परिचय

घरेलू हिंसा भारतीय समाज के लिए एक गंभीर चुनौती है। यह केवल शारीरिक आघात तक सीमित नहीं है, बल्कि मानसिक, आर्थिक और भावनात्मक यातना को भी समाहित करती है। अब तक इस विषय पर विमर्श अधिकतर महिलाओं तक ही सीमित रहा है। पुरुषों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ प्रायः परिवार, समाज और न्यायालयों की दृष्टि से छिपी रह जाती हैं। पुरुषों से अपेक्षा की जाती है कि वे मजबूतबनकर सब कुछ सह लें, जिसके कारण वे अपनी पीड़ा व्यक्त करने से हिचकिचाते हैं। इस कारण उनके लिए सहायता प्रणाली और कानूनी संरक्षण लगभग अनुपस्थित है। इस शोध का उद्देश्य इसी उपेक्षित पक्ष पर ध्यान केंद्रित करना है।

पुरुष पीड़ितों की स्थिति इस कारण और भी जटिल हो जाती है क्योंकि समाज में उनकी पीड़ा को मान्यता नहीं दी जाती। अक्सर यदि कोई पुरुष अपने साथ हो रही हिंसा की शिकायत करता है तो उसकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया जाता। परिवार और रिश्तेदार भी उसे चुप रहने की सलाह देते हैं ताकि सामाजिक मानसम्मान पर आंच न आए। मानसिक स्वास्थ्य पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है और कई पुरुष अवसाद, चिंता तथा आत्मसम्मान की कमी जैसी समस्याओं से जूझते हैं। कार्यस्थल पर भी इसका असर दिखाई देता है, क्योंकि घरेलू कलह और हिंसा के कारण उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है। इसके अतिरिक्त, भारतीय न्यायिक प्रणाली में पुरुष पीड़ितों के लिए कोई विशेष प्रावधान न होना उनकी स्थिति को और कमजोर कर देता है। पुलिस थाने में भी जब पुरुष शिकायत दर्ज कराने जाते हैं तो उन्हें अक्सर उपेक्षित कर दिया जाता है। कई बार तो उन्हें उल्टा दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है। यह स्थिति पुरुषों को न्यायिक प्रक्रिया से विमुख करती है।

सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो घरेलू हिंसा के मामलों में पुरुषों की चुप्पी केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि यह एक सामूहिक समस्या बन जाती है। जब किसी वर्ग की पीड़ा को मान्यता नहीं मिलती तो समाज में असमानता और अन्याय की भावना गहरी होती है। इसी कारण पुरुषों के विरुद्ध घरेलू हिंसा पर विमर्श और शोध की आवश्यकता और भी अधिक हो जाती है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत में घरेलू हिंसा के विरुद्ध विधिक प्रावधानों की औपचारिक शुरुआत सन् 2005 में हुई जबघरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियमपारित किया गया। इस अधिनियम ने महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा से सुरक्षा प्रदान की। किंतु इस कानून में पुरुषों के विरुद्ध हिंसा का कोई उल्लेख नहीं था। परिणामस्वरूप, यदि पुरुष किसी प्रकार की पारिवारिक हिंसा का शिकार होते भी हैं तो उनके पास न्याय पाने का कोई सीधा कानूनी उपाय उपलब्ध नहीं है।

सन् 2013 मेंirbhaya क़ानूनके अंतर्गत महिलाओं की सुरक्षा के लिए कड़े प्रावधान किए गए, किन्तु पुरुषों की सुरक्षा हेतु ऐसे किसी प्रावधान की परिकल्पना नहीं की गई। यह असमानता न्यायिक व्यवस्था की लैंगिक पूर्वाग्रहपूर्ण मानसिकता को दर्शाती है।

समाज में भीपुरुष कभी पीड़ित नहीं हो सकतेजैसी धारणाएँ गहराई से जमी हुई हैं। ऐसी सोच के कारण केवल पुरुष अपनी समस्याओं को छिपाते हैं, बल्कि जब वे पुलिस या न्यायालय का सहारा लेने का प्रयास करते हैं तो अक्सर उपहास और असंवेदनशीलता का सामना करना पड़ता है। यही कारण है कि पुरुष पीड़ितों की संख्या का सही अनुमान लगाना कठिन है।

यद्यपि कुछ न्यायालयों ने समय-समय पर पुरुषों की समस्याओं को स्वीकार किया है और कुछ स्वैच्छिक संगठन भी पुरुषों के अधिकारों हेतु सक्रिय हुए हैं, किंतु ये प्रयास सीमित स्तर पर ही सफल रहे हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि घरेलू हिंसा से जुड़े कानूनों में संशोधन कर उन्हें लैंगिक रूप से संतुलित बनाया जाए। साथ ही पुरुषों के लिए परामर्श केंद्र, कानूनी सहायता, मानसिक स्वास्थ्य सहयोग और सामाजिक समर्थन की व्यवस्था की जाए।

