निशा भार्गव के साहित्य में राजनीतिक एवं सामाजिक हास्य व्यंग का अध्ययन
भारतीय साहित्य में राजनीतिक और सामाजिक हास्य व्यंग
by Mamatha Sharma*,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 15, Issue No. 6, Aug 2018, Pages 370 - 374 (5)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
मानव ईश्वर की श्रेष्ठतम कृति अथवा सृष्टि का मुकुट माना जाता है। मनुष्य के पास मन, बुद्धि और संवेदनाएँ हैं जो उसे अन्य जीवों से श्रेष्ठ बनाती है। उसके पास चिन्तन-मनन करने की शक्ति है, जिससे वह सही-गलत व अच्छे -बुरे की पहचान करता है। इन शक्तियों के परिणामस्वरूप मनुष्य समाज तथा सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करता है। भीड़ समाज नही है, जहाँ पारस्परिक हितों का चिन्तन होता है, वह समाज है। समाज में सबके हितों का दीर्घकालीन चिन्तन छिपा होता है। जब यह चिन्तन समाप्त हो जाता है, तो समाज विकृत हो जाता है। समाज में ये विकृतियाँ और विसंगतियाँ मानव जीवन के साथ-साथ पनपती रहती हैं। ये विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ सामाजिक जीवन के सजग व्यक्ति को अन्दर ही अन्दर कचोटती रहती हैं, जिससे वह आक्रोश और तिक्तता से भर जाता है। इसी का परिणाम व्यंग्य है। विश्व काव्य में व्यंग्य की एक दीर्घ परम्परा रही है परन्तु बहुत दिनों तक इसे हास्य का ही एक अंग-अंग समझा जाता रहा। यह सर्वविदित सत्य है कि मानव जीवन में हास्य का विशिष्ट स्थान है। जातीय सजीवता के साथ-साथ यह सुधार का माध्यम भी है। मनुष्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था में चाहे झुण्ड मे रहा हो, चाहे आज के वैज्ञानिक युग के विकसित समाज में, जीवन की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ उसे चुभती रही हैं। इस शोध में हम निशा भार्गव के साहित्य कार्यों में राजनितिक एवं सामाजिक हास्य व्यंगों का अध्ययन करेंगे।
KEYWORD
निशा भार्गव, साहित्य, राजनीतिक, सामाजिक, हास्य व्यंग