मध्यकालीन भावबोध से मुक्ति का स्वर

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Authors

  • Dr. Asha Tiwari Ojha

Keywords:

मध्यकालीन भावबोध से मुक्ति का स्वर, सामंतवादी व्यवस्था, दलित, असमानता, धर्म, वर्गभेद, समाजिक असमानता, धर्म के आधार पर, अंधविश्वासों, सामाजिक विषमता, धर्म की सीमाओं, मार्टिन लूथर, सूफी संत, कबीर, गुरुनानक, रैदास, दादू

Abstract

सामंतवादी व्यवस्था दलितों का एक तरफ शोषण कर रही थी व दूसरी ओर समाज में व्याप्त असमानता, आर्थिक शोषण और वर्गभेद को मजबूत बना रही थी। सामाजिक असमानता और भेद को धर्म के आधार पर सही ठहराया जा रहा था। मध्यकालीन समाज द्वारा स्वीकृत अपूर्ण व अधूरा ज्ञान ही वास्तविक मान लिया गया था।धर्मसत्ता के इस वर्चस्व के विरुद्ध पूरे विश्व में 13वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक धार्मिक आन्दोलन शुरू हुए। अंधविश्वासों, कुरीतियों और सामाजिक विषमता से उपजे भेद के विरोध में धर्म की सीमाओं के भीतर रहकर धर्म के वास्तविक एवं मूल उपदेशों पर जोर देने वाले कवियों का उदय हुआ। योरोप में मार्टिन लूथर एवं उनके जैसे अन्य सुधारक, अरब देशों में विभिन्न सूफी संत और भारत में कबीर, गुरुनानक, रैदास और दादू जैसे कवियों व उपदेशकों ने धर्म के मानवीय प्रेममूलक रूप पर जोर दिया।

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Published

2018-04-01

How to Cite

[1]
“मध्यकालीन भावबोध से मुक्ति का स्वर: -”, JASRAE, vol. 15, no. 1, pp. 1414–1419, Apr. 2018, Accessed: Jun. 27, 2025. [Online]. Available: https://ignited.in/index.php/jasrae/article/view/7836

How to Cite

[1]
“मध्यकालीन भावबोध से मुक्ति का स्वर: -”, JASRAE, vol. 15, no. 1, pp. 1414–1419, Apr. 2018, Accessed: Jun. 27, 2025. [Online]. Available: https://ignited.in/index.php/jasrae/article/view/7836