लोक संस्कृति के स्वरूप एवं प्रासंगिकता एक विशलेषणात्मक अध्ययन

Exploring the Essence and Relevance of Folk Culture

by Priya Ranjan*,

- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540

Volume 4, Issue No. 8, Oct 2012, Pages 1 - 5 (5)

Published by: Ignited Minds Journals


ABSTRACT

संस्कृति ब्रह्म की भाँति व्यापक है। अनेक तत्वों का बोध कराने वाली, जीवन की विविध प्रवृतियों से संबंधित है, अतः विविध अर्थो व भावों में उसका प्रयोग होता है। मानव मन की वाह्य प्रवृतिमूलक प्रेरणाओं से जो कुछ विकास हुआ है उसे सभ्यता कहेगें और उसकी अन्तर्मुखी प्रवृतियों से जो कुछ बना है, उसे संस्कृति कहेंगे। लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जनता से है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है। दीन-हीन, शोषित दलित, जंगली जातियाँ, कोल, भील, गौण्ड, संथाल, आदि समस्त समुदाय का मिला जुला रूप लोक कहलाता है। इन सबकी मिली जुली संस्कृति लोक संस्कृति कहलाती है। लोक संस्कृति समग्रता में विशिष्टता का अनुभव कराने वाली संस्कृति है। यह क्षेत्र विशेष की पहचान को भी स्थापित करता है। दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि उसे किस रूप देखे समग्र या क्षेत्र विशेष देखने में इस सबका अलग-अलग व्यवहार, नृत्य-गीत, कला-कौशल, भाषा बोली आदि सब अलग-अलग दिखाई देते है, परन्तु एक ऐसा सूत्र है जिसमें ये सब एक माला में पिरोई हुई मणियों की भाँति दिखाई देते है, यही लोक संस्कृति है लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नही रही, उल्टे शिष्ट समाज लोक संस्कृति से प्ररेणा प्राप्त करता रहा है। लोक संस्कृति का एक रूप हमें भावा भिव्यक्तियों की शैली में भी मिलता है, जिसके द्वारा लोकमानस की मांगलिक भावना से ओत-प्रोत होना सिद्ध होता है। वह दीपक के बुझाने की कल्पना से सिहर उठता है। इसलिए वह दीपक बुझाने की बात नही करता दीपक बठाने की बात करता है। इसी प्रकार दुकान बन्द होने की कल्पना से सहम जाता है, दूकान बढ़ाने की बात करता है। लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसर्गिक अनुभूतिमयी अभिव्यंजना का चित्रण लोक गीतों व लोक कथाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है। लोक साहित्य में लोकमान का हृदय बोलता है। प्रकृति स्वयं गाती गुनगनाती है। लोक जीवन में पत्र-पत्र पर लोक संस्कृति के दर्शन होते है। लोक संस्कृति उतना ही पुराना है जितना कि मानव, इसलिए उसमें जन-जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है। लोक संस्कृति में समरसता होती है जो एक क्षेत्र विशेष को समता के भाव में जोड़े रहती है लोक संस्कृति लोगों को प्ररेणा तथा सहिषुणता प्रदान करती है। इसलिए यह आज भी प्रासंगिक है।

KEYWORD

लोक संस्कृति, विशलेषणात्मक अध्ययन, संस्कृति, मानव मन, लोक संस्कृति, जनता, भावा भिव्यक्तियों, लोक गीत, लोक कथा, लोक साहित्य