भारत में पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा: सामाजिक कलंक और कानूनी उपचार का सामंजस्य

भारत में पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा एक ऐसा विषय है जिस पर समाज और विधिक जगत में अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है। घरेलू हिंसा की चर्चा होते ही प्रायः महिला पीड़ितों का ही संदर्भ सामने आता है, जबकि वास्तविकता यह है कि पुरुष भी इस हिंसा का शिकार होते हैं। यह हिंसा शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक, आर्थिक और भावनात्मक स्तर पर भी प्रकट होती है। समस्या का सबसे बड़ा पहलू यह है कि सामाजिक दृष्टि से पुरुषों को पीड़ित मानने की मानसिकता विकसित नहीं हुई है। परिणामस्वरूप, केवल उनकी पीड़ा अनदेखी रह जाती है बल्कि उन्हें न्याय और उपचार पाने में भी कठिनाई आती है।

सामाजिक कलंक और पुरुष पीड़ित

समाज में लंबे समय से यह धारणा बनी हुई है कि पुरुष "मजबूत" होते हैं और उन्हें दर्द सहने की क्षमता महिलाओं की अपेक्षा अधिक होती है। यही कारण है कि जब कोई पुरुष अपने साथ हो रही घरेलू हिंसा की बात करता है, तो उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। कई बार उसकी शिकायत को उपहास का विषय बना दिया जाता है। रिश्तेदार और मित्र उसे यह कहकर चुप करवा देते हैं कि ऐसी बातों को बाहर लाने से उसकी "मर्दानगी" पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। यह सामाजिक कलंक पुरुषों के लिए और अधिक घातक साबित होता है।

मानसिक और भावनात्मक प्रभाव

घरेलू हिंसा का असर पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा पड़ता है। जब कोई पुरुष निरंतर अपमान, ताने, गाली-गलौज या आर्थिक शोषण का सामना करता है, तो वह धीरे-धीरे आत्मविश्वास खोने लगता है। इससे उसे अवसाद, चिंता, और आत्महत्या की प्रवृत्ति जैसी गंभीर मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। चूँकि पुरुष अपनी पीड़ा को आसानी से साझा नहीं कर पाते, इसलिए उनका मानसिक बोझ और बढ़ जाता है। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि पुरुषों के भीतर छिपा हुआ दर्द समाज और परिवार की स्थिरता को भी प्रभावित करता है।

आर्थिक और सामाजिक शोषण

कई मामलों में पुरुषों से उनकी आय का अधिकांश हिस्सा जबरन लिया जाता है या उन्हें आर्थिक रूप से निर्भर बना दिया जाता है। पत्नी या परिवार के अन्य सदस्य उनकी संपत्ति या आय का गलत इस्तेमाल करते हैं। ऐसे आर्थिक शोषण के मामले समाज में कम चर्चा का विषय बनते हैं, लेकिन पीड़ित पुरुषों की स्थिति बेहद दयनीय हो जाती है। उन्हें अक्सर सामाजिक समर्थन भी नहीं मिल पाता, जिससे वे अकेलेपन और निराशा की स्थिति में फंस जाते हैं।

कानूनी ढांचा और उसकी सीमाएँ

भारत में घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 को महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया था। यह अधिनियम केवल महिलाओं को संरक्षण प्रदान करता है और पुरुषों को पीड़ित मानने की संभावना इसमें नदारद है। पुरुष यदि घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं तो उनके पास कोई स्पष्ट कानूनी उपाय उपलब्ध नहीं है। भारतीय दंड संहिता (IPC) में भी ऐसी कोई धारा नहीं है जो पुरुष पीड़ितों को सीधे-सीधे राहत प्रदान करे। यही कारण है कि पुरुषों के मामलों को न्यायालय में लाना कठिन हो जाता है।

न्यायालय और विधायिका की भूमिका

हालाँकि, समय-समय पर कुछ न्यायालयों ने यह स्वीकार किया है कि पुरुष भी घरेलू हिंसा का शिकार हो सकते हैं। फिर भी न्यायपालिका के सामने यह चुनौती है कि बिना स्पष्ट प्रावधानों के वह किस प्रकार उन्हें राहत प्रदान करे। विधायकों और नीति-निर्माताओं के समक्ष यह प्रश्न लगातार उभर रहा है कि क्या घरेलू हिंसा अधिनियम को लैंगिक रूप से निष्पक्ष बनाया जाए या पुरुषों के लिए अलग से प्रावधान लाए जाएँ।

