलाओं की पारंपरिक घरेलू भूमिका को राष्ट्रीय आंदोलन से एकीकृत कर उन्होंने स्वावलंबन और स्वराज की ठोस नींव रखी। प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य ऐतिहासिक एवं वर्णनात्मक पद्धति के माध्यम से द्वितीयक आंकड़ों (पुस्तकें, शोधपत्र, पत्र-पत्रिकाएँ) के आधार पर यह अध्ययन करना है कि महात्मा गांधी के विचारों में स्वराज, स्वदेशी और खादी ने ग्रामीण महिलाओं के स्वावलंबन में किस प्रकार योगदान दिया।
मुख्य शब्द: महिला सशक्तिकरण, आत्मनिर्भरता, सत्याग्रह, राष्ट्रनिर्माता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, राजनीतिक आंदोलन
भूमिका
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पुनर्जागरण की भी गहरी छाप दिखाई देती है। इस आंदोलन के केंद्र में महात्मा गांधी की विचारधारा रही, जिन्होंने न केवल औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का स्वप्न देखा, बल्कि एक ऐसे समाज की परिकल्पना प्रस्तुत की जो आत्मनिर्भर, नैतिक और न्यायसंगत हो। गांधी के स्वराज, स्वदेशी और खादी के विचार इसी व्यापक दृष्टिकोण का हिस्सा थे, जो समाज की सबसे हाशिये पर रहने वाली शक्तिग्रामीण महिलाओंकृको केंद्र में रखकर परिकल्पित किए गए।
भारत की ग्रामीण महिलाएँ ऐतिहासिक रूप से परिवार और समुदाय की धुरी रही हैं। औपनिवेशिक काल में जहाँ एक ओर उनका जीवन घरेलू जिम्मेदारियों, गरीबी और सामाजिक रूढ़ियों से बँधा हुआ था, वहीं दूसरी ओर वे उत्पादन और श्रम की निरंतर वाहक भी थीं। परंतु उनकी भूमिका को समाज में वह मान्यता नहीं मिल पाई जिसकी वे वास्तविक हकदार थीं। महात्मा गांधी ने इसी स्थिति को बदलने का प्रयास किया। उन्होंने महिलाओं को केवल “गृहणी” के रूप में नहीं देखा बल्कि उन्हें समाज और राष्ट्रनिर्माण की सक्रिय साझेदार के रूप में स्थापित करने का बीड़ा उठाया।
गांधी का मानना था कि किसी भी राष्ट्र का पुनर्निर्माण तभी संभव है जब समाज की आधी आबादी, अर्थात महिलाएँ, सक्रिय रूप से इसमें भाग लें। उन्होंने महिलाओं को केवल राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होने के लिए ही प्रेरित नहीं किया, बल्कि उन्हें आर्थिक आत्मनिर्भरता का साधन भी प्रदान किया। चरखा, खादी और स्वदेशी उनके लिए केवल औद्योगिक या आर्थिक सुधार के उपकरण नहीं थे, बल्कि यह महिलाओं को आत्मनिर्भर, आत्मसम्मानी और सशक्त बनाने का माध्यम थे।
गांधीजी का “स्वराज” राजनीतिक स्वतंत्रता से कहीं अधिक व्यापक अवधारणा थी। यह व्यक्ति, परिवार और समुदाय के आत्मनिर्भर बनने की प्रक्रिया थी। स्वराज का अर्थ अपने जीवन और संसाधनों पर स्वयं नियंत्रण रखना। इसी स्वराज के भीतर महिलाओं की भूमिका को उन्होंने निर्णायक माना। उनका विश्वास था कि यदि महिलाएँ आत्मनिर्भर बनेंगी तो पूरा समाज नैतिक और आर्थिक रूप से मजबूत होगा।
स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी इस विचारधारा का प्रत्यक्ष उदाहरण है। विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और खादी के प्रचार-प्रसार में महिलाओं की सक्रियता ने राष्ट्रीय आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया। गांधीजी ने इसे केवल आर्थिक सुधार नहीं माना बल्कि इसे सामाजिक क्रांति का साधन समझा। उन्होंने महिलाओं को प्रेरित किया कि वे घरेलू कार्यों के साथ-साथ चरखा चलाएँ और खादी धारण करें। इस प्रकार, उन्होंने महिलाओं की पारंपरिक घरेलू भूमिका को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़कर उसे सामाजिक और राजनीतिक मूल्य प्रदान किया।
यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी ने महिलाओं को केवल स्वतंत्रता आंदोलन का साधन नहीं बनाया, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता की राह दिखाकर भविष्य के लिए तैयार किया। उन्होंने लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया, स्त्रियों के अधिकारों की वकालत की और उन्हें समाज परिवर्तन का वाहक माना। इस दृष्टि से देखा जाए तो गांधी का योगदान केवल स्वतंत्रता आंदोलन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने महिलाओं के लिए एक नई पहचान गढ़ीकृएक ऐसी पहचान जो उन्हें घर की चारदीवारी से निकालकर समाज और राष्ट्र के केंद्र में स्थापित करती है।
अतः प्रस्तुत अध्ययन इस तथ्य की गहन समीक्षा करता है कि महात्मा गांधी के स्वराज, स्वदेशी और खादी संबंधी विचारों ने ग्रामीण महिलाओं के जीवन, उनकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक पहचान पर किस प्रकार प्रभाव डाला। यह शोध इस तथ्य पर प्रकाश डालने का प्रयास करेगा कि किस प्रकार गाँधी जी की विचारधारा ने भारतीय ग्रामीण महिलाओं को न केवल आत्मनिर्भर बनाया बल्कि उन्हें समाजशास्त्रीय दृष्टि से परिवर्तन का वाहक भी बनाया।
साहित्य समीक्षा
गांधी साहित्य और महिला सशक्तिकरण
महात्मा गांधी के Collected Works में महिलाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वे लिखते हैं “यदि महिला शक्ति जाग उठे, तो कोई शक्ति भारत को गुलाम नहीं रख सकती।” (Young India1921)। इस प्रकार गांधी ने महिला जागरण को स्वतंत्रता आंदोलन की अनिवार्य शर्त माना।
निरा देसाई (1994)
Women in Modern India में निरा देसाई ने लिखा कि स्वतंत्रता आंदोलन ने महिलाओं को घर से बाहर लाकर सार्वजनिक जीवन में भागीदारी का अवसर दिया। गांधी के नेतृत्व में महिलाओं की पहचान राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर मज़बूत हुई।
कैरल वॉल्सॉफ (1994)
From Rage to Riches मे अध्ययन में ग्रामीण विकास के साथ महिलाओं की स्थिति में सुधार पर प्रकाश डाला गया है। वे तर्क देती हैं कि खादी और स्वदेशी जैसे प्रयासों ने महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता दिलाने में योगदान दिया।
अरविन्द महला एवं सुरेन्द्र कटारिया (2014)
भारत में महिला सशक्तिकरणः प्रयास एवं बाधाएँ में इन विद्वानों ने बताया कि महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया में गांधी का योगदान विशिष्ट है, क्योंकि उन्होंने इसे आत्मनिर्भरता और स्वदेशी से जोड़ा।
लुइस सालोमन एवं हेल्मुट आनहियर (1997)
Defining the Nonprofit Sector में सामाजिक आंदोलनों में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका पर बल दिया गया है। गांधी का दृष्टिकोण इसी विचार से मेल खाता है कि महिला समाज परिवर्तन की निर्णायक वाहक है।
भीमराव आंबेडकर (1936)
Annihilation of Caste में आंबेडकर ने जाति और लिंग आधारित शोषण का विश्लेषण करते हुए महिलाओं को सबसे अधिक पीड़ित बताया। यद्यपि आंबेडकर और गांधी में मतभेद थे, परंतु दोनों ही महिलाओं को समाज-सुधार के केंद्र में मानते थे।
जीन ड्रेज़ एवं रीटिका खेड़ा (2000)
Journal of Development Studies में प्रकाशित उनके अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण विकास योजनाओं में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी तभी संभव है जब उन्हें उत्पादन और निर्णय प्रक्रिया में बराबरी का स्थान मिले।
डी. करूपा (2017)
