विमुद्रीकरण की पृष्ठभूमि तथा भारत के जीडीपी पर इसका प्रभाव
विमुद्रीकरण और भारत की अर्थव्यवस्था: एक विश्लेषण
by Dr. Lal Kumar Shah*,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 15, Issue No. 7, Sep 2018, Pages 503 - 506 (4)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
विमुद्रीकरण एक अनुठा कदम है, यह पिछली व्यवस्था से एक संरचनात्मक विलगाव का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इसका अर्थ है कि इसके प्रभावों का पूर्वाकलन कर पाना एक जोखिम भरा काम होगा। अतः आगामी चर्चा, विशेषकर परिमाण निर्धारण के प्रयासों को निश्चयत्मक नहीं, किंचित अनुमानात्मक ही मानना चाहिए। इतिहास के फैसला, जब भी वह समय के धूं-धलके, को चीरता हुआ आएगा, आज के निष्कर्ष निदानवादों को अचंभित कर सकता है। सबसे पहले तो भारत में नकद जीडीपी अनुपात का विकास क्रम दो सोपानों में हुआ है। पहले डेढ़ दशकों में (1952-53 से 1967-68 तक) यह लगभग 12 प्रतिशत से घटकर 9 प्रतिशत के आसपास रह गया था। उसके बाद से यह अनुपात अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर के साथ-साथ बदलता रहा है। जब 1970 के दशक के अंत में संवृद्धि दर में सुधार होने लगा तो यह नकद जीडीपी अनुपात भी ऊपर की ओर उठने लगा। वर्ष 2000-2010 में जब संवृद्धि में उफान आया तो इस अनुपात की वृद्धि भी त्वरित दर से होती दिखी। वर्ष 2010 के आसपास स्फीति की दर उच्च रही और उस समय यह अनुपात कुछ कम हो गया था, किंतु 2014-15 के बाद स्फीति दर में गिरावट के बाद यह अनुपात पुनः 12 प्रतिशत पर पहुँच गया। उच्चमान के करेंसी नोटों (रू. 500 तथा रू. 1000) के मूल्य और जीडीपी का अनुपात भी जीवन स्तर के उन्नयन के साथ-साथ ऊपर उठता रहा है। दूसरे, भारत की अर्थव्यवस्था, भले ही यह एक अपेक्षाकृत गरीब देश माना जाता हो, किसी सीमा तक अधिक नकदी पर निर्भर रहती है।
KEYWORD
विमुद्रीकरण, पृष्ठभूमि, भारत, जीडीपी, प्रभाव