कालिदास के महाकाव्यों में प्रकृति संरक्षण का संदेश
Exploring the Message of Nature Conservation in the Epics of Kalidasa
Keywords:
कालिदास, महाकाव्यों, प्रकृति संरक्षण, पांच महाभूत, पर्यावरणAbstract
भारतीय दर्शनों के अनुसार इस संपूर्ण जगत् का निर्माण पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, और जल इन पांच महाभूतों से होता है। अतः प्रकृति में दिखाई देने वाले समस्त पदार्थ भी इन पांच महाभूतों से ही निर्मित है। आधुनिक समय में जिसे पर्यावरण या पारिस्थितिकी या परिवेशिकी कहा जाता है उसे ही प्राचीन ग्रन्थों में प्रकृति का नाम दिया गया है। पर्यावरण शब्द परि+आ+वृ+ल्युट् से सिद्ध होता है। जिसका अर्थ है - वह वातावरण जो मनुष्य को चारो ओर से व्याप्त कर उससे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है। प्रकृति के उत्पादन जैसे जल, वायु, मृदा, पादप तथा विभिन्न प्राणी यहाँ तक कि स्वयं मानव भी पर्यावरण का एक अंश है। अतएव जीव जगत् और प्रकृति का परस्पर अभिन्न संबंध भी है। प्राकृतिक शुद्धता पर ही पर्यावरण की शुद्धता निर्भर होती है अतः अपने आसपास विद्यमान जगत् एवं जीवन के आधारभूत पंचमहाभूतों को शुद्ध बनाए रखना एवं उन्हें दूषित न होने देना मानव जीवन का परम कर्तव्य है। इसी कारण प्राचीन काल से ही विशाल संस्कृत साहित्य में पर्यावरण संरक्षरण और संवर्धन पर विशेष ध्यान दिया गया है। वृक्ष वनस्पतियों को शास्त्रों में देवता तुल्य मानकर उनकी पूजा अर्चना करने का विधान है। क्योकि वृक्ष स्वाभाविक रूप से विषैली वायु का स्वयं पान कर मानव जीवन को शुद्ध प्राणवायु प्रदान करते हैं। अतएव यजुर्वेद का ऋषि वृक्ष वनस्पतियों की उपासना करता हुआ मंत्रोच्चारण करता है नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः। वनानां पतये नमः। ओषधीनां पतये नमः।Published
2021-03-01
How to Cite
[1]
“कालिदास के महाकाव्यों में प्रकृति संरक्षण का संदेश: Exploring the Message of Nature Conservation in the Epics of Kalidasa”, JASRAE, vol. 18, no. 2, pp. 58–60, Mar. 2021, Accessed: Sep. 20, 2024. [Online]. Available: https://ignited.in/index.php/jasrae/article/view/13040
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Articles
How to Cite
[1]
“कालिदास के महाकाव्यों में प्रकृति संरक्षण का संदेश: Exploring the Message of Nature Conservation in the Epics of Kalidasa”, JASRAE, vol. 18, no. 2, pp. 58–60, Mar. 2021, Accessed: Sep. 20, 2024. [Online]. Available: https://ignited.in/index.php/jasrae/article/view/13040