कर्नाटक के शिमोगा ज़िले की महिला स्व-सहायता समूहों पर किए गए अध्ययन में उन्होंने पाया कि जब महिलाएँ आय-सृजन कार्यों से जुड़ती हैं, तो उनका आत्मविश्वास और सामाजिक स्थान दोनों मज़बूत होते हैं। यह दृष्टिकोण गांधी के खादी आंदोलन से मेल खाता है।
मिनिमोल एवं मुक़ेश (2016)
अध्ययन Empowering Rural Women through Self&Help Groups दर्शाता है कि आर्थिक साधनों पर नियंत्रण मिलने से महिलाओं की सामाजिक पहचान में परिवर्तन आता है। गांधी का स्वदेशी आंदोलन इसी विचार का अग्रदूत कहा जा सकता है।
कैथरीन माया (2001)
Gandhi and Women*s Empowerment नामक शोध में उन्होंने यह तर्क दिया कि गांधी ने महिलाओं को केवल सहायक शक्ति न मानकर उन्हें स्वतंत्र संघर्ष की “अग्रदूत” बनाया।
तारा गोविंदराजन (2005)
उनकी पुस्तक Women and Gandhi% A Sociological Perspective में गांधी द्वारा महिलाओं को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल करने की प्रक्रिया को समाजशास्त्रीय दृष्टि से समझाया गया है।
राजकुमार सिंह (2010)
Gandhi*s Constructive Programme and Women में लिखते हैं कि खादी, स्वदेशी और बुनियादी शिक्षा केवल पुरुषों के लिए नहीं, बल्कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के साधन थे।
कस्तूरबा गांधी की आत्मकथा एवं संस्मरण
इन संस्मरणों में उल्लेख मिलता है कि स्वयं कस्तूरबा ने चरखा-कताई और महिला जागरण कार्यक्रमों में सक्रिय योगदान दिया। इससे गांधी के विचार व्यवहार में कैसे रूपांतरित हुए, इसकी झलक मिलती है।
अरुणा आसफ़ अली
उनकी आत्मकथा और संस्मरणों में उल्लेख है कि गांधी के नेतृत्व ने महिलाओं को सत्याग्रह और असहयोग आंदोलनों में प्रत्यक्ष नेतृत्वकारी भूमिका निभाने का साहस दिया।
सुब्बलक्ष्मी कृष्णन (2018)
अपने अध्ययन Khadi and Gender Empowerment में वे लिखती हैं कि खादी उद्योग ग्रामीण महिलाओं को छोटे स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने के साथ-साथ उन्हें आत्मनिर्भर बनाता है।
अत: उपरोक्त अध्ययनों से यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि गांधी के स्वराज, स्वदेशी और खादी संबंधी विचारों ने ग्रामीण महिलाओं को न केवल स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा, बल्कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में अग्रसर किया। निरा देसाई और वॉल्सॉफ जैसे विद्वानों ने जहाँ स्वतंत्रता आंदोलन में महिला भागीदारी को रेखांकित किया, वहीं करूपा, मिनिमोल और कृष्णन जैसे आधुनिक शोधकर्ताओं ने यह दिखाया कि आत्मनिर्भरता के बिना महिला सशक्तिकरण अधूरा है। इस प्रकार, गांधी के विचार अतीत और वर्तमान दोनों संदर्भों में प्रासंगिक सिद्ध होते हैं।
शोध पद्धति
किसी भी समाजशास्त्रीय अध्ययन की विश्वसनीयता उसकी शोध पद्धति पर आधारित होती है। प्रस्तुत अध्ययन महात्मा गांधी के विचारों और ग्रामीण महिलाओं के स्वावलंबन में स्वराज, स्वदेशी एवं खादी की भूमिका की व्याख्या करता है। चूँकि यह शोध ऐतिहासिक एवं वैचारिक दृष्टिकोण से संबंधित है, अतः इसमें ऐतिहासिक और वर्णनात्मक दोनों प्रकार की शोध विधियों का प्रयोग किया गया है।
शोध का स्वरूप
प्रस्तुत शोध गुणात्मक पर आधारित है। इसमें प्राथमिक आंकड़ों का संग्रह नहीं किया गया, बल्कि द्वितीयक स्रोतों से सामग्री एकत्र की गई है। इसका कारण यह है कि शोध का उद्देश्य किसी नई संख्यात्मक प्रवृत्ति की गणना करना नहीं, बल्कि गांधी के विचारों की समाजशास्त्रीय व्याख्या करना है।
आंकड़ों के स्रोत
