वैदिक परम्परा में गुरू-शिष्य सम्बन्ध

The Significance of Guru-Shishya Relationship in the Vedic Tradition

Authors

  • Dr. Parveen Kumar

Keywords:

वैदिक परम्परा, गुरू-शिष्य सम्बन्ध, वेद, संस्कारों, प्रगतिशीलता

Abstract

वेद मानवधर्म तथा समस्त सत्य विद्याओं के आदिम स्रोत है। मनुष्यमात्र के सम्पूर्ण विकास के लिए वैदिक आचार्यों ने संस्कारों की संकल्पना की है। संस्कार शिक्षा की आधारभूमि है। मानव की पूर्णता में जो आरम्भिक योजना है उसे वैदिक साहित्य में संस्कार कहा गया है। संस्कार का अर्थ है-सतत परिष्कार अर्थात् प्रगतिशीलता। इस प्रगतिशीलता के विकास का सर्वाधिक अवकाश मनुष्य जन्म में ही सम्भव है। पुत्र या पुत्री का जन्म चाही-अनचाही आकस्मिक प्रक्रिया नहीं है। यह एक सुनियोजित उत्तरदायित्व है-प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। इस संस्कार प्रक्रिया का आरम्भ गर्भाधान संस्कार के रूप में होता है। तत्पश्चात् पुंसवन, और सीमन्तोन्नयन संस्कारों से माता-पिता जन्म से पूर्व ही बालक की शिक्षा के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर देते हैं। इतना ही नहीं, अब जन्म के पश्चात् जातकर्म संस्कार आया तो पिता पुत्र की मेधा के लिए कामना करता है। तत्पश्चात् नामकरण काल में पिता पुत्र के कान में यह मंत्र बोलता है कि-कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि और यह संस्कार डालना आरम्भ करता है कि हे बालक तुझे यह जानना है कि तू कौन है आदि।

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Published

2019-06-01

How to Cite

[1]
“वैदिक परम्परा में गुरू-शिष्य सम्बन्ध: The Significance of Guru-Shishya Relationship in the Vedic Tradition”, JASRAE, vol. 16, no. 9, pp. 570–572, Jun. 2019, Accessed: Sep. 16, 2025. [Online]. Available: https://ignited.in/index.php/jasrae/article/view/12264

How to Cite

[1]
“वैदिक परम्परा में गुरू-शिष्य सम्बन्ध: The Significance of Guru-Shishya Relationship in the Vedic Tradition”, JASRAE, vol. 16, no. 9, pp. 570–572, Jun. 2019, Accessed: Sep. 16, 2025. [Online]. Available: https://ignited.in/index.php/jasrae/article/view/12264