बी. वी कारन्त द्वारा अनूदित गिरीश कारनाड का मूल कन्नड़ नाटकहयवदन:1971

Exploring Completeness and Imperfections through Girish Karnad's Hayavadana

by अजिता कुमारी के डी*, डॉ. जयलक्ष्मी पाटिल,

- Published in Journal of Advances and Scholarly Researches in Allied Education, E-ISSN: 2230-7540

Volume 19, Issue No. 4, Jul 2022, Pages 81 - 84 (4)

Published by: Ignited Minds Journals


ABSTRACT

पूर्ण की अपूर्णता (मनुष्य की अपूर्णता) को विभिन्न काल-खंडों में रखकर अनेक नाटक लिखे गए हैं। ’हयवदन’ की उपकथा में मनुष्य को पूर्ण मनुष्य होने से आरम्भ होकर-शरीर और मस्तिष्क, दोनों की श्रेष्ठता की कामना मुख्य कथा में प्रदर्शित की जाती है। स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरेपन की त्रासादी और उनके उलझावपूर्ण संबंधों की अबूझ पहेली को देखने-दिखानेवाले नाटक तो समकालीन भारतीय रंग-परिदृश्य में और भी हैं लेकिन जहाँ तक संपूर्णता की अंतहीन तलाश की असह्य यातनापूर्ण परिणति तथा बुद्धि और देह के सनातन महत्ता-संघर्ष के परिणाम का प्रश्न है गिरीश कारनाड का हयवदन, कई दृष्टियों से, निश्चय ही एक अनूठा नाट्य-प्रयोग है।नाटक की शुरुआत में भगवत नाम का एक पात्र मंच पर आता है जो कि इस नाटक का कथावाचक भी है, वह गणेश पूजा के माध्यम से इस नाटक के सफल मंचन की कामना करता है ।

KEYWORD

पूर्ण की अपूर्णता, नाटक, हयवदन, गिरीश कारनाड, श्रेष्ठता, संबंध, संपूर्णता, सनातन महत्ता-संघर्ष, नाट्य-प्रयोग, गणेश पूजा