प्रत्येक क्षेत्र और विभिन्न संदर्भो में नारी अस्मिता का हिन्दी महिला उपन्यासों में वर्णन | Original Article
समाज में स्त्री की स्थिति बहुत दयनीय रही। वह पुरुष के अधीन थी तथा उसे पूर्णतः पुरुष पर ही निर्भर रहना पड़ता था। उसका स्वतंत्र अस्तित्व तथा अधिकार समाप्त हो गया। उसके विकास के तमाम रास्ते व्यवस्था द्वारा अवरुद्ध कर दिए गए। वह पुरुष के उपभोग और उपयोग की वस्तु बन गई। उन्नीसवीं शताब्दी के पूवाद्ध तक महिलाओं की स्थिति ऐसी ही रही लेकिन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्त्रियो की स्थिति को बदलने के प्रयास दिखाई देते हैं। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, रामकृश्ण परमहंस आदि ने नारी की समस्याओं की ओर ध्यान दिया। दहेज प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी रुढ़ते प्रचार-प्रसार सुर शिक्षा के आलोक में स्त्री अपने नए-नए रूपो से परिचित हुई। वह घर की दहलीज़ से निकलती है, आत्मनिर्भर बनती है औैर पुरुषों के साथ कदमताल मिलाने की कोशिश करती है। उसकी कोशिश पूरी तरह आज भी सफल नहीं हुई है। पितृसत्तात्मक मानसिकता में खास अंतर नहीं आया है। इस प्रकार स्त्रियों को पितृसत्तात्मक व्यवस्था और रुढियों के दो तरफा आक्रमण को कहीं-न-कहीं आज भी झेलना पड़ता है।