निराला के कथा साहित्य में चेतना
नारी और समाज: निराला के कथा साहित्य में चेतना का अध्ययन
by Krishna Kanti Bhagat*, Dr. Mamta Rani,
- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540
Volume 19, Issue No. 1, Jan 2022, Pages 406 - 409 (4)
Published by: Ignited Minds Journals
ABSTRACT
प्राणी जगत में नर-नारी जहाँ इकाई रूप में जीवन यापन करते हैं, वहाँ वे अपने पारस्परिक संबंधों से सृष्टि का विकास भी करते हैं। प्रकृति नर-नारी के युग्म से सृष्टि के विकासक्रम को स्थिर रखती है और श्रम-विभाजन से समाज को गति देती निराला का कथा-साहित्य भी इस प्रश्न को लेकर आगे बढ़ रहा है। इतिहासकारों ने सभ्यता के आरम्भ में मातृ सत्तात्मक समाज होने की पुष्टि की है। इसके प्रमाण आज भी कुछ कबीलाई जातियों में दिख जाते हैं तो फिर हमारी इस कमतर स्थिति की शुरुआत कहाँ से और क्यों हुई ? इस उत्पादन के लिए मनुष्य को निरन्तर प्रकृति के साथ संघर्ष करना पड़ता है, जिससे वह उसके अनुकूल हो जाए। इस बीहड़ जंगल युग में जब प्रकृति पर इंसान का कोई नियन्त्रण नहीं था और जीने की परिस्थितियाँ अत्यन्त कठिन थी, अधिक से अधिक सन्तान उत्पन्न करना एक महत्वपूर्ण काम था और नारी इस काम के लिए सीधे-सीधे जुड़ी थी। लेकिन समय के साथ पुरुषों के प्रबल से प्रबलतर होते चले जाने के कारण स्त्री अपनी स्वतंत्रता खोकर पुरुष की अनुगूंज मात्र बनकर रह गई। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए 19वीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण आंदोलन ने महिलाओं को केंद्र में रखकर उनकी स्थिति में सुधार के लिए अथक प्रयास किए ।
KEYWORD
निराला, कथा साहित्य, चेतना, प्राणी जगत, समाज, मातृ सत्तात्मक समाज, प्रकृति, नारी, स्त्री, पुरुष