अध्ययन के लिए मुख्यतः निम्नलिखित स्रोतों का प्रयोग किया गयाः
गांधी साहित्यः Collected Works of Mahatma Gandhi]Young India] Harijan पत्रों और भाषणों में व्यक्त उनके विचार।
पुस्तकें और शोध-ग्रंथः निरा देसाई, अरविन्द महला, सुरेन्द्र कटारिया, कैरल वॉल्सॉफ, तारा गोविंदराजन आदि विद्वानों के अध्ययन।
शोध-पत्र और पत्रिकाएँः World Development] Journal of Development Studies] Gandhi Marg जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख।
संस्मरण और आत्मकथाएँः कस्तूरबा गांधी और अरुणा आसफ़ अली जैसे गांधी-समर्थक नेताओं के अनुभव।
विश्लेषण पद्धति
संग्रहित आंकड़ों का विश्लेषण गुणात्मक व्याख्या (Qualitative Interpretation) के आधार पर किया गया है।
स्वराज और महिला स्वावलंबन
गांधीजी के लिए स्वराज का आशय केवल अंग्रेज़ी शासन से मुक्ति नहीं था, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक अवधारणा थी। ग्राम-स्वराज के अंतर्गत उन्होंने प्रत्येक गाँव को स्वशासी और आत्मनिर्भर बनाने पर बल दिया। इसमें महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को आवश्यक माना गया। सत्याग्रह और असहयोग आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी ने उन्हें घर की चारदीवारी से बाहर निकालकर सामाजिक नेतृत्व का अवसर प्रदान किया। इस प्रकार स्वराज की अवधारणा ने महिलाओं में आत्मविश्वास, नेतृत्व क्षमता और सामाजिक चेतना का संचार किया
स्वदेशी और महिला स्वावलंबन
गांधीजी का स्वदेशी सिद्धांत भारतीय समाज को आत्मनिर्भर बनाने का एक सशक्त उपकरण था। उनका विश्वास था कि विदेशी वस्त्रों और आयातित सामान के उपयोग से भारत की आत्मा दुर्बल होती है। स्वदेशी आंदोलन के दौरान ग्रामीण महिलाओं ने घरेलू उद्योगों में सक्रिय योगदान दिया। सूत कातना, बुनाई, सिलाई और हस्तशिल्प जैसे कार्यों में उनकी भागीदारी ने उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान की। स्वदेशी आंदोलन ने ग्रामीण महिलाओं को परिवार की सहयोगी से आगे बढ़कर राष्ट्र निर्माण की सहभागी बना दिया
खादी और महिला स्वावलंबन
गांधीजी के लिए खादी केवल वस्त्र नहीं बल्कि एक विचार था। यह श्रम, समानता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक थी। गांधी ने चरखे को स्वराज का प्रतीक बनाते हुए ग्रामीण महिलाओं को घर-घर चरखा चलाने के लिए प्रेरित किया। खादी ने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ उनके श्रम को सम्मान और राष्ट्रीय गौरव से जोड़ा। इस आंदोलन में महिलाओं ने दिखाया कि वे अपने श्रम के बल पर न केवल आर्थिक स्वतंत्रता अर्जित कर सकती हैं, बल्कि समाज में सम्मानजनक स्थान भी प्राप्त कर सकती हैं।
परिणाम
महात्मा गांधी के विचारों और आंदोलनों ने भारतीय ग्रामीण महिलाओं के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। महिलाओं को न केवल स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा गया बल्कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी स्वावलंबन की ओर अग्रसर किया गया। अध्ययन से निम्नलिखित मुख्य परिणाम प्राप्त होते हैंः
1. राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी
गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीय महिलाओं को पहली बार घरेलू परिधि से बाहर निकलकर सार्वजनिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का अवसर प्रदान किया। असहयोग आंदोलन और नमक सत्याग्रह जैसे अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ने स्वतंत्रता संघर्ष को सामाजिक आधार प्रदान किया (Forbs, 1996)। ग्रामीण महिलाओं ने जुलूसों, धरनों और जनसभाओं में शामिल होकर यह स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक लक्ष्य न होकर सामाजिक जागरण का भी प्रतीक है। गांधीजी के “स्त्री-शक्ति“ संबंधी विचारों ने यह विश्वास स्थापित किया कि महिलाएँ भी राष्ट्र की समान और स्वतंत्र नागरिक हैं (Chakrabarty 2014)
2. खादी और चरखे के माध्यम से आर्थिक स्वावलंबन
गांधीजी का मत था कि आर्थिक आत्मनिर्भरता के बिना महिला सशक्तिकरण अधूरा है ¼Kumar] 2008½। ग्रामीण समाज में महिलाएँ परंपरागत रूप से कताई-बुनाई जैसे कार्यों में संलग्न थीं, किंतु गांधीजी ने इस गतिविधि को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ते हुए खादी को स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनाया। चरखा केवल आजीविका का साधन ही नहीं रहा, बल्कि राष्ट्रीय एकता और आत्मसम्मान का भी प्रतीक बना। इसने महिलाओं को घरेलू सीमाओं से बाहर निकालकर आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त किया (Chatterjee,1993)।
3. सामाजिक चेतना और आत्मविश्वास का विस्तार
गांधीजी के विचारों से महिलाओं में शिक्षा, समानता और अधिकारों के प्रति चेतना का संचार हुआ। वे आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की प्रतीक बनकर सामाजिक असमानताओं को चुनौती देने लगीं। जातिगत और लैंगिक भेदभाव को पार करते हुए उन्होंने सामाजिक सुधार और राष्ट्रनिर्माण में योगदान दिया। गांधीजी ने उन्हें नैतिक शक्ति और परिवर्तन की संवाहक माना, जिसने भारतीय समाज में स्थायी और सकारात्मक बदलाव संभव किया (Nair, 1996)।
4. महिलाओं की परंपरागत भूमिकाओं का पुनर्मूल्यांकन
गांधीजी ने महिलाओं की पारंपरिक घरेलू भूमिकाओं को नए परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया। कताई, बुनाई और हस्तशिल्प जैसे कार्यों को उन्होंने केवल घरेलू गतिविधियाँ न मानकर राष्ट्रीय आंदोलन का महत्वपूर्ण अंग बना दिया। इस दृष्टिकोण ने स्पष्ट किया कि महिलाओं का योगदान केवल परिवार तक सीमित नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय जीवन में भी उतना ही आवश्यक है (Forbes, 1998)।
5. नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का राष्ट्रीयकरण
महिलाओं की सहनशीलता, त्याग और अहिंसा को गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन की आधारशिला के रूप में स्थापित किया ¼Chakrabarty] 2014½। उन्होंने पुरुष-प्रधान राजनीति में मानवीय संवेदनाओं का संचार करने हेतु महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महिलाएँ जेल जाने और कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार रहीं। इस प्रकार उनकी नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति राष्ट्रीय आंदोलन की प्रेरक शक्ति में बदल गई ¼Kumar] 2008½।
6. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से परिवर्तन
भारतीय ग्रामीण समाज में महिलाओं को पारंपरिक रूप से सीमित एवं आश्रित भूमिका में देखा जाता था। किंतु गांधीजी के हस्तक्षेप के बाद महिलाएँ सामाजिक परिवर्तन की वाहक बनकर उभरीं। परिवार, समाज और राष्ट्र दृ तीनों स्तरों पर उनकी नई पहचान बनी। धीरे-धीरे महिलाओं ने शिक्षा, राजनीतिक सहभागिता और सामाजिक नेतृत्व के क्षेत्र में भी सक्रिय भूमिका निभानी शुरू की (Forbes, 1996)।
