संस्कृत लोक कथा-साहित्य
एक अध्ययन
by Dr. Nisha Rani*,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 14, Issue No. 2, Jan 2018, Pages 430 - 432 (3)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
लोक् (देखना) धातु एवं छञ् प्रत्यय के संघात से ‘लोक‘ का आविभवि हुआ है। सभी प्रत्यक्ष लोक है। यही नहीं, लोक भी तीन माने गए हैं और चैदह भी इहलोक परलोक को विषय में पढ़ा व सुना जाता है। पर हमें वायवी लोकोत्तर की अपेक्षा हमारे आसपास के इहत्वोक की चर्चा ही अभिष्ट है। क्योंकि लोकपद्धति का अनुसर्ता लोकापवाद का पात्र नहीं होता। लोक मर्यादा से प्रतिबद्ध लोकजीवन की यात्रा को सुगम बनाने के लिए अपनाये गए लोक के विविध साधनों में लोक मर्यादा से प्रतिबद्ध लोकजीवन की यात्रा को सुगम बनाने के लिए अपनाए गए लोक के विविध साधनों में लोकगाथा तथा लोककथा का अपना विशिष्ट स्थान है। परम्परा से लोक में गाये जाने वाले गीत को लोकगीत एवं ऐसे ही कथात्मक गीत को लोकगाथा कहते हैं। लोकजीवन का सफल अनुरंजन करने में ये दोनो (लोकगाथा व लोककथा) धाराएं अज्ञात काल से लोक संस्कृति का अविच्छिन रूपेण श्रुतिपरम्परया वहन करने में सफल रही है। हमें इन द्रष्टाओं की मेधा का लोहा मानना होगा। जिन्होने लोकरंजन के ये रसभासित साधन सुलभ किये। हमें ज्ञात नहीं कि इस सृष्टि का निर्माता कौन है, हमें यह यथार्थ ज्ञान नहीं है कि मानव ने कब व कैसे अपनी जीवन चर्या प्रारम्भ की, तथैव इन लोककथाओं की उद्भावना भी हमारी ज्ञान-सीमा से परे है। अज्ञातकाल से अज्ञातजनों की ये कल्पना प्रसूत परियां अगणित जिह्व्याओं पर थिरकती रही। अनन्तकाल तक पुरखों की वाणी का परवर्ती के निकट आ जाते हैं, दोनों की अभिभूतियां समान प्रभावभरित हो जाती है। उस सभ्यता का इस सभ्यता से साक्षात्कार हो जाता है। अनन्तकाल की लोकयात्रा में देाकालानुरूप उनके परिवेश में अन्तर भी आ जाता है। परन्तु तŸव अन्ततः वही रहता है। लोक जीवन की उन आदिकथाओं का पल्लवन ही परवर्ती लिखित अथवा अलिखित साहित्य है। चित्र-कल्पना के प्रारम्भिक रूप में गुहाओं की भिŸिायों पर प्राप्त होते हैं जो आदिमानव की वास्थली है। उन्ही चित्रों में अंकित वाद्य एवं चित्रों में ही तत्कालीन संगीत-अभिरूचि के भी संकेत प्राप्त होते हैं। इस प्रकार हमें लोकजीवन के आल्हादक तत्व लोककला एवं लोकसंगीत के जीवन्त उदाहरण यह सोचने को बाध्य कर देते हैं कि ये कल्पनाशील मानव की सृष्टि हैं जिसके हाथ विविध चित्र बनाने को आतुर हो उठे, विविध खिलौने बनाने में व्यस्त हो गए। निश्चय ही प्रकृति की चिरन्तन एवं नूतन परिवर्तनशीलता देखकर आल्हाद से मन मचल उठा और स्वतः कण्ठ से निर्झरवत् गान झर पड़े। आपस मेें मिल बैठे दो-चार वाग्मी ग्रामीण। अपने में से ही किसी अप्रतिम वीर की बात कहने लग गए। उसमें कल्पना का पुट भी आ गया। ये कल्पनाभरित बातें साभिनय व्यक्त होने लगीं। इस अभिनय में ही भावी लोकनाट्यों के बीज छिपे थे जो स्वयं परवर्ती नाट्यों के उत्स हैं।
KEYWORD
लोक कथा-साहित्य, लोक, लोकगाथा, लोककथा, लोकरंजन, लोक संस्कृति, लोककला, लोकसंगीत, गान