भारतीय काव्यशास्त्र में रस की अवधारणा
Exploring the Essence of Rasa in Indian Poetics
by Bhaskar Mishra *,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 15, Issue No. 11, Nov 2018, Pages 573 - 580 (8)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
भारतीय संस्कृत में रस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गई है- “रस्यते आस्वाघते इति रसः” अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है-अथवा “सते इति रसः” अर्थात् जो बहे, वह रस है। इस प्रकार रस की दो विशेषताएँ लक्षित होती हैं- आस्वाद्यत्व और द्रवत्व। हमारे आदि ग्रंथ वेद, उपनिषद और पुराणों में “स” शब्द का प्रयोग व्यवहारिक जीवन के लिए मिलता है काव्यानन्द के अर्थ में नहीं। तैतिरी योपनिषद की मान्यता है कि वह अर्थात् ‘ब्रह्म’ निश्चय ही रस है और जो उस रस को प्राप्त करे उसे आनन्द की अनुभूति होती है उपर्युक्त सभी प्रयोगों से स्पष्ट है कि रस का मूल अर्थ कदाचित् द्रवरूप वनस्पति-सार ही था। यह द्रव निश्चय ही आस्वाद-विशिष्ट होता था - अतः एव। “आस्वाद” रूप में भी इसका अर्थ-विकास स्वतः ही हो गया, यह निष्कर्ष सहज निकाला जा सकता है। सोम नामक औषधि का रस अपने आस्वाद और गुण के कारण आर्यों को विशेष प्रिय था, अतः सोमरस के अर्थ में रस का प्रयोग और भी विशिष्ट हो गया। अत: सोमरस के संसर्ग से रस की अर्थ-परिधि में क्रमशः शक्ति, मद और अंत में आह्लाद का समावेश हो गया। आह्लाद का अर्थ भी सूक्ष्मतर होता गया - वह जीवन के आहलंद से आत्मा के आल में परिणत हो गया और वैदिक युग में ही आत्मानंद का वाचक बन गया, अथर्ववेद में उपर्युक्त अर्थ-विकास के स्पष्ट प्रभाव मिल जाते हैं।
KEYWORD
रस, भारतीय काव्यशास्त्र, आस्वाद, द्रवत्व, वनस्पति-सार, सोमरस, शक्ति, मद, आह्लाद, आत्मानंद