यह तथ्य स्पष्ट करता है कि महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं मानते थे। उन्होंने इसके साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक आत्मनिर्भरता पर भी बल दिया। उनके विचारों में स्वराज का अर्थ राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ ग्राम समाज में सामाजिक-आर्थिक उत्थान भी था। इसी कारण महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय करने की दिशा में गांधीजी ने विशेष महत्व दिया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जब तक समाज की आधी आबादी, अर्थात महिलाएँ, आंदोलन से नहीं जुड़ेंगी, तब तक राष्ट्र का निर्माण अधूरा रहेगा ¼Chakrabarty] 2014½।
अतः कहा जा सकता है कि महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का अवसर देकर गांधीजी ने उनके सामाजिक दायरे को विस्तारित किया। पहले वे केवल परिवार और घरेलू जीवन तक सीमित थीं, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे सार्वजनिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बनीं। इस प्रक्रिया ने उनकी सामाजिक स्थिति और आत्मसम्मान दोनों को मजबूत किया।
साथ ही, गांधीजी ने महिलाओं को अहिंसा, त्याग और नैतिक शक्ति का प्रतीक मानकर उन्हें राष्ट्रीय संघर्ष में अग्रणी स्थान दिया। यह दृष्टिकोण दर्शाता है कि महिला केवल सहयोगी नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की निर्णायक शक्ति थीं।
गांधीजी की सबसे बड़ी देन यह रही कि उन्होंने ग्रामीण महिलाओं के आत्मविश्वास को प्रबल किया। उन्होंने यह संदेश दिया कि महिला केवल “निर्भर” प्राणी नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की “निर्माता” शक्ति है। यही कारण है कि स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी ने इसे जन-आधारित, व्यापक और नैतिक रूप से सशक्त बना दिया।
आज के संदर्भ में भी गांधीजी के विचार अत्यंत प्रासंगिक हैं। ग्रामीण महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता, शिक्षा और सामाजिक समानता आज भी भारतीय समाज के सामने प्रमुख चुनौतियाँ हैं। गांधीजी का स्वदेशी और खादी का दृष्टिकोण आज आत्मनिर्भर भारत और सतत विकास जैसे विचारों से जुड़ता है। वहीं महिलाओं की समान भागीदारी आज भी लोकतांत्रिक और सामाजिक विकास की शर्त बनी हुई है।
निष्कर्ष
इन निष्कर्षों से स्पष्ट है कि गांधीजी के स्वराज, स्वदेशी और खादी संबंधी विचारों ने ग्रामीण महिलाओं को केवल स्वतंत्रता आंदोलन का सहयोगी नहीं बनाया, बल्कि उन्हें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वावलंबन की दिशा में प्रेरित किया। गांधीजी ने उनकी पारंपरिक भूमिकाओं को नया अर्थ और नया सम्मान दिया, जिससे ग्रामीण महिला समाज राष्ट्रीय चेतना का अभिन्न अंग बन गया।
गांधीजी ने ग्रामीण महिलाओं की पारंपरिक घरेलू गतिविधियों जैसे कताई और बुनाई को राष्ट्रीय आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया। इससे महिलाओं की आर्थिक भागीदारी बढ़ी और उन्हें आत्मनिर्भर बनने का अवसर मिला। यह परिवर्तन केवल आर्थिक स्तर पर नहीं था, बल्कि उनके आत्मविश्वास, सामाजिक चेतना और राष्ट्रवादी पहचान में भी देखा गया।
अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गांधीजी के विचारों ने ग्रामीण महिलाओं को स्वावलंबन की राह दिखाकर न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका सुनिश्चित की, बल्कि भारतीय समाज में लिंग-समता और आत्मनिर्भरता की स्थायी नींव भी रखी। गांधीजी का यह योगदान भारतीय समाजशास्त्रीय विमर्श में महिला सशक्तिकरण का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है।