सामाजिक जागरूकता का अभाव

पुरुषों के विरुद्ध घरेलू हिंसा की सबसे बड़ी समस्या सामाजिक जागरूकता की कमी है। समाज में यह विषय अभी भी "वर्जित" या "हास्यास्पद" माना जाता है। इस कारण पीड़ित पुरुष अपनी पीड़ा को सार्वजनिक नहीं कर पाते। मीडिया में भी ऐसे मामलों की कवरेज बहुत कम होती है, जिससे यह मुद्दा चर्चा के दायरे से बाहर रह जाता है। जागरूकता अभियानों और शैक्षिक कार्यक्रमों के माध्यम से समाज को यह समझाना आवश्यक है कि घरेलू हिंसा लैंगिक नहीं बल्कि मानवीय अधिकारों का प्रश्न है।

अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण

कई विकसित देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, और कनाडा में पुरुषों के लिए भी घरेलू हिंसा से बचाव के प्रावधान मौजूद हैं। वहाँ पर पुरुषों को भी समान रूप से पीड़ित मानकर सहायता उपलब्ध कराई जाती है। भारत को भी इन देशों से प्रेरणा लेकर अपने विधिक ढांचे को सुधारने की आवश्यकता है।

सुधार की संभावनाएँ

पुरुष पीड़ितों के लिए कानूनी सुधार के कुछ संभावित उपाय इस प्रकार हो सकते हैं:

  1. घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 को लैंगिक रूप से निष्पक्ष बनाया जाए।
  2. पुरुषों के लिए विशेष परामर्श केंद्र और हेल्पलाइन नंबर शुरू किए जाएँ।
  3. पुलिस और न्यायपालिका को इस विषय में विशेष संवेदनशीलता प्रशिक्षण दिया जाए।
  4. पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने के लिए काउंसलिंग और थेरेपी सेवाओं का विस्तार किया जाए।
  5. समाज में जागरूकता अभियान चलाकर यह संदेश दिया जाए कि घरेलू हिंसा किसी भी लिंग के साथ हो सकती है।

सामाजिककानूनी सामंजस्य की आवश्यकता

पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा का समाधान केवल कानूनी उपायों से नहीं निकलेगा। इसके लिए समाज में मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। जब तक समाज यह स्वीकार नहीं करेगा कि पुरुष भी पीड़ित हो सकते हैं, तब तक कोई भी कानूनी सुधार प्रभावी नहीं होगा। साथ ही, न्यायिक और विधायी सुधारों को मिलाकर ही इस समस्या का समाधान संभव है।

निष्कर्ष

पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा एक गहरी और जटिल समस्या है, जिसे अब तक उपेक्षित किया गया है। केवल महिलाओं को केंद्र में रखकर बनाए गए कानून लैंगिक समानता के सिद्धांत के अनुरूप नहीं हैं। न्याय प्रणाली, समाज और नीति-निर्माताओं को यह स्वीकार करना होगा कि घरेलू हिंसा के शिकार पुरुष भी हो सकते हैं और उन्हें न्याय सहायता का अधिकार उतना ही है जितना महिलाओं को। पुरुषों की समस्याओं की अनदेखी केवल उन्हें मानसिक सामाजिक संकट में डालती है, बल्कि लैंगिक न्याय की अवधारणा को भी अधूरा बनाती है।

भारत में पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा एक वास्तविकता है जिसे सामाजिक कलंक और कानूनी सीमाएँ लगातार छिपाती रही हैं। यह केवल व्यक्तिगत पीड़ा का विषय नहीं है, बल्कि एक व्यापक सामाजिककानूनी चुनौती है। यदि पुरुषों की पीड़ा को स्वीकार किया जाए और उन्हें समान रूप से संरक्षण मिले, तो समाज में न्याय और समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया जा सकेगा। कानून को लैंगिक निष्पक्ष बनाकर और समाज को संवेदनशील बनाकर ही इस समस्या का स्थायी समाधान संभव है।

भविष्य की संभावनाएँ

भविष्य में पुरुषों के खिलाफ घरेलू हिंसा से संबंधित समस्याओं के समाधान हेतु निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं

  1. कानूनी सुधार – “घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियममें संशोधन कर इसे सभी लिंगों के लिए समान रूप से लागू किया जाए।
  2. सामाजिक जागरूकताशिक्षा संस्थानों, मीडिया और स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से यह संदेश दिया जाए कि घरेलू हिंसा किसी भी लिंग के साथ हो सकती है।
  3. न्यायिक संवेदनशीलता न्यायाधीशों, वकीलों और पुलिसकर्मियों को लैंगिक समानता और संवेदनशीलता का प्रशिक्षण दिया जाए।
  4. सहायता प्रणाली पुरुष पीड़ितों के लिए परामर्श केंद्र, सुरक्षित आश्रय स्थल और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की स्थापना की जाए।

यदि इन पहलुओं पर गंभीरता से कार्य किया जाए तो केवल पुरुषों के लिए न्याय सुलभ होगा, बल्कि समाज में वास्तविक लैंगिक समानता स्थापित हो सकेगी।